आखिर क्या वजह है कि भारतीय राजनीति से जाति नहीं जाती? बिहार में जातिगत जनगणना पर चल रही उठापटक के बीच यह सवाल फिर मौजूं हो गया है। पटना हाईकोर्ट के फैसले के बाद यह मुद्दा अब सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच गया है। देश की सर्वोच्च अदालत में एक याचिका दायर की गई है जिसमें हाईकोर्ट के 1 अगस्त के फैसले को चुनौती दी गई है। हाईकोर्ट ने जातिगत जनगणना को सही ठहराते हुए उसके खिलाफ दायर सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया था। हालांकि नीतीश सरकार ने भी पहले ही कैविएट दाखिल कर सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि उसका पक्ष जाने बिना कोई आदेश न दिया जाए।
मामला नया नहीं है। बिहार में जातीय गणना की मांग पिछले कई साल से हो रही थी। साल 2018 और साल 2020 में बिहार विधानसभा और विधान परिषद में जातीय गणना का प्रस्ताव पास होने, बिहार समेत देशभर में इसकी शुरुआत के लिए साल 2021 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से बिहार के सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल की मुलाकात, केन्द्र सरकार के इनकार और फिर पिछले साल बिहार कैबिनेट की मंजूरी के बाद राज्य में जातीय गणना को लेकर प्रशिक्षण एवं गणना से जुड़े तमाम कार्य शुरू हो गए थे। पहले चरण का काम 7 जनवरी 2023 से शुरू हुआ था। इसके बाद 15 अप्रैल को दूसरा चरण शुरू हुआ जो 15 मई तक चलना था लेकिन 4 मई को पटना हाईकोर्ट ने इस पर अस्थाई रोक लगा दी थी जिससे यह काम बीच में अटक गया था। ऐसी जानकारी है कि जातीय गणना का ऑफलाइन काम पूरा हो चुका है। यह कुल काम का करीब 80 फीसद है। बचा 20 फीसदी काम डाटा की ऑनलाइन एंट्री का है जिसके 10-12 अगस्त तक पूरा हो जाने की संभावना है।
अब तक एसपी, बीएसपी, आरजेडी और जेडीयू जैसे कुछ क्षेत्रीय दल ही देश में जाति आधारित जनगणना की मांग कर रहे थे। लेकिन जिस तरह यह मामला नया नहीं है, उसी तरह अब यह केवल बिहार तक ही सिमटा नहीं है। देश के मुख्य विपक्षी राजनीतिक दल और अब मुख्य विपक्षी गठबंधन इंडिया की धुरी बनी कांग्रेस ने भी जातीय जनगणना के समर्थन में झंडा उठा लिया है। तमिलनाडु की एमके स्टालिन सरकार और कांग्रेस के दोनों सहयोगी एनसीपी नेता शरद पवार और जेएमएम के हेमंत सोरेन भी जातिगत जनगणना की मांग के साथ हो गए हैं। केन्द्र सरकार की परोक्ष समर्थक मानी जाने वाली बीजेडी भी ओडिशा में इसकी पैरवी कर रही है। वैसे हकीकत तो यह है कि केन्द्र भले इस पर सहमत न हो, लेकिन बिहार की बीजेपी इकाई भी इसका विरोध नहीं कर पा रही है।
कारण क्या है – जरूरी या मजबूरी? शायद दोनों। सामाजिक-आर्थिक नजरिये से देखें तो जातीय जनगणना की कवायद जरूरी दिखती है, राजनीतिक चश्मे से देखें तो यह हर दल की बड़ी सियासी मजबूरी हो गई है। देश ने साल 1872 में पहली बार अपने लोगों की गिनती शुरू की थी। फिर साल 1952 से हमने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति पर अलग-अलग जानकारी एकत्र ही नहीं की, उसे सार्वजनिक भी किया। यही स्थिति धर्म, भाषा और सामाजिक-आर्थिक स्थिति से संबंधित आंकड़ों की है। लेकिन जातिगत जनगणना के आंकड़े साल 1931 के बाद से जारी नहीं किए गए हैं यानी देश के जातीय अंकगणित की हमारी सारी समझ लगभग 90 साल पहले हुई गिनती पर आधारित है। 