चुनावी विश्लेषण

दिल्ली में केंद्रीय नेतृत्व ही बना कांग्रेस की मुश्किल

दिल्ली में जहां आम आदमी पार्टी विधानसभा चुनावों के लिए प्रत्याशी घोषित करने में जुट गई है, वहीं बीजेपी भी अपने बूथ कार्यकर्ताओं को महत्व देने के लिए कार्यक्रम चला रही है. इन दोनों दलों के बीच अपनी जगह बनाने की कोशिश में लगी कांग्रेस वास्तव में दिशाहीन लग रही है.

लोकसभा चुनावों के समय आम आदमी पार्टी से गठबंधन करने के बाद, अब उसी सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी का विरोध कर रही है, लेकिन जनता के बीच में उसकी छवि आम आदमी पार्टी की पिछलग्गू के रूप में बन चुकी है. ऐसे में उसके लिए मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं.

हालांकि कांग्रेस में जान डालने के लिए प्रदेशाध्यक्ष देवेंद्र यादव ने सभी 70 विधानसभा क्षेत्रों में न्याय यात्रा निकाली, जिसमें भीड़ भी काफी जुटी, लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ने इस न्याय यात्रा से दूरी बनाए रखी और ऐसी समझ बनने दी कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी अरविंद केजरीवाल को नाराज नहीं करना चाहते. बड़ी बात तो ये हुई कि राहुल गांधी न्याय यात्रा के समापन समारोह में भी शामिल नहीं हुए.

न्याय यात्रा से राहुल गांधी की दूरी?

दिल्ली कांग्रेस की इच्छा न्याय यात्रा के समापन को बड़े समारोह के रूप में पेश करने की है. हालांकि राहुल गांधी ने इस कार्यक्रम में शामिल होने से इनकार कर दिया है, और जिसके बाद दिल्ली कांग्रेस को अपना ये कार्यक्रम रद्द ही करना पड़ गया है. पहले ये कार्यक्रम 9 दिसंबर को होना था, लेकिन राहुल गांधी की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए इसे 12 नवंबर को रखा गया, लेकिन राहुल गांधी तब भी इसमें आने को तैयार नहीं हुए.

क्या चाहती है कांग्रेस

दरअसल दिल्ली कांग्रेस चाहती है कि कांग्रेस आम आदमी पार्टी और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में घिरे अरविंद केजरीवाल के विरोध में खुलकर आए, और आम आदमी पार्टी तथा बीजेपी सरकारों के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाकर अपनी स्थिति मजबूत करे.

उधर केंद्रीय नेतृत्व दिल्ली कांग्रेस के नेताओं से ज्यादा महत्व अरविंद केजरीवाल को देता है, और अब भी उम्मीद लगाए बैठा है कि आम आदमी पार्टी उसे गठबंधन के तहत कुछ सीटें दे देगी. ये अलग बात है कि अरविंद केजरीवाल राज्य स्तर पर किसी भी तरह के गठबंधन की संभावना से इन्कार कर रहे हैं, लेकिन उनके अन्य साथी गाहे-बगाहे गठबंधन की संभावना बची होने की बात कहकर कांग्रेस को गफलत में भी रखे हुए हैं.

लोकसभा चुनावों में फेल रहा था गठबंधन

दरअसल, बीजेपी को हराने के नाम पर 2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने गठबंधन किया था. हालांकि 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस दिल्ली की 7 में से 5 पर नंबर दो पर थी, जबकि आम आदमी पार्टी केवल 2 सीटों पर दूसरे नंबर पर थी. इसके बावजूद, कांग्रेस ने अरविंद केजरीवाल के आगे झुकते हुए, 7 में से 3 सीटों पर लड़ने की सहमति दी और आम आदमी पार्टी 4 सीटों पर लड़ी. गठबंधन कामयाब नहीं रहा और सातों सीटें इंडिया गठबंधन हार गया.

विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए ज्यादा मुश्किल हैं

अब बात विधानसभा चुनावों की है, जिनमें कांग्रेस बहुत ज्यादा कमजोर पड़ती है. यहां तक कि बीजेपी भी अरविंद केजरीवाल की पार्टी के सामने नहीं टिक पाती है क्योंकि बीजेपी का बड़ा समर्थक वर्ग विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी को वोट देता है.

2020 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस 70 में से एक भी सीट पर दूसरे नंबर पर नहीं रह सकी थी और हर सीट पर मुख्य टक्कर आम आदमी पार्टी और बीजेपी के बीच ही हुई थी. आम आदमी पार्टी ने 62 और बीजेपी ने 8 सीटें जीती थीं. कांग्रेस का मत प्रतिशत भी केवल 4.26 तक गिर गया था, जबकि आम आदमी पार्टी ने 53.57 और बीजेपी ने 38.51 प्रतिशत वोट हासिल किए थे.

2024 के लोकसभा चुनावों के समय बीजेपी की लोकप्रियता में तो गिरावट दिख ही रही थी, वहीं आम आदमी पार्टी भी भ्रष्टाचार के आरोपों में घिर चुकी थी. उस समय अगर कांग्रेस ने स्वतंत्र लाइन रहते हुए, बिना गठबंधन के चुनाव लड़ा होता तब शायद उसको कुछ सीटें मिल भी सकती थीं, और वोट प्रतिशत तो निश्चित ही बढ़ता. इतना ही नहीं, उसके सभी 70 विधानसभा सीटों में संगठन में भी जान आ जाती. लेकिन केंद्रीय नेतृत्व की अकुशलता के कारण कांग्रेस ने वो मौका गंवा दिया.

क्या है आम आदमी पार्टी की रणनीति

अब आम आदमी पार्टी की रणनीति कांग्रेस को गफलत में रखने की है. कांग्रेस के जो भी सक्रिय नेता दिख रहे हैं, वह उन्हें अपने साथ मिलाकर कांग्रेस को पंगु करने में भी जुटी है. और, बाद में राहुल गांधी के विशेष आग्रह पर अगर अरविंद केजरीवाल कांग्रेस से गठबंधन करने का अहसान करते भी हैं तो मुश्किल से 5 या अधिकतम 10 सीटें ही कांग्रेस को लड़ने के लिए मिल सकेंगी. एक तरह से कांग्रेस को मानना होगा कि अब दिल्ली में वह खत्म हो चुकी है.

कुल मिलाकर दिल्ली कांग्रेस का हाल ये है कि प्रदेश के नेताओं के चाहने के बावजूद, वह अपने को मजबूत नहीं कर पा रही है क्योंकि उसका राष्ट्रीय नेतृत्व ही दिल्ली में कुछ नहीं करना चाहता. या तो वह अकर्मण्यता का शिकार है या फिर आम आदमी पार्टी के मोह में ग्रस्त है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषक हैं)

महेंद्र यादव

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