चुनावी राजनीति में सफलता किसी भी राजनीतिक दल को आंकने के नजरिये में किस तरह जमीन-आसमान का फर्क पैदा कर देती है, कर्नाटक उसकी बेहतरीन मिसाल है। कल तक जिस कांग्रेस को विपक्षी एकता की सबसे बड़ी अड़चन बताया जा रहा था, आज वही कांग्रेस उस लड़ाई का केन्द्र बिंदु बन गई है जिसमें उसे बीजेपी के खिलाफ बड़ा बोझ माना जा रहा था। जो क्षेत्रीय क्षत्रप कांग्रेस की हर चूक पर, हर नाकामी पर उसे पानी पी-पीकर कोसते थे, अपनी सियासी बोली बढ़ाने के लिए मन-ही-मन कांग्रेस के कमजोर बने रहने की दुआ करते थे, आज वही कांग्रेस के ताकतवर बनने पर जमकर ‘ममता’ लुटा रहे हैं। सियासी महाभारत में जो ममता बनर्जी कल तक कांग्रेस को पश्चिम बंगाल में एक इंच राजनीतिक जमीन देने को तैयार नहीं थीं, वो अब इतनी मेहरबान हो गईं हैं कि वो देश भर में कांग्रेस को 200 सीटों पर समर्थन तक देने के लिए तैयार हो गईं हैं। अरविंद केजरीवाल और अखिलेश यादव ने भी कर्नाटक की जीत पर कांग्रेस की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। यहां तक कि केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन तक ने कांग्रेस से कहा है कि कर्नाटक के जश्न में वो विपक्षी एकता के महत्वपूर्ण लक्ष्य को न भूल जाएं। यहां नीतीश कुमार, शरद पवार, तेजस्वी यादव, एमसी स्टालिन, उद्धव ठाकरे और हेमंत सोरेन का जिक्र इसलिए नहीं कर रहा हूं क्योंकि ये नेता पहले से ही कांग्रेस को विपक्षी एकता की धुरी बताते रहे हैं।
लेकिन क्या केवल ममता बनर्जी का हृदय परिवर्तन ही विपक्षी एकता का वो जोड़ साबित हो पाएगा जो बीजेपी के तोड़े नहीं टूटेगा। ममता बनर्जी के पुराने इतिहास और मौजूदा मजबूरियों को देखते हुए ये कहना जरा मुश्किल है। अव्वल तो ममता ने बीजेपी को कर्नाटक की सियासी गद्दी से बेदखल करने की बधाई कांग्रेस को नहीं बल्कि कर्नाटक की जनता को दी है। ये इस बात का पहला संकेत है कि ममता के रुख में बदलाव मन परिवर्तन नहीं बल्कि सियासी मजबूरी है। और भी कई वजहें हैं। पिछले कुछ दिनों में गोवा, मेघालय और त्रिपुरा में कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने वाले टीएमसी की राजनीतिक पहलकदमी से ये संदेश जा रहा था कि उनका असली उद्देश्य बीजेपी विरोधी वोट को बांटना था। इस कारण ममता पर लगातार बीजेपी के विरोध में प्रतिबद्धता दिखाने का दबाव था। विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस की अनिवार्यता पर नीतीश कुमार और शरद पवार के अकाट्य तर्कों के बीच ममता की गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेसी गठबंधन की मुहिम भी जोर नहीं पकड़ पा रही थी। सबसे बड़ी और नई मजबूरी तो शायद पश्चिम बंगाल में अपनी जमीन खिसकने का खतरा बना है। हाल ही में सागरदिघी विधानसभा उपचुनाव में लेफ्ट के समर्थन से कांग्रेस उम्मीदवार की जीत से ममता बनर्जी के उस दावे की हवा निकल गई थी कि बंगाल में टीएमसी ही मुसलमानों की एकमात्र भरोसेमंद विकल्प है। बीरभूम, नादिया, मुर्शिदाबाद और मालदा जिलों में हाल की रैलियों में उमड़ी भीड़ से भी पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वामपंथियों के पक्ष में तेजी से हो रहे मुस्लिम एकीकरण के संकेत मिल रहे हैं। उस पर कर्नाटक में जिस तरह मुस्लिम वोट कांग्रेस के पक्ष में लामबंद हुआ है, उसने यकीनन ममता की चिंताएं बढ़ाईं होंगी। ममता को लग रहा होगा कि कांग्रेस को समर्थन देकर वो दूर जा रहे अल्पसंख्यक वोट को अपने पास रख पाएंगी। 