इजरायल-हमास संघर्ष भयावह हो चला है। दुनिया साफ तौर पर दो खेमों में बंटी दिख रही है। आतंकवाद पर दुनिया का बंटना अब विस्मयकारी नहीं लगता। जमीन के टुकड़े की लड़ाई विध्वंस और विनाश की कहानी बनकर सामने है। एक संगठित प्रलयकारी संघर्ष लगातार अपने पैर पसार रहा है जिसे रोकने के बजाय कई देश सतत फंडिंग से लगातार इसे मजबूत बना रहे हैं।
धर्म का तड़का इस आतंकवाद को और खतरनाक बना रहा है। सच तो ये है कि पिछले कुछ समय से चला आ रहा आतंकवाद और धर्म का ये कॉकटेल तैयार ही इसी मकसद से किया गया है कि विनाशकारी एजेंडे में अधिक-से-अधिक लोगों का साथ लिया जा सके। इस पर होने वाली प्रतिक्रिया भी प्रतिस्पर्धी धर्म को आतंकवाद से जोड़ती है, भले ही वह प्रतिरक्षा के नाम पर क्यों न हो। आतंकवाद की राह पर यही संघर्ष जब स्थायी बन जाता है तो इसके अपने सिस्टम विकसित हो जाते हैं जिनमें फंडिंग प्रमुख है। इस फंडिंग के दम पर सेना, गोला-बारूद और इन सबके लगातार प्रयोग के लिए युद्धस्थल जरूरी हो जाता है। पश्चिम एशिया आज इसी आतंकवाद का अखाड़ा बना हुआ है।
आतंकवाद अमूमन स्टेट स्पॉन्सर्ड होता है। बगैर सत्ता संरक्षण के आतंकवाद पनपता ही नहीं है। इस्लामिक देशों में फल-फूल रहे आतंकवाद के पीछे इस्लामिक देश ही हैं। आतंकी संगठनों में हिज्बुल्लाह, हमास, तालिबान, अलकायदा, आईएस जैसे संगठनों की एक फेहरिस्त है जिसने खून-खराबे की स्थायी कहानी लिख रखी है। मगर, क्या आप जानते हैं कि इन संगठनों की सालाना आमदनी क्या है? ‘आमदनी’ लिखने से परहेज करना इसलिए जरूरी है क्योंकि ये संगठन कमाते नहीं हैं बल्कि इन्हें बैठे बिठाए फंडिंग हो जाती है।
अमेरिकी गृह विभाग की 2021 की रिपोर्ट में दावा किया गया था कि ईरान हर साल फिलिस्तीन के आतंकी संगठनों को 10 करोड़ डॉलर की मदद करता है। इसमें सबसे ज्यादा मदद हमास को मिलती है। हमास के ज्यादातर बड़े नेता गाजा में नहीं रहते। वे कतर, तुर्किए और ईरान में अमीरों की जिंदगी जीते हैं। हमास के सर्वोच्च नेता इस्माइल हानिया के पास 400 करोड़ डॉलर की संपत्ति का अनुमान है तो उसके एक और नेता खालिद मशाल के पास 400 करोड़ डॉलर और एक दूसरे नेता अबू मरजुक के पास करीब 300 करोड़ डॉलर की संपत्ति है।
ब्लॉकचेन रिसर्चर्स टीआरएम लैब्स ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि मई 2021 की लड़ाई के बाद से हमास को कम से कम 4 लाख डॉलर की क्रिप्टोकरंसी मिल चुकी है। दुनिया के 10 आतंकी संगठनों की सालाना आमदनी 385.5 करोड़ डॉलर है। भारतीय रुपये में यह रकम 32 हजार करोड़ से अधिक होती है। यह त्रिपुरा के बजट से ज्यादा और मणिपुर के बजट से थोड़ा कम है।
10 अमीर आतंकी संगठनों की सालाना आमद
हिज्बुल्लाह 110 करोड़ डॉलर
हमास 100 करोड़ डॉलर
तालिबान 80 करोड़ डॉलर
अलकायदा 30 करोड़ डॉलर
ISIS 20 करोड़ डॉलर
कुर्दिस्तान वर्कर पार्टी 18 करोड़ डॉलर
कातिब हिज्बुल्लाह 15 करोड़ डॉलर
फिलिस्तीनी इस्लामिक जिहाद 10 करोड़ डॉलर
