दिल्ली की लड़ाई भले अभी एक साल दूर हो, लेकिन राजनीति की बिसात पर ‘जंग’ का बिगुल अभी से बज गया है। सेनाएं अपनी बैरक से निकलने को बेताब हैं, बयानों की ‘मिसाइल’ और आरोपों के ‘लड़ाकू विमान’ अपग्रेड होकर नए कलेवर में उड़ान भरने के लिए तैयार हैं, सहयोगियों और प्रतिद्वंदियों को अपने-अपने खेमे में लाने की होड़ भी तेज हो गई है। तमाम उठापटक के बीच दिलचस्प बात ये है कि दोनों मुख्य खेमों की रणनीति में उत्तर और दक्षिण का फर्क स्पष्ट नजर आ रहा है। एक तरफ सेनापति तय है जो आने वाले दिनों के लिए अपनी सेना की जमावट कर रहा है, दूसरी तरफ कई ‘टुकड़ियां’ मिली-जुली सेना बनाने का दावा तो कर रही हैं लेकिन सेनापति के सवाल पर कन्नी काट रही हैं।
इशारों-इशारों से निकलकर स्पष्ट शब्दों में बात करें, तो 2024 के लिए सत्ता पक्ष में नेतृत्व में कोई कन्फ्यूजन नहीं दिखता है। वहां नरेन्द्र मोदी मौजूद हैं। दूसरे नाम की दूर-दूर तक कोई चर्चा नहीं है। लेकिन विपक्ष का नेतृत्व अभी भी दूर की कौड़ी दिख रहा है। दावेदार कई हैं लेकिन सहमति किसी पर नहीं बन पा रही है। थोड़े-थोड़े अंतराल पर हर दावेदार आगे आकर अपना दावा पेश करता रहता है। इन दावों में संकेतों की मात्रा ज्यादा और ऐलान का अंश बहुत कम दिखता है। इसलिए व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को ज्यादा महत्व नहीं मिल पा रहा है।
वैसे दिल्ली की कुर्सी के सपने को लेकर सबसे ताजा और एक दिलचस्प संकेत बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के एक मंच से आया है। बीते दिनों नीतीश पटना में एक इफ्तार पार्टी के मंच पर थे, जिसके बैकग्राउंड में लाल किले की बड़ी-सी डिजिटल तस्वीर नुमाया हो रही थी। नीतीश वैसे भी प्रतीकों में बात करने के लिए काफी मशहूर हैं। लिहाजा इस तस्वीर ने राजनीतिक तकरार को हवा दे दी है। बीजेपी ने इसे नीतीश के प्रधानमंत्री बनने की चाहत की नई अभिव्यक्ति बताया है। बीजेपी पहले भी गाहे-बगाहे नीतीश की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा को बिहार में जेडीयू के साथ उसका गठबंधन टूटने की वजह बताती रही है। बीते सप्ताह बिहार की एक रैली में केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भी नीतीश पर सीधा हमला करते हुए कहा था कि उनका प्रधानमंत्री बनने का सपना अधूरा ही रह जाएगा क्योंकि जनता पहले से ही नरेन्द्र मोदी को तीसरा मौका देने के लिए तैयार बैठी है। ऐसे समय में लाल किले की पृष्ठभूमि वाले मंच पर नीतीश का दिखाई देना अमित शाह के ‘पीएम पद पर नो वैकेंसी’ वाले बयान का जवाब भी माना जा रहा है।
हालांकि मामला पीएम पद पर नो वैकेंसी से पहले विपक्ष के नेता पद पर आम सहमति का भी है। राष्ट्रीय स्तर पर नीतीश की विपक्षी नेताओं में भले ही स्वीकृति हो, लेकिन लोकसभा और राज्यसभा में उनकी पार्टी जेडीयू का दुर्बल संख्या बल उनकी नेतृत्व की दावेदारी को कमजोर करता है। लोकसभा में उनसे ज्यादा सांसद तो स्टालिन की डीएमके और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के हैं। अरविंद केजरीवाल भी दो राज्यों में आम आदमी पार्टी की सरकार का हवाला देते हुए समय-समय पर ‘मैं हूं ना’ का गीत गुनगुनाने लगते हैं। इसी तरह हाल ही में ‘लोकल से नेशनल’ हुए केसीआर भले ही रेस में ठीक से दौड़ नहीं पा रहे हों, लेकिन दौड़ से हट भी नहीं रहे हैं।
इन सबके ऊपर कांग्रेस है जहां राहुल गांधी का चुनावी भविष्य भले ही अस्पष्ट हो लेकिन सबसे बड़ा विपक्षी दल होने के नाते पार्टी विपक्ष के नेतृत्व की स्वाभाविक हकदार है। लेकिन भारतीय राजनीति में ‘स्वाभाविकता’ अब अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है। भले ही कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने नागालैंड चुनाव में दावा किया हो कि कांग्रेस ही विपक्ष का नेतृत्व करेगी, लेकिन इससे ममता, केसीआर, केजरीवाल और यहां तक कि अखिलेश यादव के कानों पर भी जूं तक नहीं रेंगी है। इन चारों को बीजेपी और कांग्रेस में ज्यादा फर्क नहीं दिखता। हाल ही में पश्चिम बंगाल विधानसभा के उपचुनाव में ममता को सत्ता में रहते हुए कांग्रेस से शिकस्त झेलनी पड़ी। हार के साथ-साथ ममता इस बात से भी बिफरी