दिल्ली हाईकोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 311ए के प्रावधान की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा है. यह धारा मजिस्ट्रेट को जांच में सहायता के लिए किसी व्यक्ति को नमूना हस्ताक्षर देने के आदेश देने का अधिकार देता है. लेकिन उसमें यह भी कहा गया है कि ऐसा आदेश तब तक पारित नहीं किया जा सकता जब तक कि व्यक्ति को गिरफ्तार न कर लिया जाए.
जस्टिस प्रतिबा मनिंदर सिंह एवं जस्टिस अमित शर्मा की पीठ ने कहा कि नए कानून भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNS) की धारा 349 के प्रावधान में गिरफ्तारी को अनिवार्य नहीं किया गया है. उसमें स्पष्ट किया गया है कि अदालत आधार बताते हुए किसी को गिरफ्तार किए बिना ऐसा नमूना देने का आदेश दे सकता है.
मजिस्ट्रेट ने हाईकोर्ट से राय मांगी थी कि क्या सीआरपीसी की धारा 311ए के तहत नमूना हस्ताक्षर देने के लिए अदालत में उपस्थित होने वाले व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाना चाहिए या किसी भी चरण में पहले हिरासत में होना चाहिए. उसने यह भी पूछा था कि क्या प्रावधान ऐसे हस्ताक्षर देने के लिए आदेशित व्यक्ति के मौलिक अधिकारों पर अत्यधिक प्रतिबंध लगाता है.
पीठ ने मजिस्ट्रेट की ओर से भेजे गए संदर्भ पर निर्णय देते हुए कहा कि सीआरपीसी की धारा 311ए का प्रावधान की प्रकृति निर्देशात्मक है और यह अनिवार्य नहीं है. अगर उक्त प्रावधान में प्रयोग किया गया शब्द ‘करेगा‘ को अनिवार्य प्रावधान के रूप में व्याख्यायित किया जाता है, तो इसका परिणाम यह होगा कि संबंधित आरोपी को जांच में सहायता के लिए अपने नमूना हस्ताक्षर देने से पहले गिरफ्तार करना होगा.
लेकिन कानून के स्थापित मानदंडों के अनुसार असंगेय अपराधों में व्यक्ति को गिरफ्तार करने की बाध्यता नहीं है. ऐसे मामलों में आरोपी को गिरफ्तार करने का मुद्दा जांच अधिकारी के विवेक पर छोड़ दी जाती है. वैसे जब कोई व्यक्ति स्वेच्छा से अदालत जाता है और वहां हस्ताक्षर देना चाहता है तो उसे गिरफ्तार करने की जरूरत नहीं है.
-भारत एक्सप्रेस
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