Gurmeet Ram Rahim Furlough: जब भी किसी अपराधी का अपराध सिद्ध हो जाता है तो उसे अदालत उचित सज़ा सुनाकर जेल भेज देती है। जेल में हर अपराधी, जो दोषी करार दिया जाने के बाद सज़ा काटता है उसे जेल के नियम के तहत अपनी सज़ा पूरी करनी पड़ती है। अपराधी चाहे पेशेवर गुंडा हो, कोई आम आदमी हो जिसके द्वारा किसी विशेष परिस्थिति में अपराध हुआ हो या फिर कोई रसूखदार व्यक्ति हो, क़ानून सबके लिए एक समान है। परंतु क्या ऐसा वास्तव में होता है? क्या हमारी जेलों में सभी के साथ एक जैसा व्यवहार होता है? रसूखदार क़ैदियों के संदर्भ में इस सवाल का जवाब प्रायःआपको ‘नहीं’ में ही मिलेगा।ऐसा क्या कारण है कि जेल के नियम और कायदों को तोड़-मरोड़ कर रसूखदार क़ैदियों को ‘विशेष सुविधाएँ’ दी जाती है? आए दिन हमें ऐसी खबरें पढ़ने को मिलती हैं ।
जब कभी रसूखदार अपराधी को अदालत से सजा मिलती है तो आम लोगों के मन में यही शक रहता है कि जेल में जा कर भी वो व्यक्ति ऐशो-आराम की ज़िंदगी ही जियेगा। हद तो तब हो जाती है जब इस प्रभावशाली व्यक्ति को अपनी सज़ा के दौरान ही कई बार पैरोल या फरलो मिल जाती है। रसूखदार क़ैदियों को दिये जाने वाले इस विशेष व्यवहार पर जब राजनैतिक तड़का लगता है तो यह व्यवहार कई गुना बढ़ जाता है। यदि यह रसूखदार क़ैदी किसी ऐसे धार्मिक पंथ का मुखिया हो जिसके लाखों या करोड़ों भक्त हों, तो राज्य सरकार हर चुनाव से पहले उसे पैरोल या फरलो पर छोड़ने में देर नहीं करती।डील यही होती है कि तुम अपने चेलों से हमें वोट दिलवओ और बदले में जेल के भीतर और बाहर मौज मारो।
ताज़ा मामला डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख बाबा गुरमीत राम रहीम का है। डेरा प्रमुख को एक हत्या और दो बलात्कार के मामलों में अदालत द्वारा दोषी पाया गया है। परंतु उल्लेखनीय है कि बीते वर्षों में यह अपराधी लगभग 300 से अधिक दिनों तक जेल के बाहर रहा। ग़ौरतलब है कि जिस अपराधी पर इतने संगीन आरोप लगे हों और वो दोषी सिद्ध हो गया हो उस पर बार-बार इतनी मेहरबानी क्यों की जा रही है? डेरा प्रमुख के 6 करोड़ से ज़्यादा भक्त हैं, जो राम -रहीम के एक इशारे पर कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। ऐसे में यदि इनके डेरे का झुकाव किसी एक राजनैतिक दल के साथ हो तो उस दल को इनके अनुयाइओं का वोट मिलना तो तय ही माना जाएगा। इसीलिए कई राजनैतिक दल इनका आशीर्वाद लेने की क़तार में खड़े रहते हैं। यहाँ ये चर्चा करना बेमानी है कि इतना सब काला सच सामने आने के बाद भी उनके चेलों की आस्था उनमें कैसे बनी रहती है?
इस संदर्भ में यहाँ पैरोल और फरलो को समझना ज़रूरी होगा। जेल नियम के तहत एक साल में अधिकतम 100 दिन तक किसी भी क़ैदी को जेल से बाहर रहने दिया जा सकता है। इसमें 30 दिन की फरलो और 70 दिनका पैरोल शामिल है। जो भी राजनैतिक पार्टी सत्ता में होती है वो हर पार्टी अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए इस प्रावधान का दुरुपयोग करती आई है। आपको ऐसे कई उदाहरण मिल जाएँगे जहां सत्ताधारी दल ने ऐसे रसूखदार क़ैदियों के लिए विशेष कदम उठा कर उसे अधिक से अधिक समय तक जेल से बाहर रखा है। ऐसे हालात में, ऐसे किसी भी क़ैदी, जिसे कैद-ए-बामशक्कत की सज़ा सुनाई गई हो, उससे आप जेल में किसी भी तरह के श्रम की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? जब-जब ऐसे दुर्दांत अपराधियों को जेल के नियम का दुरुपयोग कर जेल के बाहर भेजा जाता है तब तब उस अपराधी से पीड़ित रहे परिवार ख़ुद को बेबस महसूस करते हैं।
हाल ही में एक टीवी डिबेट में बोलते हुए जम्मू कश्मीर के पूर्व डीजीपी डॉ एस पी वैद ने गुरमीत राम रहीम के बार-बार पैरोल या फरलो पर बाहर आने को एक ‘क्लासिकल केस’ बताया। इतना ही नहीं उनके अनुसार, “यह देश का अकेला ऐसा मामला है जहां एक दुर्दांत अपराधी को इतनी बार जेल से बाहर रखा गया है। ऐसे मामले को तो किसी विश्वविद्यालय या पुलिस अनुसंधान विभाग द्वारा एक ‘केस स्टडी’ बनाया जाना चाहिए। जहां ये अध्ययनहो कि कैसे इस मामले में क़ानून की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। इस रसूखदार दुर्दांत अपराधी को हर राजनैतिक दल का समर्थन प्राप्त है। इसलिए ये खुलेआम देश के क़ानून का मज़ाक़ बना रहा है। यदि गुरमीत राम रहीम द्वारा कोई भी पीड़ित व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाए तो इसे मिली इस विशेष सुविधा को तुरंत रद्द किया जा सकता है। गुरमीत राम रहीम जैसे रसूखदार क़ैदियों को चुनावों के आसपास ही पैरोल और फरलो क्यों मिलती है इस बात पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है।”
सवाल उठता है कि क्या देश का क़ानून मामूली क़ैदियों और रसूखदार क़ैदियों के लिए अलग है? क्या दोनों का अपराध मापने के दो मापदंड हैं। इस पर क़ानून के जानकारों का कहना है कि देश की सर्वोच्च अदालत ने ऐसे कई फ़ैसले सुनाए हैं जहां पर पैरोल और फरलो दिये जाने के लिए स्पष्ट निर्देश दिये गये हैं कि किन-किन परिस्थितियों में क़ैदियों को पैरोल और फरलो दिया जा सकता। इतने अधिक समय के लिए पैरोल और फरलो दिये जाने से क़ैदी को दी गई सज़ा के मायने ही कम हो जाते हैं। ऐसा सिर्फ़ इसलिए क्योंकि कोई रसूखदार क़ैदी बलात्कार और हत्या जैसे संगीन अपराध करने के बावजूद अपने राजनैतिक संपर्कों के चलते जेल प्रशासन को अपना ‘अच्छा चाल चलन’ दिखाने में कामयाब हो जाता है।
*लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के संपादक हैं।
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