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Varanasi: नाटी इमली का भरत मिलाप, 480 साल पुराना है इतिहास, जीवंत हो उठता है रामायण काल का दृश्य

-सौरभ अग्रवाल

Kashi Bharat Milap : देश भर में विजयदशमी को लेकर लोगों में उत्साह देखा जा रहा है तो वहीं रामलीला आयोजन स्थलों पर रावण दहन की तैयारी पूरी कर ली गई है. बुराई पर अच्छाई के जीत का प्रतीक रावण जहां आज जलकर खाक हो जाएगी तो वहीं इसके बाद प्रभु राम के अपने अनुज भ्राता भरत से मिलने के लिए भी सुंदर दृश्य रामलीला के मंचों पर दिखाई देगा, लेकिन इन सब में उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के भरत मिलाप कार्यक्रम का नजारा एकदम अद्भुत होता है. 480 वर्ष पुराने भरत मिलाप के कार्यक्रम में आज भी पूरा बनारस ठीक उसी तरह उमड़ पड़ता है, जिस तरह रामायण काल में भगवान श्रीराम के अयोध्या पहुंचने और भरत से मिलने के दौरान के दृश्य को वर्णित किया गया है.

बता दें कि देश की धार्मिक व सांस्कृतिक राजधानी काशी को सात वार नौ त्योहार वाली नगरी भी कहा जाता है. यहां पूरे साल उत्सव का सिलसिला चलता रहता है और काशीवासी भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं और उत्सवों का पूरा आनंद उठाते हैं. वहीं इन त्योहारों में से एक है दशहरा के अगले दिन मनाए जाने वाले विश्व प्रसिद्ध भरत मिलाप कार्यक्रम का, जिसका नयनाभिराम दृश्य चित्रों में सहेजने के लिए जनसमुद्र एकत्र होता है. इस ऐतिहासिक भरत मिलाप को देखने के लिए सिर्फ काशी ही नहीं आस-पास के जिलों से भी लोग यहां नाटी इमली पहुंचते हैं.

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ये है लोगों की मान्यता

भरत मिलाप को लेकर लोगों की मान्यता है कि इस भरत मिलाप में राम, लक्ष्मण, भरत शत्रुघ्न के साक्षात् दर्शन देते हैं. अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें यहां बने चबूतरे पर एक तय समय पर पड़ती है और उसके बाद राम और लक्षमण धरा पर गिरे भरत और शत्रुघ्न की तरफ दौड़ पड़ते हैं और उन्हें गले लगाते हैं. इसके बाद चारों तरफ से सियावर रामचंद्र की जय की गूंज होती है और यह दृश्य ठीक रामायण काल की याद दिला देता है. बता दें कि इस वर्ष भरत मिलाप का अनवरत 480वां साल है.

सपने में आए थे तुलसीदास, इसी के बाद शुरू हुई रामलीला

स्थानीय लोगों की मान्यता है कि करीब पांच सौ वर्ष पहले संत तुलसीदास जी के शरीर त्यागने के बाद उनके समकालीन संत मेधा भगत काफी विचलित हो उठे. कहा जाता है कि उन्हें सपने में तुलसीदास जी के दर्शन हुए और उसके बाद उन्ही के प्रेरणा से उन्होंने इस रामलीला की शुरुआत की. इस रामलीला का ऐतिहासिक भरत मिलाप, दशहरा के ठीक अगले दिन होता है. मान्यता है कि 479 साल पुरानी काशी की इस लीला में भगवान राम खुद ही धरती पर अवतरित होते है. यहां के भरत मिलाप कार्यक्रम को लेकर चित्रकूट रामलीला समिति के व्यवस्थापक पंडित मुकुंद उपाध्याय के मुताबिक, तुलसीदास ने जब रामचरितमानस को काशी के घाटों पर लिखा उसके बाद तुलसीदास ने भी कलाकारों को इकठ्ठा कर लीला यहीं शुरू की थी, मगर उसको परम्परा के रूप में मेघा भगत जी ने ढाला. मान्यता ये भी है की मेघा भगत को इसी चबूतरे पर भगवान राम ने दर्शन दिया था, उसी के बाद यहां भरत मिलाप होने लगा.

