भारतीय सिनेमा (Indian Cinema) के इतिहास की कुछ फिल्मों में खलनायकों (Villain) के किरदार इतने दमदार बन जाते हैं कि कई बार वे हीरो पर भी भारी पड़ते हैं. आज के समय में तो फिल्मों की कहानी कहने का अंदाज ही बदल गया है. अब फिल्म में किरदार हीरो है या विलेन पता ही नहीं चल पाता. हीरो ही कई बार नकारात्मक किरदार में नजर आते हैं.
लेकिन हम आपको 60 और 70 के दशक में लेकर चल रहे हैं, जब फिल्मों की कहानी कहने का एक सेट पैटर्न होता था. फिल्म में हीरो और हीरोइन होते थे, दोनों के बीच प्यार होता था. विलेन दोनों के रिश्ते को पसंद नहीं करता. हालांकि तमाम बाधाओं को पार करते हुए फिल्म के आखिर में हीरो-हीरोइन एक-दूसरे के हो जाते हैं.
हिंदी सिनेमा (Hindi Cinema) के उस दौर में विलेन के किरदार को इस कदर गढ़ा जाता था कि 70MM के पर्दे पर जब उनकी धाकड़ एंट्री होती थी तो कुर्सी पर बैठे दर्शकों की भी रूह कांप जाती थी. ऐसे ही एक गला सुखा देने वाले खलनायक थे प्रेम किशन सिकंद अहलुवालिया (Pran Krishan Sikand Ahluwalia) उर्फ प्राण (Pran).
वैसे तो उन्होंने हर तरह के किरदार निभाए हैं और आज के सिने लवर्स भले ही उनसे कनेक्ट न कर पाएं, लेकिन हिंदी सिनेमा के शुरुआती दौर में खलनायक के कैरेक्टर को स्थापित करने वाले एक्टर्स में वे प्रमुख थे. वे यकीनन हिंदी सिनेमा के सबसे खूंखार खलनायकों में से थे.
1967 में आई ‘राम और श्याम’ फिल्म की उनकी एंट्री याद है आपको? चलिए हम बताते हैं. दिलीप कुमार अपने माता-पिता की तस्वीर की पूजा अपनी बहन और भतीजी के साथ कर रहे होते हैं तभी बैकग्राउंड में जूते की खटर-खटर की आवाज उभरती है, जिस पर दिलीप कुमार का ध्यान जाता है. तुरंत ही डर के कारण उनका गला सूख जाता है और उनके शांत चेहरे के भाव बदल जाते हैं. वह वहां से भाग जाते हैं.
इसके बाद पर्दे पर काले जूते पहने हुए दो टांगें उभरती हैं. जूते की आवाज धीरे-धीरे तेज होने लगती है. बैकग्रांउड म्यूजिक इस डर के माहौल को और बढ़ा देता है. कैमरा धीरे-धीरे टांगों से ऊपर की ओर घूमता है और फिर रोंगटे खड़े कर देने वाला एक क्रूर चेहरा नजर आता है, जो प्राण का होता है. उनसे दिलीप कुमार का सामना होता है और वे एक कोने में दुबके नजर आते हैं.
प्राण का जन्म अविभाजित भारत के लाहौर शहर में 12 फरवरी 1920 को हुआ था और 93 साल की उम्र में 12 जुलाई 2013 को उनका निधन हो गया. आज हम उनकी जिंदगी के कुछ अनुछुए किस्सों को आपके सामने रख रहे हैं. अमिताभ बच्चन ने इस दिग्गज अभिनेता के निधन के बाद लिखा था, ‘हम अब उनके जैसे लोगों को नहीं बनाते…’
19 साल के प्राण स्टिल फोटोग्राफी के शौकीन थे और विभाजन से पहले लाहौर में एक फोटोग्राफर के असिस्टेंट के रूप में काम कर रहे थे. उस समय तक उन्होंने सपने में कभी नहीं सोचा था कि वह हिंदी सिनेमा में इतनी लंबी यात्रा करेंगे.
हालांकि तकदीर ने उनके बारे में कुछ और ही सोच रखा था. बात 1939 की एक रात की है, जब उनके पान चबाने के अंदाज पर लेखक वली मोहम्मद वली फिदा हो गए. वली फिल्म निर्माता दलसुख एम. पंचोली के साथ अपनी पंजाबी फिल्म ‘यमला जट’ के लिए काम कर रहे थे.
वली मोहम्मद ने उन्हें 50 रुपये की नौकरी का ऑफर दिया था. हालांकि उन्हें फोटोग्राफर के साथ काम करने के लिए 200 रुपये मिल रहे थे. शुरुआत में प्राण हिचक रहे थे, लेकिन उन्होंने यह काम एक्सेप्ट कर लिया और इस तरह से हिंदी सिनेमा को एक दुर्दांत खलनायक मिल गया.
इस तरह 1940 में ‘यमला जट’ रिलीज हुई, बॉक्स ऑफिस पर सफल रही और प्राण को खलनायक के रूप में पहचान मिल गई. फिल्म में दुर्गा खोटे और नूरजहां ने बाल कलाकार के रूप में काम किया था. उन्हें कई फिल्मों के ऑफर मिलने लगे, लेकिन 1942 में रिलीज हुई फिल्म ‘खानदान’ से उनकी गाड़ी चल पड़ी. यह फिल्म भी सिल्वर जुबली हिट रही.
