कर्नाटक ने अपना फैसला सुना दिया है। प्रदेश की जनता ने हर पांच साल में राज बदलने का रिवाज बरकरार रखते हुए कांग्रेस को राज्य की सत्ता सौंप दी है। और केवल सत्ता ही नहीं सौंपी है बल्कि बड़ा बहुमत देते हुए 2018 वाली स्थिति की गुंजाइश भी खत्म कर दी है। पिछले चुनाव में कांग्रेस ढाई फीसदी ज्यादा वोट लाकर भी बीजेपी से 24 सीटें पीछे रह गई थी और फिर जेडीएस विधायकों के दलबदल ने उसे सत्ता से भी बेदखल कर दिया था। लेकिन इस बार कांग्रेस जीत के फासले को बढ़ाकर आठ फीसद तक ले गई है और इसका नतीजा साफ दिखाई दे रहा है। बीजेपी केवल करावल तटीय क्षेत्र में कांग्रेस से आगे निकल पाई। महाराष्ट्र-कर्नाटक रीजन और बेंगलुरु मेट्रोपोलियन क्षेत्र जैसे उसके मजबूत गढ़ भी कांग्रेस की आंधी में ढह गए। केवल बीजेपी ही नहीं, कांग्रेस ने प्रदेश की प्रमुख क्षेत्रीय पार्टी जेडीएस को उसके ही गढ़ ओल्ड मैसूर क्षेत्र में पटखनी दे दी है। इस लिहाज से इस चुनाव में कांग्रेस अकेली ऐसी पार्टी बनकर उभरी है जिसका प्रदेश के सभी छह क्षेत्रों में जनाधार बरकरार है। 19 रैलियां और 6 रोड-शो में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का करिश्मा भी बीजेपी की डूबती नैया को नहीं बचा पाया। बोम्मई सरकार के 12 मंत्री अपनी सीट हार गए। 2014 में प्रधानमंत्री पद पर नरेन्द्र मोदी की ताजपोशी के बाद किसी चुनाव में कांग्रेस की ये सबसे दमदार और सबसे चमकदार जीत है। भारी सफलता से गदगद कांग्रेस इसे भारत जोड़ो यात्रा से जोड़कर राहुल गांधी की जीत और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हार का नैरेटिव बनाने में जुट गई है।
बरहहाल इस बंपर जीत के बाद कांग्रेस ऐसे मुकाम पर खड़ी है जहां उसे न जेडीएस की बैसाखी की जरूरत है, न बीजेपी के ‘ऑपरेशन कमल’ का खतरा है। कांग्रेस खुद कुल्हाड़ी ढूंढ़कर उस पर जाकर पैर मार दे तो अलग बात है। इस दृष्टि से मुख्यमंत्री का सवाल बेहद महत्वपूर्ण होगा क्योंकि अगर कांग्रेस इस पर सर्वसम्मति बना लेती है तो नई सरकार की राह निष्कंटक हो जाएगी। वैसे चुनाव प्रचार के दौरान इस पद के दोनों दावेदारों – सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार ने जैसी एकजुटता दिखाई है उसके बाद ऐसा नहीं लगता कि दोनों सीएम की कुर्सी के लिए आमने-सामने आएंगे। कई वजहों से पलड़ा सिद्धारमैया का भारी दिख रहा है और इसके पीछे डीके शिवकुमार से जुड़ी मजबूरियां ही उनके आड़े आ सकती हैं। शिवकुमार वोक्कालिगा समुदाय से आते हैं और उन्हें मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले लिंगायत समुदाय को नाराज करने का जोखिम नहीं उठाएगी। दूसरी बात शिवकुमार भ्रष्टाचार के आरोप में जेल भी जा चुके हैं और फिलहाल जमानत पर बाहर हैं। ऐसे में पूरे चुनाव प्रचार में बोम्मई सरकार को भ्रष्टाचार के घेरे में लेने के बाद कांग्रेस के लिए शिवकुमार पर दांव लगाना समझदारी नहीं होगी।
कांग्रेस से ये समझदारी अपेक्षित भी है क्योंकि कर्नाटक चुनाव में उसके तरकश से जो तीर निकला, वो निशाने पर लगा। इसमें मैं कांग्रेस के घोषणा पत्र में बजरंग दल पर बैन लगाने के वादे को भी शामिल करूंगा जिसे बहुत लोग जीत के जबड़े से हार निकाल लाने की कांग्रेस की हाल के दिनों की आदत से जोड़ रहे थे। लेकिन असलियत कुछ और थी। सियासत के मोदी राज में हमने पहली बार कांग्रेस को किसी चुनाव का एजेंडा तय करते देखा। अक्सर ये काम बीजेपी करती है और कांग्रेस उसमें फंस भी जाया करती है। लेकिन इस बार बीजेपी कांग्रेस के बिछाए जाल में फंस गई। कांग्रेस ने पूरा गुणा-भाग लगाकर धार्मिक ध्रुवीकरण का ये दांव खेला और नतीजों ने इसे साबित भी कर