2024 के लोकसभा चुनावों के बाद होने वाले कई विधान सभा के चुनावों में केंद्रीय चुनाव आयोग की भूमिका पर कई सवाल उठे हैं। परंतु चुनाव आयोग अपने फ़ैसलों को बदलना तो दूर, अपनी प्रतिक्रिया भी नहीं दी। विवादों में घिरी ‘ईवीएम’ हो या चुनावों के बाद पड़ने वाले मतों की संख्या, चुनाव आयोग हमेशा ही चर्चा में रहा। परंतु हाल ही में चुनाव आयोग ने आने वाले विधान सभा के चुनावों में कुछ ऐसे निर्णय लिये जिन्हें कड़ी निंदा का सामना करना पड़ा। ऐसे में यह देखना ज़रूरी है कि केंद्रीय चुनाव आयोग जिसकी कार्यशैली पर कई सवाल उठे, वह इन चुनाव के चलते लिए गये विवादित निर्णयों को कैसे सार्थक करेगा?
देश का आम चुनाव हो या विधान सभा के चुनाव, मतदाता इसे हमेशा से ही एक पर्व की तरह मनाता है। इसमें हर राजनैतिक दल अपने अपने वोटरों के पास अगले पाँच साल के लिए उनके मत की अपेक्षा में उन्हें बड़े-बड़े वादे देकर लुभाने की कोशिश करते हैं। परंतु देश की जनता भी यह जान चुकी है कि दल चाहे कोई भी हो, राजनैतिक वादे सभी दल ऐसे करते हैं कि मानो जनता उनके लिए पूजनीय है और ये नेता उनके लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। परंतु क्या वास्तव में ऐसा होता है कि चुनावी वादे पूरे किए जाते हैं? क्यों नेताओं को केवल चुनावों के समय ही जनता की याद आती है? इन वादों को लेकर भी कई राजनैतिक दल अपने-अपने नेताओं को चेतावनी दे रहे हैं कि वे वही वादे करें जो पूरे किए जा सकते हैं। ख़ैर ये तो रही नेताओं की बात। आज जिस मुद्दे पर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया जा रहा है वो है चुनावों में पारदर्शिता।
सरकार चाहे किसी भी दल की क्यों न बने। चुनावों का आयोजन करने वाली सर्वोच्च संविधानिक संस्था केंद्रीय चुनाव आयोग इन चुनावों को कितनी पारदर्शिता से कराती है इसकी बात बीते कई महीनों से सभी कर रहे हैं। चुनाव आयोग की प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि हर दल को पूरा मौक़ा दिया जाए और निर्णय देश की जनता के हाथों में छोड़ दिया जाए। बीते कुछ महीनों में चुनाव आयोग पर, पहले ईवीएम को लेकर और फिर वीवीपैट को लेकर काफ़ी विवाद रहा। हर विपक्षी दल ने एक सुर में यह आवाज़ लगाई कि देश से ईवीएम को हटा कर बैलट पेपर पर ही चुनाव कराया जाए। परंतु देश की शीर्ष अदालत ने चुनाव आयोग को निर्देश देते हुए अधिक सावधानी बरतने को कहा और ईवीएम को जारी रखा।
ताज़ा मामला चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित तारीख़ों को बदलने को लेकर हुआ। चुनाव आयोग ने यूपी, पंजाब और केरल की विधानसभा सीटों के उपचुनाव के लिए तारीख़ों को बदलने का निर्णय लिया है। ग़ौरतलब है कि तारीख़ बदलने का काम पहली बार नहीं हुआ है, बल्कि एक ही साल में तीन बार ऐसा निर्णय लिया गया है। एक बार मतगणना की तारीख़ बदली गई तो दो बार मतदान की तारीख़ बदली गई। तारीख़ बदलने से मतदान और परिणामों पर क्या असर पड़ेगा यह तो एक अलग विषय है। परंतु चुनाव की तारीख़ घोषित करने के बाद उसे बदलना, मतदाता के मन में कई तरह के सवाल उठाता है।
केंद्रीय चुनाव आयोग एक बहुत बड़ी संस्था है जिसका एकमात्र लक्ष्य देश में निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराना है। जब भी चुनावों की तारीख़ें घोषित की जाती हैं तो उसके पीछे एक कड़ा अभ्यास होता है। जैसे कि चुनाव की तारीख़ पर स्कूल के इम्तिहान न हों। यदि ऐसा होता है तो मतदान के लिए स्कूल उपलब्ध नहीं हो सकते। न ही इन तारीख़ों पर चुनाव ड्यूटी के लिए अध्यापक व अन्य स्कूली स्टाफ़ उपलब्ध हो सकता है। जिन तारीख़ों पर चुनाव होने हैं उन दिनों में कोई त्योहार या पर्व न आते हों। ऐसा होने से भी मतदान की प्रक्रिया पर असर पड़ सकता है। चुनाव की तारीख़ों को तय करने से पहले ऐसे कई पहलू होते हैं जिनका संज्ञान लिया जाता है।
यदि चुनाव आयोग एक बार मतदान की तारीख़ों की घोषणा कर देता है तो उसमें बदलाव की गुंजाइश केवल अप्रिय घटनाओं के चलते ही हो सकती है। यदि फिर भी चुनाव आयोग घोषणा के बाद तारीख़ों में बदलाव करता है तो इसका मतलब यह हुआ कि चुनाव आयोग तारीखों की घोषणा से पहले इन सब बातों पर समग्रता से विचार नहीं हुआ। इसके अलावा क्या राज्यों के निर्वाचन अधिकारी केंद्रीय चुनाव आयोग को क्षेत्र की धार्मिक सांस्कृतिक परंपरा की सही जानकारी नहीं देते? यदि त्योहारों की बात करें तो किसी भी धर्म का कोई भी ऐसा पर्व नहीं है, जिसकी तिथि पहले से तय नहीं होती। तो क्या चुनाव आयोग सभी धर्मों के धार्मिक व सांस्कृतिक कैलेंडर या पंचांग का संज्ञान नहीं लेता? क्या पर्वों की महत्ता का आकलन आयोग अपने मन से करता है? यह एक तथ्य है कि चुनाव आयोग चुनाव घोषित करने से पहले हर राजनैतिक दल से चर्चा अवश्य करता है। क्या उस चर्चा में यह विषय नहीं उठाए जाते? यदि किसी राजनैतिक दल ने चुनाव की तारीख़ों को लेकर आपत्ति जताई तो उस पर चुनाव आयोग ने देर से निर्णय क्यों लिया?
जिस तरह केंद्रीय चुनाव आयोग इवीएम और वीवीपैट को लेकर पहले से ही विवादों में घिरा हुआ है, उसे चुनावों में पारदर्शिता का न केवल दावा करना चाहिए बल्कि पारदर्शी दिखाई भी देना चाहिए। इसलिए चुनाव आयोग को इन सवालों को गंभीरता से लेना चाहिए और ख़ुद को संदेह से दूर रखने का प्रयास करना चाहिए। एक स्वस्थ लोकतंत्र मज़बूती के लिए निष्पक्ष व पारदर्शी चुनाव और चुनावी प्रक्रिया का होना ही समय की माँग है।
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