विश्लेषण

आयाराम-गयाराम की बेला

लोकसभा के चुनाव अभी 6 महीना दूर हैं। पर उसकी बौखलाहट अभी से शुरू हो गई है। हर राजनैतिक दल को यह पता है कि गठबंधन की राजनीति से छुटकारा नहीं होने वाला। तीस बरस पहले उजागर हुए हवाला कांड के बाद से गठजोड़ की राजनीति हो रही है। पर पिछले कटु अनुभवों के बाद इस बार लग रहा था कि शायद दो ध्रुवीय राजनीति शक्ल ले लेगी। कुछ महीने पहले तक ऐसा लगता था कि छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों का महत्व खत्म हो चला है। मगर विपक्षी दलों ने जिस तरह भाजपा के ख़िलाफ़ एकजुट होकर लड़ना तय किया है उससे बिलकुल साफ़ है कि गठबंधन की राजनीति अप्रासंगिक नहीं हुई है बल्कि और ज्यादा बड़ी भूमिका निभाने जा रही है।

उधर भाजपा का अपने सहयोगी दलों को रोक कर रखना मुश्किल होता जा रहा है। चंद्रबाबु नायडू के बाद एडीएमके का एनडीए से अलग होना बताता है कि एनडीए ख़ेमे में सब कुछ ठीक नहीं है। अब देखना होगा कि बीजेपी क्या रणनीति तय करती है। जिस तरह भाजपा अपने सांसदों, केंद्रीय मंत्रियों व वरिष्ठ नेताओं को आगामी विधान सभा चुनावों में उतार रही है उसकी चिंता साफ़ नज़र आ रही है। इस बात पर भी गौर करने की ज़रूरत है कि आखिर इसकी ज़रूरत क्यों आन पड़ी?

भाजपा के विरोधी दल तो बाकायदा यह समझाने में लगे हैं कि अगर मोदी जी के पक्ष में जनता खड़ी है और माहौल इतना ज़बरदस्त है तो भाजपा ऐसे कदम क्यों रही है? क्या वोटर अपने स्थानीय नेताओं से खुश नहीं हैं? क्या स्थानीय नेता स्थानीय मुद्दों को सही से सुलझा नहीं पा रहे? क्या वे अपने शासन काल में जानता की समस्याओं पर ध्यान नहीं दे पाये?

लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव ऐसी घटना है कि कोई भी पूरे विश्वास के साथ चुनाव में उतर ही नहीं पाता। पिछले कुछ महीनों के विधान सभाओं के चुनावी प्रचार के इतिहास को देखें तो भाजपा ने जिस कदर बड़े से बड़े स्टार नेताओं और प्रचारकों की फ़ौज लगाई थी, राज्यों के चुनावों में उसके मुताबिक़ नतीजे नहीं आए। 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सामने यह सवाल उठाया जा रहा है कि वे पूर्ण बहुमत का आंकड़ा लाएगी कहाँ से? अगर भाजपा के स्थानीय नेताओं को राज्यों के आगामी चुनावों में टिकट भी नहीं मिल रहा है तो क्या वे पूरी श्रद्धा और समर्पण के साथ भाजपा के लिए प्रचार करेंगे या वो भी राजनैतिक ख़ेमा बदल सकते हैं?

विपक्षी दलों के गठबंधन के बाद जितने भी सर्वेक्षण हुए हैं और मोदी के पक्षकारों ने जितने भी हिसाब लगाये हैं उसके हिसाब से आगामी लोकसभा चुनावों में अकेले भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलना आसान नहीं है। जो-जो दल भाजपा के समर्थन में 2014 में जुड़े थे उनमें से कई दल अब भाजपा से अलग हो चुके हैं। ऐसे में यदि विपक्षी दल एकजुट हो कर भाजपा और उनके सहयोगी दलों के ख़िलाफ़ एक-एक उम्मीदवार खड़ा करेंगे तो जो ग़ैर भाजपाई वोट बंट जाते थे वो सभी मिल-जुल कर भाजपा के ख़िलाफ़ मुश्किल ज़रूर खड़ी कर सकते हैं।

