विश्लेषण

घर बनता है घरवालों से!

मशहूर कवि अशोक चक्रधर की कविता ‘घर बनता है घरवालों से’ हमें सिखाती है कि घर केवल खिड़की दरवाज़ों से नहीं बल्कि उसमें रहने वालों से बनता है। मनुष्य का जीवन रिश्तों से जुड़ा रहता है। रिश्ते यदि मधुर रहें तो जीवन सुखी और खुशहाल रहता है। परंतु रिश्तों में खटास आते ही व्यक्ति टूट जाता है। एक छत के नीचे रहने वाले लोग विभिन्न रिश्तों से जुड़े रहते हैं। रिश्ते चाहे खून के हों या न हों उनमें गहराई तभी आती है जब वे दिल से बनते हैं।

पहले के युग में संयुक्त परिवार होते थे, जो साथ में रहते थे। बड़े परिवारों को साथ में रहने के लिए बड़े मकान की ज़रूरत होती थी। ज़माना बदला और ज़माने के साथ परिवार भी बदले। संयुक्त परिवार अब एकल परिवार होने लग गये। समय की माँग और कामकाज के चलते जो परिवार हमेशा साथ में रहते थे वे अब केवल त्योहारों में ही साथ नज़र आने लग गये। ऐसे में घर के बड़े बुजुर्गों ने परिवार के लिए जो विशाल घर बनाए थे वे वीरान होने लग गये। फिर वो दौर आया जब पुराने मकानों को तोड़ कर उसे बहुमंज़िला अपार्टमेंट का रूप दिये जाने लगा। लोग साथ में रहते हुए भी अलग-अलग रहने लगे।

ऐसे ही एक घर की कहानी को दर्शाती है फ़िल्म ‘गुलमोहर’। इसी शुक्रवार को डिज़्नी हॉटस्टार चैनल पर रिलीज़ होने वाली इस फ़िल्म में दिल्ली के एक संपन्न बत्रा परिवार की कहानी को दिखाया गया है। जो अपने 34 साल पुराने मकान को बिल्डर को बेच कर जा रहे हैं। इस घर का नाम ‘गुलमोहर विला’ है, जो दिल्ली के एक पॉश इलाक़े में स्थित है। परिवार की मुखिया कुसुम बत्रा (शर्मिला टैगोर) के आग्रह पर परिवार उस घर को छोड़ने से पहले आख़िरी बार होली का त्योहार मनाने के लिए जैसे-तैसे राज़ी हो जाता है। फ़िल्म की कहानी उस घर में बत्रा परिवार के उन अंतिम चार दिनों पर दर्शाई गई है। जब पैकर्स पेकिंग करने में जुटे हैं।

इन चार दिनों में चार दशकों की पुरानी यादें फिर से जी उठती हैं। यादें, कुछ खट्टी कुछ मीठी इस फ़िल्म को हर पल एक नया मोड़ देती हैं। फ़िल्म में जहां आप हँसेंगे वहीं आप भावुक भी हो उठेंगे। कई वर्षों बाद फ़िल्मी पर्दे पर  आनेवाले बॉलीवुड के दिग्गज कलाकार, शर्मिला टैगोर और अमोल पालेकर, आपको देवर-भाभी के किरदार में नज़र आएँगे। फ़िल्म में शर्मिला टैगोर के बेटे का किरदार मनोज बाजपेयी ने बखूबी निभाया है। वहीं अमोल पालेकर के बेटे के किरदार में अनुराग अरोड़ा नज़र आएँगे। युवा निर्देशक राहुल चित्तेला की यह पहली फ़िल्म है जो कई किरदारों और मशहूर कलाकारों को लेकर बनाई गई है। हर किरदार के साथ एक अलग ही कहानी जुड़ी हुई है।