लश्कर-ए-तैयबा 7.5 करोड] डॉलर
रियल आयरिश रिपब्लिक (RIA) 5 करोड़ डॉलर
आतंकी संगठनों की मदद करने वाले देशों में ईरान, तुर्किए, सऊदी अरब जैसे देश हैं मगर ये इस बात को कभी स्वीकार नहीं करते। इतना ही नहीं, ये देश चोरी-छिपे सैन्य प्रशिक्षण और गोला-बारूद देने का काम भी करते हैं। लेबनान, सीरिया जैसे देशों में आतंकी संगठन शरण पा लेते हैं तो मिस्र, जॉर्डन जैसे देश जाने-अनजाने इन संगठनों की गतिविधियों के लिए इस्तेमाल हो जाते हैं। चैरिटी के नाम पर बड़े-बड़े अमीर भी इन आतंकी संगठनों को रकम देते हैं। इसके अलावा अफीम की खेती और कारोबार के जरिए भी आतंकी संगठन नियमित आमद को सुनिश्चित करते हैं। अफगानिस्तान जैसी तालिबानी सरकारें अफीम की खेती को संस्थागत रूप दे देती हैं।
मोसाद के पूर्व एजेंट उजी शाया की मानें तो युद्ध शुरू होने के बाद से कतर की ओर से कम से कम 40 करोड़ पाउंड और ईरान से 20 करोड़ पाउंड की रकम हमास के आतंकियों तक पहुंचाई गई है। संयुक्त अरब अमीरात, सूडान, अल्जीरिया और तुर्किए की कुछ कंपनियों का इसके लिए इस्तेमाल किया गया है। क्रिप्टोकरंसी आतंकियों तक धन पहुंचाने का आसान जरिया बन चुका है।
ग्लोबल टेररिज्म इंडेक्स 2022 की रिपोर्ट कहती है कि इस्लामिक स्टेट ने सबसे खतरनाक आतंकी संगठन के तौर पर तालिबान को भी पीछे छोड़ दिया है। आईएस के एक हमले में 15 लोगों की मौत खतरनाक आंकड़ा है। आतंकी संगठन अब जीपीएस सिस्टम और एनक्रिप्टेड मैसेज सर्विस का इस्तेमाल कर रहे हैं। उनके पास उच्च तकनीक और आधुनिक आग्नेयास्त्र हैं। हम बात कर रहे हैं मध्य-पूर्व में आतंकी गतिविधियों की, लेकिन रिपोर्ट कहती है कि सब सहारा अफ्रीकी देश आतंक के बड़े गढ़ के तौर पर उभरे हैं। नाइजर, माली, कांगो और बुर्किना फासो उन दस देशों में शीर्ष चार देश हैं जहां आतंकवाद के कारण सबसे ज्यादा मौत हुई है।
जर्मनी की रिसर्च एजेंसी Statista.com ने दुनिया के सबसे अमीर आतंकी संगठनों की जो रैंकिंग जारी की है उसमें पहले नंबर पर हिज्बुल्लाह है जो लेबनान से ऑपरेट करते हुए इजरायल पर लगातार हमले कर रहा है। दूसरे नंबर पर है इजरायल का दुश्मन नंबर एक – हमास। महज 6 से 10 किमी की चौड़ाई और 45 किमी लंबी गाजा पट्टी पर हुकूमत करने वाला हमास उस इजरायल से जंग लड़ रहा है जिसकी जीडीपी 500 बिलियन डॉलर से ज्यादा की है और जिसके पास डेढ़ लाख की स्थायी सेना है। दरअसल, फिलिस्तीन की आजादी के नाम पर हमास को दुनिया भर से मदद तो मिलती ही है, साथ में वो मानवीय मदद के नाम पर भी काफी दौलत बटोर लेता है।