ऐसे में भाजपा को गठबंधन के लिए अपनी कोशिशें जारी रखना स्वाभाविक होगा। यह बात अलग है कि पिछले चुनावी प्रचारों से आजतक भाजपा ने ऐसा माहौल बनाये रखा है कि देश में मोदी की लहर अभी भी क़ायम है। पर ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और है। इसलिये ऐसा माहौल बनाये रखना उनकी चुनावी मजबूरी है।

सामान्य अनुभव यह है कि देश के एक–तिहाई से ज्यादा वोटर बहुत ज्यादा माथापच्ची नहीं करते और माहौल के साथ हो लेते हैं। बस एक यही कारण नज़र आता है कि भाजपा की चुनावी रणनीति में माहौल बनाने का काम धुंधाधाड़ तरीके से चलता आया है। मीडिया ने भी जितना हो सकता था, उस माहौल को हवा दी है। लेकिन इन छोटे-छोटे दलों का एनडीए गठबंधन से अलग होना उस हवा को या उस माहौल को कुछ नुक्सान ज़रूर पहुँचाएगा। कितना ? इसका अंदाज़ा आनेवाले पाँच राज्यों के विधान सभा चुनावों से भी लग जाएगा। भाजपा को घेरने वाले हमेशा यह सवाल उठाते हैं कि भाजपा अटल बिहारी वाजपयी के अपने स्वर्णिम काल में भी जादूई आंकड़े के आसपास भी नहीं पहुंची थी। वह तो 20-22 दलों के गठबंधन का नतीजा था कि भाजपा के नेतृत्व में राजग सरकार बना पायी थी। इसी आधार पर गैर भाजपाई दल यह पूछते हैं कि आज की परिस्थिति में दूसरे कौन से दल हैं जो भाजपा के साथ आयेंगे? इसके जवाब में भाजपा का कहना अब तक यह रहा है कि आगे देखिए जब हम तीसरी बार सरकार बनाने के आसपास पहुँच रहे होंगे तो कितने दल खुद-ब-खुद हमारे साथ हो लेंगे। यह बात वैसे तो चुनाव के बाद की स्थितियों के हिसाब से बताई जाती है। लेकिन चुनाव के पहले बनाए गए माहौल का भी एक असर हो सकता है कि छोटे-छोटे दल भाजपा की ओर पहले ही चले आएँ। अब स्थिति यह बनती है कि और भी दलों या नेताओं को चुनाव के पहले ही कोई फैसला लेने का एक मौका मिल गया है। उन्हें यह नहीं लगेगा कि वे अकेले यह क्या कर रहे हैं।

कुल मिलाकर छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों के भाजपा या विपक्षी गठबंधन से ध्रुविकरण की शुरुआत हो चुकी है। एक रासायनिक प्रक्रीया के तौर पर अब ज़रूरत उत्प्रेरकों की पड़ेगी। बगैर उत्प्रेरकों के ऐसी प्रक्रियाएं पूरी हो नहीं पातीं। ये उत्प्रेरक कौन हो सकते हैं? इसका अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता। अभी तो चुनावों की तारीखों का एलान भी नहीं हुआ। उम्मीदवारों की सूची बनाने का पहाड़ जैसा काम कोई भी दल निर्विघ्न पूरा नहीं कर पा रहा है। जब तक स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर ये समीकरण ना बैठा लिए जाएं तब तक दूसरे दलों से गठबंधन का कोई हिसाब बन ही नहीं पाता। इसीलिए आने वाले समय में भाजपा के पक्ष में गठजोड़ की प्रक्रिया बढ़ाने वाले उत्प्रेरक सामने आयेंगे ऐसी कोई संभावना फ़िलहाल नहीं दिखती।

वैसे भाजपा के अलावा प्रमुख दलों की भी कमोवेश ये ही स्थिति है। विभिन्न विपक्षी दलों ने बीजेपी से भिड़ने को अपना हिसाब भेजने का मन बना लिया है। लेकिन कांग्रेस की ओर से जवाब ना आने से वहां भी गठजोड़ों की प्रक्रिया धीमी पड़ सकती है। खैर अभी तो चुनावी माहौल का ये आगाज़ है। आने वाले हफ़्तों में चुनावी रंग और ज़ोर से जमेगा।

विनीत नारायण, वरिष्ठ पत्रकार

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