200 सीटों पर समर्थन की पेशकश करके भी ममता ने कांग्रेस पर दरियादिली नहीं दिखाई है बल्कि सीधे-सीधे यही कहा है कि कांग्रेस को भी क्षेत्रीय दलों और उनके प्रभुत्व वाले क्षेत्रों की ताकत को पहचानने और अपने बड़े भाई वाले रवैये को छोड़ने और बंगाल में तृणमूल एवं अन्य राज्यों में प्रभाव रखने वाले दूसरे क्षेत्रीय दलों के साथ दूसरी भूमिका निभाने के लिए तैयार रहने की जरूरत है। कांग्रेस ममता के ये तेवर और उनकी राजनीतिक मजबूरी दोनों को भांप रही है। इसलिए उसके नेतृत्व ने ममता की पेशकश को कोई तवज्जो देने के बजाय उसे एक तरह से खारिज ही किया है। इस सबके बीच कभी विपक्ष को जोड़ने निकले केसीआर अभी पसोपेश में ही हैं कि कांग्रेस को बधाई दें या नहीं, क्योंकि अगले कुछ दिनों में तेलंगाना में चुनाव होने हैं और वहां कांग्रेस उनके मुकाबले में है।
दरअसल कर्नाटक एक ऐसे ट्रिगर के रूप में उभरा है जिसने कांग्रेस को देश की राजनीति के केन्द्र में फिर से ला दिया है। बेशक बीजेपी की कुछ गलतियों ने भी इस जीत में भूमिका निभाई है लेकिन ये कहना उचित नहीं होगा कि कांग्रेस इस जीत की हकदार नहीं थी। कांग्रेस को इस जीत का पूरा-पूरा श्रेय दिया जाना चाहिए क्योंकि ये उसके केन्द्रीय और स्थानीय नेतृत्व की साझा मेहनत का परिणाम भी है और आखिर में जिस तरह का नतीजा सामने आया वो बताता है कि कांग्रेस का करीब-करीब हर दांव सही पड़ा। ऐसा करते हुए कांग्रेस ने खुद को बदली परिस्थितियों के अनुरूप ढालने की पहल भी की है। 138 साल की लंबी राजनीतिक यात्रा में कांग्रेस ने मंडल राजनीति पर अपने पारंपरिक उदारवादी रुख से आगे बढ़ते हुए पहली बार आक्रामक रवैया अपनाया है और कर्नाटक ने भविष्य के लिए एक उर्वरा संभावना के संकेत दिए हैं। पिछले साल उदयपुर चिंतन शिविर और इस साल रायपुर के अधिवेशन में आबादी के अनुसार आरक्षण के विषय पर कांग्रेस के अंदरखाने आगे बढ़ने की जो रणनीति बनी थी, उसे राहुल गांधी ने कर्नाटक की चुनावी सभाओं में सार्वजनिक कर दिया। जाहिर है इस नीतिगत बदलाव से कांग्रेस को मंडल समर्थक अपने सहयोगियों जेडीयू, आरजेडी, एसपी, द्रमुक और एनसीपी से करीबी बढ़ाने में तात्कालिक सफलता तो मिली ही है, साथ ही वो देश की आबादी के बड़े हिस्से – पिछड़े वर्गों और गरीबों के बीच अपनी स्वीकार्यता भी बढ़ा रही है, जैसा कि हमने कर्नाटक में देखा है जहां ये बदलाव बीजेपी के आक्रामक चुनावी अभियान के खिलाफ न केवल कांग्रेस की ढाल बल्कि चुनाव जीतने वाला हथियार भी साबित हुआ। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक के बाद एक ताबड़तोड़ रैलियां और रोड-शो न किए होते तो कांग्रेस का ये दांव बीजेपी को कितना नुकसान पहुंचा सकता था, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