1931 की जनगणना में ओबीसी की जनसंख्या 52 फीसद होने का अनुमान लगाया गया था। हम नहीं जानते कि आज यह क्या है। विपक्षी दलों का कहना है कि यह स्वीकार्य नहीं है। खासकर जब जाति का लाभ कई कल्याणकारी योजनाओं का एक महत्वपूर्ण आधार है और इस बात की पर्याप्त आशंका है कि अपर्याप्त आंकड़ों के कारण लाभार्थियों का एक बड़ा वर्ग सरकारी सहायता से वंचित हो रहा हो। विपक्षी दलों का कहना है कि इसके लिए 27 फीसद ओबीसी कोटा को संशोधित करने की जरूरत है जिसके लिए जातीय जनगणना आवश्यक है।
दिलचस्प बात यह है कि आज विपक्ष में जो कांग्रेस इस मांग के लिए सबसे मुखर दिख रही है, उसके शासनकाल में ही साल 2011 में भारत की अबतक की आखिरी जनगणना हुई थी। इसमें जातिगत जनगणना को शामिल तो किया गया, लेकिन उसका आंकड़ा जारी नहीं किया गया। अब वही कांग्रेस केन्द्र की बीजेपी सरकार को साल 2011 की जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी करने या इसे नए सिरे से कराने की चुनौती दे रही है। दूसरी तरफ तब विपक्ष में शामिल बीजेपी जोर-शोर से जातीय गणना के आंकड़े जारी करने की मांग करती थी, लेकिन अब सत्ता में आने के बाद उसने भी इस मुद्दे पर यू-टर्न ले लिया है। केन्द्र सरकार ने सिर्फ पिछले आंकड़े जारी करने से ही नहीं, बल्कि 2021 की जनगणना में जाति की गणना करने से भी इनकार कर दिया है। इसके बजाय उसने राज्य सरकारों को लिखा है कि वे चाहें तो जातिगत जनगणना करा लें। चूंकि जनगणना संविधान की संघ सूची का विषय है, इसलिए राज्य सरकारें इसे आयोजित नहीं कर सकती हैं। राज्य सरकारें केवल एक ही काम कर सकती हैं, वह है जातियों का सर्वेक्षण। कर्नाटक सरकार पहले ही ऐसा सर्वेक्षण कर चुकी है, अब बिहार की नीतीश सरकार कर रही है और जिस तरह पिछड़े वर्ग के नेताओं पर जातियों का दबाव बढ़ रहा है उसे देखते हुए पूरी संभावना है कि आगे और राज्य सरकारें भी ऐसा करेंगी।
दरअसल यहीं से जरूरत वाला मामला खत्म हो जाता है और राजनीतिक मजबूरी का किस्सा शुरू होता है। जिस तरह से इस मांग ने हालिया कर्नाटक चुनाव में पिछड़ी जाति के मतदाताओं की गोलबंदी में अहम भूमिका निभाई, उससे यह बात तय हो गई है कि साल 2024 में यह एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बनेगा। ‘जितनी आबादी, उतना हक’ के नारे के साथ कांग्रेस मैदान में उतर भी गई है। यह कांशीराम के नारे ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का ही नया रूप है। उस नारे की भी समाजवादी वंशावली है क्योंकि संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के संघर्ष के दौर में राम मनोहर लोहिया ने ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’ का नारा गढ़ा था। आज जातीय गणना के नाम पर विपक्षी दलों की ओर से आरक्षण की सीमा 50 फीसद से भी बढ़ाने की मांग की जा रही है और सामाजिक न्याय के तथाकथित लक्ष्य के लिए बने इंडिया गठबंधन की छतरी के नीचे कांग्रेस समेत डीएमके, एसपी, आरजेडी, जेडीयू जैसे 26 दल इकट्ठे हो गए हैं। संभव है आगे चलकर मौका मिलने पर गठबंधन इस ओर ईमानदार प्रयास भी करे, लेकिन फिलहाल उस अवसर की प्राप्ति की दिशा में यह बीजेपी के ओबीसी वोटबैंक में सेंध लगाने की रणनीति दिखती है।
