Kola Superdeep Borehole: रूस में एक ऐसी जगह है, जहां दुनिया का सबसे गहरा गड्ढा (बोरहोल) है. उस बोरहोल की गहराई 400-500 मीटर नहीं, बल्कि जमीन में 12.26 किलोमीटर तक है. ये भी आज की बात नहीं है, बल्कि तब की है जब रूस, सोवियन यूनियन के नाम से जाना जाता था. 1950 का दशक था. द्वितीय विश्व युद्ध के ठीक बाद अमेरिका (America) और सोवियत यूनियन के बीच कोल्ड वॉर का दौर शुरू हो चुका था.
अमेरिका और सोवियत यूनियन, दोनों के बीच सैन्य से लेकर अंतरिक्ष तक, लगभग हर मोर्चे पर होड़ मच गई. दोनों, खुद को एक-दूसरे से ज्यादा ताकतवर साबित करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे थे. उसी दौरान दोनों देशों में एक प्रतिस्पर्धा शुरू हुई, धरती की सर्वाधिक गहराई में जाने की. दोनों देश देखना चाहते थे कि आखिर कौन धरती के अंदर सबसे ज्यादा गहराई में जा सकता है.
अमेरिका ने रूस से पहले ही अपने प्लान पर काम शुरू किया और प्रोजेक्ट को Mohole नाम दिया. वो जगह थी- मैक्सिको के नजदीक ग्वाडलूप आइलैंड (Guadalupe Island) पर, जहां ड्रिलिंग शुरू कर दी गई. साल 1961 आते-आते वहां 601 फीट तक गड्ढा खोद दिया गया. हालांकि, 1966 में अमेरिकी कांग्रेस ने बजट और मिसमैनेजमेंट का हवाला देते हुए इस प्रोजेक्ट की फंडिंग से इनकार कर दिया. इस प्रकार यह प्रोजेक्ट लटक गया.
मगर, सोवियन यूनियन (अब रूस) के वैज्ञानिकों ने पीछे न हटने की बात करते हुए अपने प्रोजेक्ट पर काम शुरू कर दिया. उन्होंने आर्कटिक महासागर के निकट, मरमंस्क प्रांत (Murmansk province) में फिनलैंड और नॉर्वे बॉर्डर पर कोला आइलैंड में ड्रिलिंग के लिए जगह चुनी. यह जगह आर्कटिक सर्किल के करीब थी.
इसी जगह पर सोवियत यूनियन के वैज्ञानिकों ने धरती की सबसे गहराई में जाने का एक्सपेरिमेंट किया. उन्होंने एक होल यानी गड्ढा खोदना शुरू किया. तब कुछ ऐसी चीजें हुईं, जिसने पूरी दुनिया को हैरान कर दिया, और इस एक्सपेरिमेंट पर ताला भी लग गया.
आज एक रिसर्च स्टेशन, आर्कटिक के घने जंगल और बर्फ की मोटी चादर से ढकी जमीन के बीच वीरान पड़ा है. वहां टूटी दीवारें, जंग लगे टूटे-फूटे इक्विपमेंट्स और उनके बीच कंक्रीट की जमीन पर एक बारह इंच का धातु का ढक्कन लगा है, जिसे 12 बोल्ट से बंद किया गया है.
स्थानीय लोगों का मानना है कि यह नर्क का दरवाजा है. जिसे खोदकर वैज्ञानिकों ने शैतान को बाहर आने का मौका दिया था. लेकिन यह 70 के दशक का एक पॉपुलर प्रोजेक्ट था, जिसे ‘कोला सुपर डीप बोरहोल’ (Kola Superdeep Borehole) नाम दिया गया था.
कहते हैं कि सोवियत वैज्ञानिकों ने मई 1970 में इसकी ड्रिलिंग शुरू की और साल 1989 आते-आते 12.26 किलोमीटर (40,230 फिट) तक ड्रिल कर दिया. हालांकि यह धरती की कुल गहराई का 2% से भी कम था, लेकिन इतनी गहराई में तापमान 180 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया.
