उत्तराखंड में भगवान श्री बद्रीविशाल जी के शरद कालीन पूजा स्थल और आदि शंकराचार्य जी की तपस्थली ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) नगर में विगत एक महीने से बड़ी लंबी-लंबी दरारें आ गई थीं, जो निरंतर दिन प्रतिदिन और गहरी व लंबी होती जा रही हैं. वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों और धार्मिक लोगों के अनुसार, बेतरतीब ढंग से हुए ‘विकास’ और हर वर्ष बढ़ते पर्यटकों के सैलाब को इसका कारण माना जा सकता है.
जोशीमठ नगर बद्रीनाथ धाम से 45 किलोमीटर पहले ही अलकनंदा नदी के किनारे वाले, ऊंचे तेज ढलान वाले पहाड़ पर स्थित है. यहां पर फौजी छावनी और नागरिक मिलाकर 50,000 के लगभग निवासी रहते हैं. साल के छह महीने की गर्मियों के दौरान ये संख्या पर्यटकों के कारण दुगनी हो जाती है.
बद्रीनाथ धाम में दर्शनार्थी तो आते ही हैं. इसके साथ ही विश्व प्रसिद्ध औली जाने वाले पर्यटक भी यहीं आते हैं. जो कि बद्रीनाथ से करीब 50 किलोमीटर दूर है. जोशीमठ से मात्र 4 किलोमीटर पैदल चढ़ कर औली पहुंचा जा सकता है. इसलिए औली जाने वाले ज्यादातर पर्यटक भी रात्रि विश्राम जोशीमठ में ही करते हैं.
यहां से बद्रीनाथ धाम जाने हेतु 12 किलोमीटर नीचे की ओर विष्णु गंगा और अलकनंदा के मिलन विष्णु प्रयाग तक उतरना पड़ता है. जहां पर विष्णु प्रयाग जल विद्युत परियोजना (जेपी ग्रुप) का निर्माण कार्य चल रहा है. जिसके कारण बिजली बनाने हेतु बड़ी-बड़ी सुरंगे कई वर्षों से बनाई जा रही हैं. जिनमें से अधिकतर बन चुकी हैं. जोशीमठ शहर के नीचे दरकने और दरारें आने की मुख्य वजह ये सुरंगें ही बताई जा रही हैं. क्योंकि बारूद से विस्फोट करके ही ये सुरंग बनाई जाती है. इस कारण इन पहाड़ में दरारें आना स्वभाविक है.
ये कार्य विगत चार दशकों से पूरे हिमालय, विशेषकर गढ़वाल और कुमाऊं के हिमालय क्षेत्र में हो रहा है. इसलिये बिजली बनाने हेतु कई सौ परियोजनाएं यहां चल रही है. मैदानों को दी जाने वाली बिजली बनाने के लिए कई दशकों से यहां अंधाधुंध व बेतरतीब ढंग से देवात्मा हिमालय में सुरंगों, सड़कों और पुलों का निर्माण किया गया है. जिसके कारण यहां की वन संपदा भी आधी रह गई है.
अयोध्या से जुड़े राम भक्त संदीप जी द्वारा साझी की गई जानकारी के अनुसार, उत्तराखंड स्थित बद्री, केदार, यमुनोत्री व गंगोत्री धामों के दर्शन करके इसी जन्म में मोक्ष पाने की सस्ती लालसा के पिपासुओं की भीड़ और नव धनाढ्यों की पहाड़ों में मौज मस्ती भी यहां के प्राकृतिक संसाधनों पर भारी पड़ी है. जिसके कारण समूचा गढ़वाल हिमालय क्षेत्र तेजी से नष्ट हो रहा है.
जबकि ये देवात्मा हिमालय का सर्वाधिक पवित्र क्षेत्र माना जाता है. जिसकी भौगोलिक स्थिति का स्कंध पुराण में भी विस्तृत वर्णन मिलता है. यहां कदम-कदम पर व मोड़-मोड़ पर हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों के आश्रम और पौराणिक देवस्थान स्थित हैं. इन्हीं पर्वतों से गंगा व यमुना जैसी असंख्य पवित्र नदियां भी निकली हैं.
ऐसे परम पवित्र पावन रमणीक हरे-भरे प्रदेश का, पर्यावरणविदों के लगातार विरोध के बावजूद, बिजली बनाने और पर्यटन हेतु वर्तमान बीजेपी सरकार सहित सभी पूर्ववर्ती सरकारों ने खूब दोहन किया है. जिसके कारण केदारनाथ त्रासदी जैसी घटनाएं घटित हो चुकी हैं और आगे और भी अधिक भयावह विनाश की खबरें आएंगी.