वह फिल्म में एक रोमांटिक नायक की भूमिका में नूरजहां के अपोजिट नजर आए थे. हालांकि इस तरह के रोल उन्हें पसंद नहीं आए. हीरो के रूप में प्राण को हीरोइन के पीछे पेड़ों के इर्द-गिर्द घूमना सुहाता नहीं था.
यही वजह थी कि उन्होंने हीरो के किरदारों को रिजेक्ट करना शुरू कर दिया और विलेन के किरदारों वाली फिल्मों में नजर आने लगे. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा भी था, ‘कुछ भूमिकाओं को छोड़ दिया जाए तो हीरो के सभी किरदार एक जैसे होते हैं. विलेन की वजह से ही दर्शक हीरो को जान पाते हैं. जब तक आप बुराई को नहीं जानते, आप अच्छाई को कैसे जान पाएंगे? कंस की वजह से ही हम कृष्ण को जानते हैं, रावण की वजह से ही हम राम को जानते हैं.’
प्राण की खलनायकी का दर्शकों पर इतना प्रभाव था कि उस जमाने में उन्होंने अपने बच्चों के नाम उनके नाम पर रखना बंद कर दिया है. भारत में ऐसी परंपरा पहले से मौजूद रही है. पौराणिक कथाओं के खलनायकों जैसे रावण, कंस या दुर्योधन के नाम पर बच्चों का नाम कभी नहीं रखा गया है.
अभिनेता शक्ति कपूर ने एक बातचीत में कहा था, ‘प्राण साहब के दौर में कोई भी अपने बच्चों का नाम प्राण नहीं रखता था, ठीक वैसे ही जैसे कोई अपने बच्चों का नाम रावण नहीं रखता. माएं अपने बेटे का नाम प्राण रखने से डरती थीं. उनकी ऑन-स्क्रीन शख्सियत बहुत बड़ी थी, वे डाकू और डॉन की भूमिकाएं बहुत आसानी से निभाते थे. मैंने लोगों को कहते सुना है कि प्राण कई बार इतने प्रभावशाली होते थे कि फिल्म का हीरो भी अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाता था.’
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लेखक राजीव विजयकर के साथ बातचीत में खुद प्राण ने कहा था, ‘कुछ पत्रकारों ने बॉम्बे, दिल्ली, पंजाब और यूपी के स्कूलों और कॉलेजों में एक सर्वे किया और पाया कि 50 के दशक के बाद एक भी लड़के का नाम प्राण नहीं रखा गया था, जैसे किसी ने भी अपने बेटे का नाम रावण नहीं रखा है!’
इंडिया टीवी के साथ एक इंटरव्यू के दौरान कालिया (1980) में उन्हें निर्देशित करने वाले फिल्म निर्देशक टीनू आनंद ने कहा था, ‘उनका नाम खलनायकी का पर्याय बन गया था. प्राण नाम केवल एक व्यक्ति तक सीमित था और वह प्राण साहब थे.’
फिल्मों में बोले गए उनके डायलॉग्स से उनके साथी कलाकारों के साथ दर्शकों तक की घिग्गी बंध जाती थी. उनके निभाए गए विलेन के अलग-अलग किरदारों से उनके साथ काम करने वाली महिला कलाकारों को भी उनसे डरने पर मजबूर कर दिया था. हेमा मालिनी ने एक बार कहा था, ‘प्राण जी के साथ वैसे भी डर लगता था, वह इस तरह से अभिनय करते थे. वह एक भौंह उठाकर आपको एक अजीब तरीके से देखते थे.’
उस दौर में प्राण साहब के साथ काम करने के लिए फिल्म निर्माताओं की लाइन लगी रहती थी, जो किसी भी कीमत पर उन्हें अपनी फिल्म में साइन करना चाहते थे, भले ही इसके लिए उन्हें फिल्म के हीरो से ज्यादा पैसे देने पड़ते. उन्होंने प्रभात पिक्चर्स की फिल्म ‘अपराधी’ के लिए फिल्म के लीड एक्टर से 100 रुपये ज्यादा लिए थे. प्राण की हर साल पांच-छह फिल्में रिलीज होती थीं और जैसे-जैसे साल बीतते गए, उनकी संख्या लगातार बढ़ती गई.
अपनी लाल आंखों, आवाज और व्यंग्यात्मक शैली के साथ उन्होंने खलनायक के रूप में अपनी खास छवि स्थापित की और देवदास (1955), आजाद (1955), हलाकू (1956), मधुमती (1958), जिस देश में गंगा बहती है (1960), राम और श्याम (1967), हाफ टिकट (1962), कश्मीर की कली (1964), पत्थर के सनम (1967), फिर वही दिल लाया हूं (1963), धर्म (1973), पूजा के फूल (1964) और दो बदन (1966) जैसी फिल्मों को यादगार बनाया.
1940 के दशक से लेकर 1990 के दशक के अंत तक प्राण अपने काम के प्रति अथक रूप से समर्पित रहे. अपने लगभग छह दशक के करिअर में उन्होंने 350 से ज्यादा फिल्मों में काम किया. प्राण ने जिन आखिरी फिल्मों में अभिनय किया, उनमें से एक तेरे मेरे सपने (1996) थी. उनकी इच्छा थी (जैसा कि बॉम्बे टाइम्स को बताया गया था), ‘अगले जन्म में अभिनेता बनना. इस कला की सेवा के लिए एक जीवन पर्याप्त नहीं है.’
-भारत एक्सप्रेस
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