झारखंड के जंगलों से घिरे खूंटी जिले के छोटे से गांव टकरा में 3 जनवरी 1903 को अमरू पाहन और राधामुनी के घर एक बालक का जन्म हुआ, जिसे दुनिया जयपाल सिंह मुंडा के नाम से जानती है. इस बालक ने अपनी विलक्षण प्रतिभा, जुनून और करिश्माई शख्सियत के दम पर भारत को पहली बार ओलंपिक हॉकी में स्वर्ण पदक दिलाया और झारखंड की पहचान को एक नई ऊंचाई दी.
जयपाल सिंह मुंडा का बचपन का नाम प्रमोद पाहन था. बचपन में वह मवेशियों के झुंड को चराने और देखभाल करने का काम करते थे. उनकी प्रारंभिक शिक्षा रांची के सेंट पॉल्स चर्च स्कूल में हुई. जयपाल एक प्रतिभाशाली हॉकी खिलाड़ी थे और अपनी पढ़ाई में भी बेहद कुशल थे. उनमें बचपन से ही अद्भुत नेतृत्व क्षमता दिखाई देती थी. उनके प्रतिभाशाली व्यक्तित्व ने स्कूल के अंग्रेज प्रिंसिपल केनोन कॉन्सग्रेस को इतना प्रभावित किया कि वे 1918 में जयपाल को इंग्लैंड ले गए. वहां उन्होंने पहले कैंटरबरी के सेंट ऑगस्टाइन कॉलेज और फिर ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के सेंट जॉन्स कॉलेज में अध्ययन किया.
1926 में उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के सेंट जॉन्स कॉलेज से अर्थशास्त्र में ऑनर्स के साथ स्नातक की डिग्री प्राप्त की
और 1928 में भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) में चयनित हुए. इसके बावजूद, हॉकी के प्रति उनके जुनून ने उन्हें एक अलग राह पर ले जाने का फैसला करने के लिए प्रेरित किया. ऑक्सफोर्ड में पढ़ाई के दौरान, वे हॉकी के शानदार खिलाड़ी थे. उन्हें 1925 में ‘ऑक्सफोर्ड ब्लू’ की उपाधि से सम्मानित किया गया, जो एक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी के लिए गर्व की बात थी.
जयपाल सिंह मुंडा की प्रसिद्धि तब बढ़ी जब उन्होंने 1928 के एम्स्टर्डम ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम की कप्तानी की. उनकी नेतृत्व क्षमता और रणनीतिक सोच ने भारत को हॉकी में पहला स्वर्ण पदक दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. यह न केवल खेल के क्षेत्र में बल्कि भारतीयों के आत्मसम्मान के लिए भी एक ऐतिहासिक पल था. उनकी कप्तानी में भारतीय टीम ने लीग चरण में कुल 17 मैच खेले, जिनमें से 16 मैच जीते और एक ड्रॉ रहा. हालांकि, इंग्लैंड की टीम के मैनेजर ए. बी. रॉसियर के साथ विवाद के कारण, मुंडा ने लीग चरण के बाद टीम छोड़ दी और इसलिए वे नॉकआउट चरण के मैचों में नहीं खेल सके. फाइनल में भारतीय टीम ने हॉलैंड को 3-0 से हराकर स्वर्ण पदक जीता.
भारत लौटने के बाद, मुंडा कोलकाता के मोहन बागान क्लब से जुड़े और 1929 में क्लब की हॉकी टीम की स्थापना की. उन्होंने उस टीम का नेतृत्व विभिन्न टूर्नामेंटों में किया. सक्रिय हॉकी से संन्यास लेने के बाद, उन्होंने बंगाल हॉकी एसोसिएशन के सचिव और भारतीय खेल परिषद के सदस्य के रूप में अपनी सेवाएं दीं.
इसके अलावा, जयपाल सिंह मुंडा ने कोलकाता में बर्मा शेल ऑयल कंपनी में काम किया. कुछ समय के लिए उन्होंने घाना में एक कॉलेज में अर्थशास्त्र पढ़ाया और रायपुर के राजकुमार कॉलेज में प्रिंसिपल के रूप में कार्य किया. बाद में, वे बीकानेर स्टेट के वित्त और विदेश मामलों के मंत्री बने.
1938 में पहली बार बिहार से झारखंड को अलग राज्य के रूप में बनाने की मांग उठी. यह मांग आदिवासी महासभा ने रखी, जो उस समय बिना किसी सशक्त नेतृत्व के थी. 20 जनवरी 1939 को रांची में आदिवासी महासभा ने एक विशाल सभा का आयोजन किया, जहां जयपाल सिंह मुंडा को अध्यक्ष चुना गया. उनकी अध्यक्षता ने झारखंड आंदोलन को एक नई दिशा दी और यह मांग तेज होने लगी. आदिवासी समुदाय और झारखंड के लोगों को अब एक मजबूत और प्रभावशाली नेता मिल गया था.
1940 में कांग्रेस के रामगढ़ अधिवेशन के दौरान जयपाल सिंह मुंडा ने स्वतंत्रता सेनानी और नेता सुभाष चंद्र बोस से मुलाकात की. इस मुलाकात के दौरान उन्होंने स्पष्ट रूप से झारखंड को अलग राज्य का दर्जा देने की मांग रखी. 1946 में जयपाल सिंह मुंडा को बिहार से संविधान सभा के लिए चुना गया. संविधान सभा में उन्होंने आदिवासी समुदाय के अधिकारों और उनके विकास के लिए जोरदार तरीके से अपनी आवाज उठाई. आदिवासियों की शिक्षा, रोजगार और सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दों को उन्होंने राष्ट्रीय मंच पर प्रभावशाली ढंग से रखा.
आजादी के बाद, 1949 में आदिवासी महासभा को एक राजनीतिक दल ‘झारखंड पार्टी’ में बदल दिया गया. 1952 में हुए पहले लोकसभा चुनाव में झारखंड पार्टी ने मुख्य विपक्षी दल के रूप में अपनी पहचान बनाई. इसी तरह पहले विधानसभा चुनाव में भी इस पार्टी ने 32 सीटें जीतीं. 1963 में जयपाल सिंह मुंडा ने झारखंड पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया. उन्होंने यह कदम इस शर्त पर उठाया कि कांग्रेस झारखंड को अलग राज्य का दर्जा देगी. हालांकि, कांग्रेस ने तुरंत इस मांग को पूरा नहीं किया, और झारखंड आंदोलन को एक लंबा संघर्ष करना पड़ा. आखिरकार, वर्षों के संघर्ष, आंदोलन और राजनीतिक दबाव के बाद, साल 2000 में झारखंड को बिहार से अलग कर एक स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया गया. यह जयपाल सिंह मुंडा और उनके जैसे अनेक नेताओं के संघर्ष और बलिदान का परिणाम था.
झारखंड में जयपाल सिंह मुंडा को “मरांग गोमके” (महान नेता) के नाम से जाना जाता है. उनकी विरासत केवल हॉकी तक सीमित नहीं है; उन्होंने झारखंड की सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचान को भी मजबूत किया. आज उनकी 123वीं जयंती पर झारखंड उन्हें गर्व और सम्मान के साथ याद करता है.
-भारत एक्सप्रेस
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