वैज्ञानिकों ने और ड्रिल करने की कोशिश की, लेकिन उनकी ड्रिलिंग मशीन और अन्य उपकरण इतने तापमान को झेल ही नहीं पा रहे थे. इतने तापमान में नीचे की चट्टानें एक तरीके से प्लास्टिक जैसा व्यवहार करने लगी थीं.
Kola Superdeep Borehole से जुड़ा एक मिथक भी खासा चर्चित है. ऐसा कहा जाता है, जब खुदाई 12.26 किलोमीटर, यानी 40,230 फीट तक हो चुकी थी, उसे बाद और नीचे खुदाई की जा रही थी तो बोरहोल के अंदर से भयानक चीखने-चिल्लाने जैसी आवाजें सुनी गईं.
वैज्ञानिकों ने वहां खुदाई के भरसक प्रयास किए, लेकिन वे 1989 की गहराई से कदापि आगे नहीं बढ़ पाए.
सोवियत यूनियन चाहता था कि ‘कोला सुपर डीप बोरहोल’ को कम से कम 15 किलोमीटर तक ड्रिल किया जाए, और ये देखा जाए कि धरती में बहुत गहराई में क्या-कुछ है. हालांकि, तब तक पैसा बहुत खर्च हो चुका था. earthdate.org की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इसी बीच सोवियत यूनियन का पतन हुआ और आखिरकार खुदाई रोकनी पड़ी.
स्थानीय लोग ‘कोला सुपर डीप बोरहोल’ को ‘नर्क का द्वार’ कहने लगे और आज तक ये दावा किया जाता है कि शैतान की भयानक आवाजों के चलते ही रूस ने खुदाई बंद कर दी थी. इसके अलावा वहां कोई खतरनाक गैस या चीज बाहर न निकल आए, इसलिए उूपर डाट लगाकर 12 बोल्ट भी कस दिए गए.
कोला सुपरडीप बोरहोल, दुनिया का सबसे गहरा मानव निर्मित छेद है. यह रूस के कोला प्रायद्वीप पर स्थित है. इसकी गहराई 12,262 मीटर (40,230 फ़ुट) है. यह मारियाना ट्रेंच की गहराई और माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई से भी ज़्यादा है. इस बोरहोल को बनाने के लिए साल 1970 में सोवियत संघ ने एक बड़ी ड्रिलिंग मशीन बनाई थी. मशीन का नाम Uralmash था. इस बोरहोल को खोदने के दौरान कई चुनौतियां सामने आईं. इनमें से कुछ चुनौतियां ये रहीं:
इन चुनौतियों के कारण, 1992 में परियोजना को बंद कर दिया गया और 2005 में इस बोरहोल को बंद कर दिया गया. इस बोरहोल को ‘डोर टू हेल’ यानी ‘नरक का दरवाज़ा’ भी कहा जाता है.
एक रशियन वेबसाइट के मुताबिक, ‘कोला सुपर डीप बोरहोल’ प्रोजेक्ट में पूरी ड्रिलिंग के दौरान, गड्ढे से हाइड्रोजन, हीलियम, नाइट्रोजन और कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैस बाहर निकलती रहीं. हालांकि, सबसे ज्यादा चौंकाने वाली और साइंटिफिक नजरिये से अहम चीज 22,000 फीट (6.7 किमी) की गहराई पर मिली.
वो थी 2 अरब वर्ष पुराने सूक्ष्म जीवाश्मों की 24 प्रजातियां. ये सूक्ष्म जीवाश्म (Microfossils) ऑर्गेनिक कार्बन और नाइट्रोजन कंपाउंड में लिपटे थे. वैज्ञानिकों का कहना था कि इसी के चलते ये इतनी गहराई में भी सुरक्षित रहे और तापमान बर्दाश्त कर पाए.
साल 2005 तक यहां एक रिसर्च स्टेशन भी हुआ करता था, लेकिन अब ये जगह पूरी तरह वीरान पड़ी है. हालांकि, भू-विज्ञान में दिलचस्पी रखने वाले पर्यटकों का यहां आना-जाना होता है.
– भारत एक्सप्रेस
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