क्योंकि जब देवताओं की निवास स्थली देवभूमि हिमालय मी पर्यटन के नाम पर अंडा, मांस, मदिरा का व्यापक प्रयोग और ना जाने कैसे-कैसे अपराध मनुष्य करेगा तो देवता तो रूष्ट होंगे ही.
हर वर्ष गर्मियों में उत्तराखंड दर्शन और सैर सपाटे हेतु घुमक्कड़ों की भीड़ यहां इस कदर होती है कि पहाड़ों में गाड़ियों का कई किलोमीटर तक लंबा-लंबा जाम लगता है. इन्हीं पर्यटकों के कारण यहां का परिस्थिति तंत्र चरमरा जाता है. यहां के हर शहर और गांव में बढ़ती भीड़ हेतु होटल और गेस्ट हाउसों की बाढ़ सी आई हुई है.
इस कारण परम पवित्र गंगा, यमुना व अलकनंदा जैसी असंख्य पवित्र नदियों में पर्यटकों का सारा मल-मूत्र और कचरा बहाया जाता है. जिसके कारण गंगा निरंतर मैली और मैली होती जा रही है. प्रश्न है कि मैदानों की बिजली की मांग तो निरंतर बढ़ती जाएगी तो इसका खामियाजा पहाड़ क्यों भरे? इसके लिए सरकारों को और बहुत से विकल्पों को आगे तलाशना होगा. क्यों ना यहां भी बढ़ती भीड़ हेतु कश्मीर घाटी के पवित्र अमरनाथ धाम के दर्शन की ही तरह दर्शनार्थियों को सीमित मात्रा में परमिट देने का सिस्टम विकसित किया जाए? हर वर्ष गर्मियों उत्तराखंड जाने वालों के नाम पते ऋषिकेश में नोट करने से ही बात नहीं बनेगी. बल्कि सख्ती से और सात्विक भावना से देवात्मा हिमालय का ख्याल हम सबको और सरकार को मिलकर रखना होगा.
इस विषय में सबसे खास बात ये है कि सरकार समूचे हिमालय क्षेत्र हेतु एक खास दीर्घकालीन योजना बनाए. जिसमें देश के जाने-माने पर्यावरणविदों, इंजीनियर और वैज्ञानिकों के अनुभवों और सलाहों को खास तवज्जो दी जाए. तभी हिमालय का परिस्थिति तंत्र संभलेगा नहीं तो केदारनाथ त्रासदी और अभी हाल की जोशीमठ जैसी घटनाएं निरंतर और विकराल रूप में आएंगी ही आएंगी.
दिल्ली विश्वविद्यालय से सेवानिवृत प्रोफेसर एवं वर्तमान में भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी के एमिरेट्स साइंटिस्ट, प्रोफेसर धीरज मोहन बैनर्जी के अनुसार “कई साल पहले भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने एक जांच की थी. वह रिपोर्ट भी बोलती है कि यह क्षेत्र कितना अस्थिर है. भले ही सरकार ने वैज्ञानिकों या शिक्षाविदों को गंभीरता से नहीं लिया, कम से कम उसे भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट पर ध्यान देना चाहिए था. इस क्षेत्र में बेतरतीब ‘विकास’ के नाम पर हो रहे सभी निर्माण कार्यों पर रोक लगनी चाहिए.”
चिंता की बात यह है कि सरकार चाहे यूपीए की हो या एनडीए की वो कभी पर्यावरणवादियों की सलाह को महत्व नहीं देती. पर्यावरण के नाम पर मंत्रालय, एनजीटी और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन सब कागजी खानापूर्ति करने के लिए हैं. कॉर्पोरेट घरानों के प्रभाव में और उनकी हवस को पूरा करने के लिए सारे नियम और कानून ताक पर रख दिये जाते हैं. पहाड़ हों, जंगल हों, नदी हो या समुद्र का तटीय प्रदेश, हर ओर विनाश का ये तांडव जारी है. मोदी सरकार द्वारा शुरू किया गया, उत्तराखण्ड के चार धाम को जोड़ने वाली सड़कों का प्रस्तावित चौड़ीकरण भविष्य में इससे भी भयंकर त्रासदी लाएगा. पर क्या कोई सुनेगा?
देवताओं के कोप से बचाने वाले खुद देवता ही हैं. वो हमारी साधना से खुश होकर हमें बहुत कुछ देते भी हैं और कुपित होकर बहुत कुछ ले भी लेते हैं. संदीप जी जैसे भक्तों, प्रोफेसर बनर्जी जैसे वैज्ञानिकों, भौगोलिक विशेषज्ञों और सारे जोशीमठ वासियों की पीड़ा हम सबकी पीड़ा है. इसलिए ऐसे संकट में सभी को एकजुट हो कर इस समस्या का हल निकालना चाहिए.
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