दिया। पहले कर्नाटक का जो मुस्लिम वोट कांग्रेस और जेडीएस में बंट जाया करता था, वो इस बार लगभग एकमुश्त कांग्रेस की झोली में गिरा। कांग्रेस को इसका फायदा हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र समेत उन तमाम सीटों पर मिला जहां नजदीकी मुकाबलों में वो अक्सर हार जाया करती थी। केवल मुसलमान वोटर ही नहीं, इस चुनाव में लिंगायत वोट भी बड़ी संख्या में कांग्रेस के पक्ष में लामबंद हुए हैं। भले चुनाव से पहले बीजेपी से कांग्रेस में आए लिंगायत नेता जगदीश शेट्टार अपनी सीट नहीं बचा पाए, लेकिन बीजेपी की तुलना में कांग्रेस के टिकट पर जीतने वाले लिंगायत नेताओं की संख्या कहीं ज्यादा रही।
लेकिन इतनी बड़ी जीत एक-दो वजहों से नहीं मिलती। कांग्रेस ने और भी बहुत कुछ सही किया और रही-सही कसर बोम्मई सरकार की निष्क्रियता ने पूरी कर दी। कई वर्षों के बाद कांग्रेस एक संगठित सियासी दल के रूप में चुनाव मैदान में उतरी थी। सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के संयुक्त नेतृत्व में प्रदेश इकाई और खरगे एवं गांधी परिवार की अगुवाई में केन्द्रीय नेतृत्व बार-बार एक-दूसरे की ताकत बनता रहा जबकि दूसरी ओर बीजेपी चुनाव खत्म होने तक अपने अंतर्कलह से नहीं उबर सकी। नतीजे बता रहे हैं कि पिछड़ों के लिए जातिगत गणना और गरीबों के लिए पांच गारंटियों जैसे सोशल इंजीनियरिंग की कांग्रेस की पहल भी रंग लाई है। चुनाव प्रचार शुरू करने से लेकर टिकट बांटने तक में कांग्रेस ने बीजेपी पर जो बढ़त बनाई उसे चुनाव खत्म होने तक कायम रखा।
कर्नाटक में ईवीएम पर गिनती शुरू होने से पहले ही जिस तरह कांग्रेस समर्थकों ने दिल्ली से बेंगलुरु तक जश्न मनाना शुरू कर दिया था वो भी बदली कांग्रेस के बढ़ते आत्मविश्वास को बताता है। अब इस जीत के बाद कांग्रेस के चार राज्यों में मुख्यमंत्री हो जाएंगे। तीन राज्यों में वो सरकार चला रहे गठबंधन का हिस्सा भी है। लेकिन इसके आगे क्या? निश्चित रूप से यह जीत कांग्रेस कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाएगी। इससे विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस का रुतबा भी बढ़ेगा। जाहिर तौर पर कांग्रेस इन नतीजों को 2024 के लोकसभा चुनाव से जोड़कर देखा जाना पसंद करेगी। हालांकि ये तुलना बेमानी हो चुकी है क्योंकि विधान सभा और लोक सभा के चुनावों में अब लगभग नियमित रूप से एक जैसा जनादेश देखने को नहीं मिलता है। वैसे भी अभी 2023 की लड़ाई पूरी नहीं हुई है। इस साल तेलंगाना समेत हिंदी पट्टी के तीन राज्यों – राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का इम्तिहान होना है। इनमें से दो राज्यों में कांग्रेस की सरकार है जबकि मध्यप्रदेश में सरकार बनाने के बाद वो उसे बचा नहीं पाई थी। तो ऐसे में कांग्रेस के लिए चुनौती कहीं ज्यादा है। वैसे भी जब बात हिंदी पट्टी की आती है तो चुनावी बिसात पर बीजेपी का पलड़ा कांग्रेस पर भारी दिखने लगता है। कर्नाटक में जीत के बाद अब कांग्रेस के पास उस परसेप्सन को बदलने का मौका होगा।
बीजेपी के नजरिए से इस हार में कई बड़े सबक हैं। चुनाव-दर-चुनाव बीजेपी अपनी जीत के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करिश्मे पर जरूरत से ज्यादा निर्भर हो चुकी है। चुनाव में जीत के बाद यही बात राज्यों में उसके कमजोर नेतृत्व पर भी लागू होती है। ऐसे में जब चुनाव में स्थानीय मुद्दों पर लड़ाई होती है तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मेहनत भी बीजेपी के काम आने में कम पड़ जाती है। कर्नाटक का चुनाव इसकी ताजी मिसाल है।
-भारत एक्सप्रेस
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