दरअसल, कांग्रेस की सोच में इस रणनीतिक बदलाव ने 2024 की लड़ाई को दिलचस्प बना दिया है जहां करीब-करीब आधी सीटों पर उसका सीधा मुकाबला बीजेपी से होगा। एक अनुमान है कि 2019 में बीजेपी की ऐतिहासिक जीत में पिछड़े वर्गों से मिले करीब-करीब 60 फीसद के समर्थन का बड़ा हाथ था। देखने वाली बात होगी कि कांग्रेस अपनी सोच में आए बदलाव से पिछड़े वर्ग की सोच को कितना बदल पाती है। हालांकि कांग्रेस को इसके साथ ही मोदी सरकार के पिछले नौ साल में हुई कई परिवर्तनकारी पहल से भी पार पाना होगा। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 का खात्मा, आतंक पर सर्जिकल स्ट्राइक, अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के सपने को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सच के करीब पहुंचाना, ट्रिपल तलाक पर कानूनी लगाम, कोरोना काल से अब तक गरीबों को मुफ्त राशन की व्यवस्था सुनिश्चित करना, शौचालय-आवास-उज्ज्वला जैसी ग्रामीण और शहरी गरीबों के जीवनस्तर को बेहतर करने वाली अनूठी योजनाएं, हाई-वे की संख्या को दोगुना करना, वंदे भारत जैसी अत्याधुनिक ट्रेन की शुरुआत, डिजिटल और स्टार्ट अप क्रांति जैसी भारतीय समाज के अलग-अलग वर्गों को प्रभावित करने वाली कई सफलताएं मोदी सरकार के खाते में दर्ज हैं।
लेकिन जिस तरह तमाम सफलताओं और लोकप्रियता के बावजूद हर नया चुनाव एक नया इम्तिहान होता है, वैसे ही सत्ता में 9 साल पूरे कर चुके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए भी लोकसभा चुनाव काफी चुनौतीपूर्ण रहने वाला है। बेशक प्रधानमंत्री का सियासी कद और उनकी सियासी सफलताएं विशालकाय रूप ले चुकी हैं लेकिन 10 साल सत्ता चलाने के बाद जनादेश पाकर उसे 5 साल के लिए फिर से रिचार्ज करना एक बड़ी चुनौती भी होती है।
आने वाला समय ये भी साफ करेगा कि क्या कर्नाटक ने एक द्विध्रुवीय राजनीति के उभरने के संकेत दिए हैं और क्या बीजेपी को फिर से अपनी रणनीति पर विचार करने की जरूरत है क्योंकि लोकसभा चुनाव से पहले उसे मध्य प्रदेश और राजस्थान में लोकल बनाम केन्द्र की चुनौती को भी हल करना होगा, जहां शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे की प्रधानता से नाराज शक्तिशाली गुट दबी जुबान में लगातार विरोध के स्वर मुखर कर रहे हैं। इसके अलावा पार्टी को अपने खिलाफ मुस्लिम मतदाताओं के एकजुट होने के बारे में फिर से सोचना होगा, जो पश्चिम बंगाल और अब कर्नाटक में हुआ है। साथ ही विपक्ष शासित राज्यों में लागू मुफ्त की योजनाओं को बीजेपी भले रेवड़ी कहती रहे लेकिन उनका मुकाबला करने के लिए उसे कोई-न-कोई काट भी ढूंढनी पड़ेगी क्योंकि पंजाब और हिमाचल के बाद ये दांव कर्नाटक में भी उस पर भारी पड़ा है।
दूसरी तरफ पहले चुनाव में कर्नाटक की जनता और फिर नतीजों के बाद विपक्ष से मिल रहे समर्थन से उत्साहित कांग्रेस की राह भी आसान नहीं रहने वाली है। आज भले ही ममता बनर्जी जैसे विपक्षी नेताओं को कांग्रेस के पक्ष में खड़े होने और बीजेपी के खिलाफ आमने-सामने के फॉर्मूले को आगे बढ़ाने में समझदारी नजर आ रही है, लेकिन भविष्य कौन बता सकता है? लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस को तीन महत्वपूर्ण चुनावों का सामना करना है- राजस्थान और छत्तीसगढ़, जहां वह सत्ता में है और मध्य प्रदेश जहां हाथ आई सत्ता गंवाने के बाद अब वो विपक्ष में है। यहां नतीजों में किसी भी तरह की ऊंच-नीच हुई तो ये देखने वाली बात होगी कि उसका कांग्रेस की सौदेबाजी की ताकत और ममता बनर्जी जैसे नेताओं के समर्थन पर क्या प्रभाव पड़ता है।
-भारत एक्सप्रेस
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