किंशुक सुरजन द्वारा निर्देशित डॉक्यूमेंट्री ‘मार्चिंग इन द डार्क’ भारतीय किसान विधवाओं की त्रासद और संघर्षपूर्ण जिंदगी को दर्शाती है. यह फिल्म किसानों की आत्महत्या के बाद उनके परिवार, विशेषकर विधवाओं की स्थिति पर गहरी नजर डालती है. इन महिलाओं को न केवल आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, बल्कि सामाजिक बहिष्कार और परंपरागत रूढ़ियों से भी जूझना पड़ता है.
फिल्म की शुरुआत महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्र में सोयाबीन की कीमतों में गिरावट से होती है. हालांकि, यह फिल्म इस संकट से कहीं अधिक गहरी समस्या पर केंद्रित है और वो है किसानों की आत्महत्या के बाद उनके परिवार की दुर्दशा. कहानी की मुख्य पात्र संजीवनी अपने पति की आत्महत्या के बाद अपने दो बच्चों के साथ संघर्ष कर रही है. ‘मार्चिंग इन द डार्क’ को ऑस्कर्स की लॉन्ग लिस्ट में शामिल किया गया है. इसे बेल्जियम के ‘माग्रिटे डू सिनेमा’ के लिए भी शॉर्ट लिस्ट किया गया है.
निर्देशक किंशुक सुरजन ने अपने करिअर की शुरुआत बॉलीवुड फिल्मों के सहायक निर्देशन से की थी. किंशुक कहते हैं कि किसानों की आत्महत्या और उनके परिवारों की अनदेखी ने उन्हें यह फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया. उनका मानना है कि फिल्मों का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव के लिए प्रेरणा भी हो सकता है. इस फिल्म को बनाने के दौरान उन्होंने महसूस किया कि वे केवल कहानी नहीं बता रहे, बल्कि उन पात्रों के जीवन का हिस्सा बन रहे हैं. किंशुक इसके पहले 2012 में एक और चर्चित फिल्म ‘पोला’ का भी निर्देशन कर चुके हैं.
कहानी और पात्रों का परिचय
फिल्म की नायिका संजीवनी अपने पति की आत्महत्या के बाद अपने देवर के परिवार के साथ रहती है. परंपरागत रूढ़ियों से बंधी संजीवनी धीरे-धीरे अपनी पहचान और आत्मनिर्भरता की खोज करती है. वह एक स्थानीय विधवा सहायता समूह से जुड़ती है, जहां वह अपनी जैसी और महिलाओं से मिलती है. यह समूह न केवल उन्हें भावनात्मक समर्थन देता है, बल्कि उन्हें सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ खड़ा होने की हिम्मत भी देता है. फिल्म में संजीवनी के अलावा, पार्वती और परिमला ताई जैसे पात्र भी हैं, जो अपने संघर्ष और साहस से प्रेरणा देते हैं. निर्देशक और इन पात्रों के बीच का रिश्ता फिल्म को और प्रामाणिक बनाता है.
फिल्म का मुख्य थीम है- विधवाओं की सामाजिक स्थिति, उनकी मानसिक और आर्थिक समस्याएं, और इनसे उबरने की उनकी कोशिश. यह फिल्म दर्शाती है कि कैसे एक महिला सामूहिक समर्थन से अपनी जिंदगी बदल सकती है.
इस डॉक्यूमेंट्री के निर्माण में अंतरराष्ट्रीय सहयोग रहा. इसे भारत, बेल्जियम, और नीदरलैंड्स में फिल्माया गया. इसकी सिनेमैटोग्राफी लीना पटोली और कार्ल रोटियर्स ने की है तो साउंड डिजाइन मार्क ग्लिन और इम्तियाज जुमनालकर ने की है. जोएल एलेक्सिस ने बहुत शानदार तरीके से एडिटिंग का दायित्व निभाया है.