हुई हैं कि कांग्रेस ने उन्हें हराने के लिए लेफ्ट से हाथ मिला लिया। हाल ही में ममता के ‘राजनीतिक मित्र’ बने अरविंद केजरीवाल तो खुद ही विपक्षी एकता पर सवाल उठाते हुए कहते रहे हैं कि उनका गठबंधन तो जनता से है। गैर-बीजेपी और गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के जी-8 सम्मेलन का विचार भी केजरीवाल की मंशा पर सवाल खड़े करता है। दिल्ली और पंजाब में सरकार बनाने के बाद समूचे उत्तर भारत में विस्तार करने की उनकी महत्वाकांक्षा आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच परस्पर सिर फुटौव्वल की वजह बनती रहती है। यही हालत केसीआर की है जिन्हें लगता है कि उन्हें तेलंगाना की कुर्सी से हटाने के लिए बीजेपी और कांग्रेस ने हाथ मिला लिया है। इसी तरह अखिलेश भी इस बार दशकों की परंपरा को तोड़कर अमेठी और रायबरेली लोकसभा सीट पर एसपी उम्मीदवार उतारने की बात कर रहे हैं।
कांग्रेस उत्तर प्रदेश में भले ही सबसे कमजोर स्थिति पर खड़ी दिखाई दे रही हो, लेकिन लोकसभा के चुनाव में किसी के साथ गठबंधन में शामिल हो जाती है तो सियासी समीकरण बदल सकते हैं। दिक्कत ये है कि नीतीश कुमार और शरद पवार जैसे मंझे नेता तो इस बात की हकीकत समझते हैं, लेकिन अन्य क्षेत्रीय क्षत्रप कांग्रेस को गले की फांस ही मानते हैं। शायद इसलिए ही फरवरी में जब सीपीआई-एमएल के अधिवेशन में नीतीश ने खुले मंच से कांग्रेस से आगे बढ़कर विपक्ष का नेतृत्व करने की अपील की थी, तो वरिष्ठ कांग्रेसी नेता सलमान खुर्शीद को पूछना पड़ा था कि पहले ‘आई लव यू’ कौन कहेगा।
गठबंधन में राष्ट्रीय दल को महत्व देने का एक व्यावहारिक पक्ष भी होता है। क्षेत्रीय नेता अपने राज्य में भले दमदार होते हों लेकिन उनकी ये ताकत अक्सर विधानसभा चुनावों तक ही सिमटी होती है। जब बात लोकसभा चुनाव की आती है तो राज्यों के मतदाता रणनीतिक तरीके से मतदान करते हैं और राष्ट्रीय दलों का रुख करते हैं। पूर्व के गठबंधनों में इन व्यावहारिक विचारों को क्षेत्रीय दलों ने मार्गदर्शक सिद्धांतों के रूप में माना था लेकिन मौजूदा दौर में उसे भुला दिया गया है। यह किसी भी प्रकार के गठबंधन में कांग्रेस की भूमिका को लेकर असमंजस की एक बड़ी वजह हो सकती है। वैसे हाल ही में राहुल गांधी की संसद सदस्यता जाने पर विपक्ष जिस तरह कांग्रेस के पीछे लामबंद हुआ उससे विपक्षी एकता की तस्वीर सुनहरी होती तो दिखती है लेकिन उसकी चमक कितने दिन बरकरार रहेगी ये बड़ा सवाल है?
वैसे अगर किसी तरह विपक्ष बीजेपी के खिलाफ एकजुट रहने का चमत्कार कर दिखाता है, तो फिर चुनाव दिलचस्प हो सकता है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 38 फीसद वोट मिले थे जबकि 14 मुख्य विपक्षी दलों का हिस्सा 39 फीसद था। ये अलग बात है कि ज्यादा मत-प्रतिशत के बावजूद विपक्ष केवल 160 सीटें जीत पाया और बीजेपी 300 का आंकड़ा पार कर गई।
लेकिन राजनीति में कोई दल अपने हितों की अनदेखी कर गठबंधन नहीं बनाएगा। अगर इसके पीछे कोई नैतिक या बौद्धिक वजह नहीं हो तो ऐसे गठजोड़ अधिकतर कुछ समय के बाद अपना औचित्य खो देते हैं। 70 के दशक में जयप्रकाश नारायण और उससे पहले लोहिया जी ने भी यही किया था। जेपी ने केवल कांग्रेस विरोध को ही आधार नहीं बनाया, साथ में आपातकाल के खिलाफ संपूर्ण क्रांति की एक नैतिक अवधारणा भी पेश की थी। क्या मौजूदा विपक्ष के पास भी ऐसी कोई अवधारणा है? बीजेपी के कई विरोधियों का दावा है कि नरेन्द्र मोदी सरकार इंदिरा गांधी के आपातकाल के शासन की तरह व्यवहार कर रही है, सीबीआई और ईडी जैसी सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग हो रहा है, विपक्ष का करीब-करीब हर नेता निशाने पर है। ऐसे में जनता पार्टी वाले प्रयोग की जमीन उर्वर दिखती है। लेकिन क्या गुटबाजी से ग्रस्त विपक्ष इसमें बदलाव के बीज बोने का सामर्थ्य रखता है। विपक्ष बीज डाल भी देता है तो क्या देश की जनता अपने वोटों की सिंचाई से उस बीज को सत्ता की फसल में बदलने के लिए तैयार होगी? बात तभी बनेगी जब विपक्ष देश की जनता के सामने अपनी एकता का सबूत पेश करेगा। फिलहाल तो ये सबके लिए अबूझ पहेली है।
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