नई दिल्ली – सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि किशोरों को वयस्क जेलों में रखना उन्हें उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित करने के समान है और कोई आरोपी किशोर है या नहीं, ये तय करने में ज्यादा तकनीकी दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिए. न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की पीठ ने एक दोषी की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की. याचिका में अनुरोध किया गया है कि उत्तर प्रदेश सरकार को अपराध की तारीख के दिन उसकी सही उम्र की पुष्टि करने का निर्देश दिया जाए.
वर्ष 1982 के एक हत्या के मामले में अदालत ने आजीवन कारावास की पुष्टि किए जाने के बाद दोषी ने उम्र के सत्यापन की याचिका दायर की थी. आजीवन कारावास की सजा काटने के दौरान इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दिए गए एक फैसले के तहत में राज्य से गठित मेडिकल बोर्ड से उसका मेडिकल परीक्षण किया गया था.
अदालत ने एक हत्या के दोषी की याचिका पर सुनवाई करते हुए ये टिप्पणियां कीं, जिसने उम्रकैद की सजा काट रहे अपराध के समय नाबालिग होने का दावा किया था. याचिकाकर्ता, जिसकी सजा को 2016 में अदालत ने बरकरार रखा, उसने कोर्ट से उत्तर प्रदेश सरकार को उसकी सही उम्र के सत्यापन के लिए निर्देश देने की मांग की. याचिकाकर्ता विनोद कटारा की ओर से पेश अधिवक्ता ऋषि मल्होत्रा ने कहा कि उनके मुवक्किल ने किशोर होने की दलील नहीं दी थी, फिर भी कानून उन्हें किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2011 के प्रावधानों के संबंध में इस समय भी इस तरह की याचिका दायर करने की अनुमति दे रहा है.
याचिकाकर्ता को परिवार रजिस्टर प्रमाण पत्र भी प्राप्त हुआ, जहां उसका जन्म वर्ष 1968 दिखाया गया था, और दावा किया कि अपराध के समय वह 14 वर्ष का था.पीठ ने कहा, ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ समय बाद, रिट आवेदक यूपी पंचायत राज (परिवार रजिस्टरों का रखरखाव) नियम, 1970 के तहत जारी परिवार रजिस्टर दिनांक 02.03.2021 के रूप में एक दस्तावेज प्राप्त करने की स्थिति में था. फैमिली रजिस्टर सर्टिफिकेट, रिट आवेदक का जन्म वर्ष 1968 के रूप में दिखाया गया है.
-आईएएनएस
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