चुनाव

कांग्रेस की पुरानी समस्याएँ: ‘प्रभारियों का क्लब’ और जवाबदेही का अभाव

प्रशांत त्यागी

कांग्रेस, भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी, 2014 के बाद से लगातार चुनावी असफलताओं का सामना कर रही है. राज्यों में हार और घटते जनाधार के बावजूद, पार्टी अपनी आंतरिक गलतियों से सीखने में विफल रही है. इसका प्रमुख कारण है “प्रभारियों का क्लब”—एक ऐसा समूह जिसमें कई वरिष्ठ नेताओं को बार-बार महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ दी जाती हैं, भले ही वे पहले काम करने में असफल रहे हों. इस आंतरिक संरचना और फैसलों के कारण कांग्रेस पार्टी में न केवल चुनावी नुकसान हो रहे हैं, बल्कि इसके नेतृत्व के ऊपर भी सवाल उठ रहे हैं.

प्रभारियों का क्लब: असफलता के बावजूद निरंतर जिम्मेदारी

कांग्रेस नेतृत्व ने बार-बार उन्हीं नेताओं को राज्य प्रभारी या महासचिव बनाया है, जिन्होंने पहले चुनावी सफलता हासिल करने में विफलता पाई थी. यह प्रवृत्ति पार्टी के अंदर आलोचना का विषय बन गई है, क्योंकि कई नेताओं को असफलताओं के बावजूद महत्वपूर्ण राज्यों का प्रभार दिया जा रहा है. इनमें मुकुल वासनिक, रणदीप सिंह सुरजेवाला, कुमारी शैलजा, अजय कुमार, मणिकम टैगोर, जितेंद्र सिंह और अन्य वरिष्ठ नेताओं के नाम शामिल हैं.

मुकुल वासनिक

वासनिक महाराष्ट्र से आते हैं और वर्तमान में गुजरात के प्रभारी हैं. इससे पहले वह मध्य प्रदेश के प्रभारी थे, लेकिन मध्य प्रदेश में पार्टी को बड़ा नुकसान झेलना पड़ा. इसके बावजूद, उन्हें गुजरात का प्रभार दिया गया, जहां पार्टी एक बार फिर से अच्छा प्रदर्शन करने में विफल रही.

रणदीप सिंह सुरजेवाला

कर्नाटक में कांग्रेस को भारी जीत दिलाने वाले सुरजेवाला को मध्य प्रदेश का अतिरिक्त प्रभार भी दिया गया, लेकिन वे वहां उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे.

कुमारी शैलजा और अजय कुमार

शैलजा छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड में पार्टी की प्रभारी थीं. उनकी नेतृत्व में पार्टी को छत्तीसगढ़ में तमाम अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई. अजय कुमार, जो पहले सिक्किम, नागालैंड और त्रिपुरा जैसे पूर्वोत्तर राज्यों के प्रभारी थे, उन्हें ओडिशा का प्रभार दिया गया, लेकिन पार्टी वहाँ भी प्रभावी नहीं हो सकी.

मणिकम टैगोर और जितेंद्र सिंह

मणिकम टैगोर को आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में प्रभारी बनाया गया था, लेकिन वे वहां भी पार्टी को मजबूती नहीं दिला पाए. जितेंद्र सिंह, जो पहले असम के प्रभारी थे, मध्य प्रदेश में भी अपेक्षित प्रदर्शन करने में असफल रहे.

वफादारी बनाम जवाबदेही: पार्टी के भीतर असंतोष

कांग्रेस पार्टी में यह प्रवृत्ति देखने को मिल रही है कि वफादारी को जवाबदेही से ऊपर रखा जाता है. इसी कारण कई वरिष्ठ नेताओं को बार-बार जिम्मेदारियाँ दी जाती हैं, भले ही वे असफल हुए हों. इससे पार्टी के भीतर नई प्रतिभाओं के लिए अवसर कम हो रहे हैं और पार्टी में असंतोष का माहौल बन रहा है. यही कारण है कि पार्टी के कुछ प्रमुख नेता भी इसे लेकर नाराज हैं और कई वरिष्ठ नेता पार्टी छोड़कर अन्य दलों में शामिल हो रहे हैं.

फैक्ट फाइंडिंग कमेटी: परिणामहीन प्रयास

पिछले कुछ वर्षों में पार्टी ने हार के कारणों पर चर्चा करने के लिए फैक्ट फाइंडिंग कमेटी का गठन किया है. हरियाणा, पंजाब, असम, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और गुजरात जैसे राज्यों में पार्टी की हार के बाद कमेटियों का गठन तो किया गया, लेकिन उनके निष्कर्षों पर कोई बड़ा बदलाव या कार्रवाई नहीं हुई. इससे यह स्पष्ट होता है कि पार्टी अपनी आंतरिक गलतियों को सुधारने में अधिक दिलचस्पी नहीं दिखा रही है.

आगे का रास्ता: क्या कांग्रेस बदल पाएगी?

कांग्रेस की वर्तमान स्थिति एक स्पष्ट संकेत है कि पार्टी को अपनी रणनीतियों और नेतृत्व शैली में व्यापक सुधार करने की आवश्यकता है. असफलताओं से सीखना और नई नेतृत्व टीम को मौका देना जरूरी है. पार्टी को ऐसे नेताओं को चुनना होगा जो जमीन पर काम कर सकें और जनता के साथ वास्तविक जुड़ाव बना सकें, बजाय इसके कि वे केवल पार्टी के वफादार नेताओं को जिम्मेदारियाँ सौंपें.

अगर कांग्रेस समय रहते अपने नेतृत्व और संगठनात्मक ढांचे में बदलाव नहीं करती, तो यह पार्टी के भविष्य के चुनावी प्रदर्शन के लिए गंभीर खतरा साबित हो सकता है. वर्तमान में, पार्टी को वफादारी से ऊपर कार्यकुशलता और जवाबदेही को प्राथमिकता देनी होगी, ताकि वह अपनी खोई हुई साख को वापस पा सके और एक बार फिर से प्रभावशाली राजनीतिक ताकत बन सके.

यह भी पढ़ें- बड़ी खबर: प्रियंका गांधी करने जा रहीं ‘पॉलिटिकल डेब्यू’, कांग्रेस ने वायनाड सीट से बनाया उम्मीदवार

कुल मिलाकर, कांग्रेस की वर्तमान आंतरिक संरचना और नेतृत्व के फैसलों पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है. अगर पार्टी पुराने ढर्रे पर चलती रही, तो वह अपने पुनरुत्थान की संभावनाओं को सीमित कर देगी.

-भारत एक्सप्रेस

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