फिल्म का प्रीमियर कोपेनहेगन इंटरनेशनल डॉक्यूमेंट्री फिल्म फेस्टिवल में हुआ, जहां इसे दर्शकों और समीक्षकों ने सराहा. इसके बाद इसकी स्क्रीनिंग बेल्जियम, नीदरलैंड्स और भारत के विभिन्न फिल्म फेस्टिवल्स में की गई. धर्मशाला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में भी यह डॉक्यूमेंट्री 10 नवंबर को प्रदर्शित की जा चुकी है.
डॉक्यूमेंट्री ‘मार्चिंग इन द डार्क’ को कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाजा गया है, जो इसकी सामाजिक और मानवाधिकार संबंधी संदेश को व्यापक रूप से पहचान दिलाते हैं. इन पुरस्कारों ने ‘मार्चिंग इन द डार्क’ को एक महत्वपूर्ण डॉक्यूमेंट्री फिल्म के रूप में स्थापित किया है. इन पुरस्कारों से इस फिल्म को न केवल एक नई पहचान मिली है, बल्कि इसमें वैश्विक सिनेमा मंच पर भारतीय सिनेमा की गहरी और महत्वपूर्ण उपस्थिति को भी रेखांकित किया है.
1. Biografilm Festival 2024: यंग क्रिटिक्स अवार्ड और ऑडियंस अवार्ड: मार्चिंग इन द डार्क ने इटली के प्रतिष्ठित Biografilm Festival 2024 में शानदार प्रदर्शन किया और दो महत्वपूर्ण पुरस्कार जीते. पहले यंग क्रिटिक्स अवार्ड और फिर ऑडियंस अवार्ड ने इस डॉक्यूमेंटरी को फिल्म समीक्षकों और दर्शकों दोनों से सराहना दिलाई.
2. CPH:DOX 2024 – स्पेशल मेंशन ह्यूमन राइट्स अवार्ड: कोपेनहेगन में आयोजित CPH:DOX 2024 फिल्म फेस्टिवल में मार्चिंग इन द डार्क को स्पेशल मेंशन ह्यूमन राइट्स अवार्ड से नवाजा गया. यह पुरस्कार उस डॉक्यूमेंटरी को दिया गया, जिसने मानवाधिकारों के मुद्दे को प्रभावशाली तरीके से सामने रखा.
3. DocAviv 2024 – बेस्ट इंटरनेशनल डॉक्यूमेंटरी अवार्ड: इजरायल के डॉकअवीव फिल्म फेस्टिवल 2024 में मार्चिंग इन द डार्क को बेस्ट इंटरनेशनल डॉक्यूमेंटरी अवार्ड से सम्मानित किया गया. यह पुरस्कार दर्शाता है कि ये बेहतरीन डॉक्यूमेंटरी वैश्विक दर्शकों को पसंद आई है.
4. Hot Docs 2024 और Dokufest Kosovo 2024: मार्चिंग इन द डार्क ने कनाडा के प्रमुख फिल्म फेस्टिवल Hot Docs 2024 और कोसोवो के Dokufest 2024 में भी अपनी जगह बनाई. दोनों फेस्टिवल्स में यह डॉक्यूमेंटरी फिल्म की प्रस्तुति और प्रभावशाली कहानी के लिए प्रशंसा का पात्र बनी.
मार्चिंग इन द डार्क सिर्फ एक डॉक्यूमेंट्री नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय के लिए एक आंदोलन है. यह हमें ग्रामीण भारत की सच्चाइयों से परिचित कराती है और हमें सोचने पर मजबूर करती है. निर्देशक का संवेदनशील दृष्टिकोण और पात्रों की साहसिकता इस फिल्म को एक प्रभावशाली दस्तावेज बनाते हैं. यह फिल्म न केवल किसानों की आत्महत्या जैसे गंभीर मुद्दे को उजागर करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि साहस और सामूहिक समर्थन से कैसे बदलाव लाया जा सकता है. मार्चिंग इन द डार्क समाज के उपेक्षित तबके की आवाज है और इसे जरूर देखा जाना चाहिए.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, फिल्म समीक्षक और राजनीतिक-सामाजिक चिंतक है.)
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