विपक्ष को उम्मीद है कि जातीय जनगणना होने से उच्च जाति के प्रभुत्व वाले उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्यों में बीजेपी द्वारा बनाए गए गैर-प्रमुख ओबीसी जातियों वाले गठबंधन को नुकसान हो सकता है। अगर ओबीसी समुदायों की सही संख्या सामने आती है, तो आरक्षण के विरोध के स्वर भी मंद पड़ सकते हैं। अधिक आरक्षण की मांग से वह जातियों को कथित रूप से जागृत करने के साथ ही हिंदुत्व के नाम पर विभिन्न जातियों को एकजुट करने के बीजेपी के प्रयास को थाम सकता है जिससे वो भगवा लहर रोकी जा सकती है, जो पिछले दो चुनावों से बीजेपी को सत्ता के शीर्ष पर पहुंचा रही है। आज देश के ज्यादातर राज्यों में या तो बीजेपी की पूर्ण बहुमत वाली या अन्य दलों के साथ साझा सरकारें हैं। इसलिए विपक्ष के पास बीजेपी के हिन्दू वोट बैंक को तोड़ने के लिए पिछड़ी जातियों का ही सहारा है। ये पिछड़ी जातियां हिन्दू आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा मानी जाती हैं और अगर अल्पसंख्यकों को जोड़ दिया जाए तो यह देश की आबादी का 80 फीसदी हिस्सा बनता है। इसलिए एक तरह से यह हिंदुत्व के नाम पर इकट्ठा पिछड़ी जातियों को बीजेपी से अलग करने की ही रणनीति है। बीजेपी को भी इस बात का एहसास है। लेकिन वो खुलकर जातीय गणना का समर्थन भी नहीं कर सकती क्योंकि इससे उसके सवर्ण वोटरों के नाराज होने का खतरा है। इसलिए उसने इस जरूरत से इनकार करने के बदले अपनी नीति में बदलाव लाकर अति-पिछड़े और पिछड़े की राजनीति को जगह देनी शुरू कर दी है। यहां तक कि बीजेपी ने पसमांदा मुस्लिमों को भी लक्ष्य कर उदारवादी हिंदू छवि के साथ इससे निपटने की तैयारी शुरू कर दी है।
राजनीतिक नफे-नुकसान से इतर इस बात में कोई दो-राय नहीं कि जातिगत जनगणना भारतीय राजनीति में जाति के महत्व को बढ़ाएगी। इस मुद्दे पर देश की आम जनता के एक वर्ग में यह भी डर है कि आगे चलकर धार्मिक कट्टरता की ही तरह जातीय तुष्टीकरण भी हमारी एकता और अखंडता के लिए खतरनाक हो सकता है। जातीय जनगणना के आंकड़ों में आय, धन, संसाधनों, नौकरियों और शिक्षा के अवसरों के वितरण की वर्तमान स्थिति पर सटीक जानकारी मिलेगी। बेशक यह योजनाओं और नीति-निर्माण में सहायक होगी लेकिन इसके कारण पहले से लाभान्वित हो रहीं अन्य जातियों को अपना हिस्सा गंवाना पड़ सकता है जिससे देश में जातीय संघर्ष के भी प्रबल होने की आशंका है। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद भड़की हिंसा के जख्म देश के लोग अब भी नहीं भूले हैं। दूसरी तरफ यह भी तथ्य है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने जो किया उससे बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और ओडिशा सहित देश के विभिन्न हिस्सों में कई ओबीसी मुख्यमंत्री उभरे। सबसे प्रमुख राजनीतिक दल होने के नाते तब कांग्रेस को इसके चुनावी नुकसान झेलने पड़े थे। वर्तमान में अगर मंडल राजनीति के दिन फिर से लौटते हैं तो बीजेपी खुद को उस स्थिति में पाएगी। लेकिन क्या मंडल 2.0 का जोर विपक्षी पार्टियों के बीच इस हद तक तालमेल बिठा पाएगा कि वे बीजेपी के खिलाफ एकजुट हो सकें, यह बड़ा सवाल रहेगा।
-भारत एक्सप्रेस
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