यह भी गौर करने वाली बात है कि मध्य-पूर्व में तेल के कुओं पर कब्जा बरकरार रखने की जंग में कूटनीतिक घेराबंदी जियो पॉलिटिक्स का स्थायी भाव बन चुका है और धर्म का इसमें खूब इस्तेमाल होता है। इस्लाम की रक्षा के नाम पर इस्लामिक देश इकट्ठे तो होते हैं लेकिन वास्तव में अपने हितों के कारण वे इस्लाम के नाम पर भी जरूरत के वक्त बंटे दिखते हैं। ताजा उदाहरण इजरायल-हमास संघर्ष है, जिसे साजिशन फिलिस्तीनियों के वजूद की लड़ाई का नाम दे दिया गया है। मगर अब तक न तो इस्लामिक देश हमास की बर्बरता का विरोध कर पाए हैं और न ही वे इजरायल की जवाबी कार्रवाई के विरोध में एकजुट हो पाए हैं। दरअसल आतंकी घटनाओं के जारी रहने में ही हथियार बेचने वाले और खरीदने वालों का कारोबार जिन्दा रहता है। शायद यही वजह है कि संघर्ष के बाद की शांति के समय का इस्तेमाल आतंकवाद को मजबूत करने में होता आया है ताकि आगे और बड़े संघर्ष की तैयारी हो सके।
तुर्किए के राष्ट्रपति रेसेप तैय्यप एर्दोआन ने गाजा के लिए मुस्लिम यलगार का एलान किया है। उनके इस एलान में सीधे तौर पर इस्लामिक और गैर-इस्लामिक ध्रुवीकरण को आधार बनाकर इजरायल की घेराबंदी का इरादा दिखता है। इसमें अरब-इजरायल युद्ध के अतीत की झलक भी है। लेकिन, दुनिया में मुसलमानों का ऐसा तबका भी है जो जंग के इस्लामीकरण का विरोध करता है। संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन ने हमास के बर्बर हमले की निंदा कर दुनिया को चौंका दिया। ये देश अमेरिका की पहल पर इजरायल के साथ हुए अब्राहम अकॉर्ड में शामिल हैं। जॉर्डन और मिस्र जैसे देश गाजा के लोगों के लिए अपनी सीमा खोलने को तैयार नहीं हो रहे हैं। हालांकि इसकी वजह हमास से दूरी नहीं है।
इजरायल 1948 में बना। मगर, इसने खुद को हमेशा से युद्ध के लिए तैयार रखा। युद्धरत रहते हुए इजरायल ने अपनी प्रतिरक्षा को इतना मजबूत कर लिया कि आज वह पड़ोसी इस्लामिक देशों की साझा शक्ति का मुकाबला करने में पूर्ण रूप से सक्षम हो चुका है। यकीनन, अमेरिकी मदद उसकी इस क्षमता को बढ़ाती है मगर इसे सबसे ज्यादा ताकत मिलती है यहूदियों की एकजुटता और इजरायल के सैन्यीकरण से जो खुद की इच्छा से प्रेरित है। आधुनिकतम तकनीक, मजबूत खुफिया तंत्र और सक्रिय-असक्रिय सैन्य बल – इजरायल की प्रतिरक्षा के प्रमुख आधार हैं।
हर बीते दिन के साथ व्यापक हो रहे इजरायल-हमास युद्ध में एक तरफ इजरायल के साथ पश्चिम देश और अमेरिका हैं, तो दूसरी तरफ हमास के हमदर्द ज्यादातर इस्लामिक देश, रूस और चीन हैं। इन सबके बीच इंडिया-मिडिल ईस्ट-यूरोप इकॉनमिक कॉरिडोर (IMEEC) की परियोजना भी लटक गई है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने तो हमास के हमले की वजह ही इस परियोजना को बताया है। यह भारत को मध्य-पूर्व से आगे यूरोप को जोड़ने वाली योजना है जिसमें इजरायल भी शरीक है। चीन इस पहल से पहले से ही चिढ़ा बैठा था क्योंकि उसकी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के लिए ये बड़ी चुनौती बन गई है। ईरान जैसी शक्तियां भी इसे नापसंद कर रही थीं। ऐसे में इस संघर्ष की आड़ में चीन ने भी मध्य-पूर्व इस्लामिक देशों के साथ अपने हित साधने का मौका तलाश लिया है। इजरायल के साथ खड़े होने वाली भारत की आरंभिक प्रतिक्रिया इसी मौकापरस्ती पर कूटनीतिक पलटवार है।
-भारत एक्सप्रेस
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