इस फ़िल्म में एक ऐसा संदेश दिया है जिसकी तुलना दर्शक ख़ुद से कर पाएँगे। हर किसी में कुछ न कुछ करने की चाहत होती है, यदि वो चाहत पूरी न हो पाए और उसे दबा कर समझौता करना पड़े तो कैसा लगता है। इस फ़िल्म में आप ऐसी ही अनुभूति करेंगे। आज के दौर में दिल्ली के ज़्यादातर पुराने बंगले बिल्डर ख़रीद कर उन्हें बहुमंज़िला बना रहे हैं। आधुनिकता के नाम पर दिल्ली जैसे शहरों में कंकरीट के जंगल खड़े किए जा रहे हैं। इससे दिल्ली को एक नया रूप दिया जा रहा है। पुराने मकानों के टूटते ही उनमें बसी यादें और उनमें छिपे राज़ भी ढह जाते हैं। तेज़ रफ़्तार में दौड़ती ज़िंदगी में बच्चे अपने माँ-बाप के साथ नहीं रहना चाहते। एक ओर जहां वे स्वतंत्र रहना चाहते हैं। वहीं उन्हें आत्मसम्मान के चलते माँ-बाप से मदद लेना भी मंज़ूर नहीं।

गुलमोहर में छिपे राज़ और यादें जैसे-जैसे सामने आते हैं फ़िल्म और भी रोचक होती जाती है। तीन पीढ़ियों की कहानी में कई रोचक क़िस्से हैं। परिवार के अलावा बंगले की देखभाल कर रहे घरेलू नौकरों की कहानी भी दर्शकों को भाएगी। युवा छायाकार ईशित नारायण के कैमरे का जादू फ़िल्म को काफ़ी आकर्षक बना देता है। जहां किरदार अपनी भावनाएँ और राज़ छिपाना चाहता हैं वहीं केमरा घुस कर उसे पकड़ लेता है। बत्रा परिवार के पुराने घर में आख़िरी चार दिनों में ज़िंदगी के हर रंग को दिखाया गया है।

निर्देशक राहुल चित्तेला के अनुसार इस फ़िल्म की प्रेरणा उन्हें मशहूर फ़िल्म निर्माता मीरा नायर के वसंत विहार स्थित घर को इन्हें हालातों में बेचने से मिली। बतौर सहायक वे मीरा नायर के साथ कई चर्चित फ़िल्मों पर काम कर चुके हैं। मीरा नायर के दिल्ली वाले घर में उन्होंने कई अन्य फ़िल्मों से संबंधित कार्य भी किए थे। एक दिन जब मीरा नायर ने अपना दिल्ली वाला घर एक बिल्डर को बेच दिया, तो वहाँ पर एक आख़िरी पार्टी रखी गई। उस समय पार्टी के साथ-साथ सामान को भी पैक किया जा रहा था। उसी पार्टी के माहौल से राहुल को इस फ़िल्म को बनाने की प्रेरणा मिली। जो एक समर्पित टीम के साझे प्रयास से रोचक ही नहीं दिल की गहराई तक छूने वाली बनी है। उम्मीद है, ओटीटी पर दिखाई जाने वाली ये फ़िल्म दुनियाँ भर के हिन्दी फ़िल्म दर्शकों को पसंद आएगी।

पुराने घर से जुड़ी यादें इतनी आसानी से नहीं मिटती। आप चाहे जितने भी आधुनिक सुविधाओं वाले घर में चले जाएं, लेकिन जो रिश्ता आपका पुराने घर से जुड़ जाता है उसे आप चाह कर भी नहीं भुला सकते। पुराने घर में बिताए अच्छे-बुरे पल आपको हमेशा याद रहते हैं, जिनके किससे आप आने वाली पीढ़ियों को बताते हैं। घर केवल ईंट और सीमेंट से नहीं बनता। घर बनता है उसमें रहने वालों से और उस घर से जुड़ी यादों से। ठीक उसी तरह जैसे रिश्ते केवल खून से नहीं बल्कि दिल से बनते हैं।

(लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के प्रबंधकीय संपादक हैं)

रजनीश कपूर, वरिष्ठ पत्रकार

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