काशी के लक्खी मेला में शुमार

बता दें कि यहां का भरत मिलाप काशी के लक्खी मेला में शुमार है. काशी की इस परम्परा में लाखों की संख्या में भक्त उमड़ पड़ते हैं. भगवान राम, लक्ष्मण के साथ ही माता सीता के दर्शन के लिए काशी ही नहीं दूसरे शहरों के लोग शाम को करीब चार बजकर चालीस मिनट पर उस समय एकत्र हो जाते हैं, जब अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें भरत मिलाप मैदान के एक निश्चित स्थान पर पड़ती हैं. तब लगभग पांच मिनट के लिए माहौल थम सा जाता है. जैसे ही चारों भाइयों का मिलन होता है पूरे मैदान में जयकारा गूंज उठता है.

 

सदियों से यादव बंधु ही निभा रहे हैं रघुकुल का रथ लाने की जिम्मेदारी

बता दें कि भरत मिलाप कार्यक्रम में यदुकुल के कंधे पर ही रघुकुल का रथ निकाले जाने की परम्परा चली आ रही है. आंखों में सूरमा लगाए सफेद मलमल की धोती- बनियान और सिर पर पगड़ी लगाए यादव बंधु मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का 5 टन का पुष्पक विमान फूल की तरह पिछले 479 सालों से कंधों के सहारे लीला स्थल तक लाने की परम्परा को निभा रहे हैं. भाइयों को रथ पर सवार कर अयोध्या (भरत मिलाप मैदान के पास एक निश्चित स्थान) तक ले जाते हैं.

मेघा भगत ने उठाया प्रचार-प्रसार का जिम्मा

यहां की रामलीला की खास बात बताते हुए चित्रकूट रामलीला समिति के व्यवस्थापक पंडित मुकुंद उपाध्याय ने कहा, तुलसीदास ने बनारस के गंगा घाट किनारे रह कर रामचरितमानस लिखी तो थी, लेकिन उस दौर में श्रीरामचरितमानस जन-जन के बीच तक कैसे पहुंचे ये उनके सामने एक बड़ा सवाल था. लिहाजा प्रचार प्रसार करने का बीड़ा तुलसी के समकालीन गुरु भाई मेघाभगत ने उठाया. बता दें कि जाति के अहीर मेघा भगत विशेश्वरगंज स्थित फूटे हनुमान मंदिर के रहने वाले थे. काशी में रामलीला मंचन की शुरुआत सबसे पहले उन्होंने ही की थी. लाटभैरव और चित्रकूट की रामलीला तुलसी के दौर से ही चली आ रही है.

हाथी पर आते हैं काशी नरेश, देते हैं सोने की गिन्नी

काशी के भरत मिलाप कार्यक्रम की खास बात ये भी है कि इस कार्यक्रम के साक्षी काशी नरेश भी होते हैं. हाथी पर सवार होकर महाराज बनारस लीला स्थल पर पहुंचते हैं और देव स्वरूपों को सोने की गिन्नी उपहार स्वरूप देते हैं. इसके बाद लीला शुरू होती है. इस संबंध में आयोजक बताते हैं कि पिछले 227 सालों से काशी नरेश शाही अंदाज में इस लीला में शामिल होते आ रहे हैं. पूर्व काशी नरेश महाराज उदित नारायण सिंह ने इसकी शुरुआत की थी. 1796 में वह पहली बार इस लीला में शामिल हुए थे. बताया जाता है कि, तब से उनकी पांच पीढ़ियां इस परंपरा का निर्वहन करती चली आ रही हैं. वर्तमान में कुंवर अनंत नारायण इस परम्परा को निभाते हुए अपनी आने वाली पीढ़ियों को भी सीख दे रहे हैं.

-भारत एक्सप्रेस

 

Archana Sharma

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