चुनाव

चुनाव आयोग की नज़र में सब बराबर हों !

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक क्लिप काफ़ी चर्चा में था। इस क्लिप में दिखाया गया कि तेलंगाना राज्य में एक ग़रीब सब्ज़ी विक्रेता सड़क के किनारे अपनी छोटी सी दुकान लगाए बैठी थी। तभी एक रईसज़ादे ने उसके पीछे अपनी महँगी गाड़ी को कुछ इस तरह से पार्क कर दिया कि महिला की साड़ी का पल्लू गाड़ी के पिछले पहिये के नीचे दब गया। कुछ ही क्षण बाद जैसे ही महिला को इस बात का पता चला, तो वो गाड़ी मालिक से दुहाई करने लगी पर उसने एक न सुनी और एक भवन के अंदर चला गया। मजबूरी में उस महिला ने पुलिस से मदद माँगी। पुलिस ने भी काफ़ी प्रयास किया कि उसकी साड़ी का पल्लू किसी तरह से पहिये से मुक्त हो जाए। लेकिन पुलिस ने जो उपाय खोजा वह काफ़ी सराहनीय है।

पुलिस ने एक मिस्त्री बुलाया और गाड़ी में जैक लगा कर महिला के पल्लू को मुक्त करवा दिया। परंतु तेलंगाना की पुलिस ने इस मनचले को सबक़ सिखाने की भी सोची। पुलिसवाले उस गाड़ी के पहिये को उतरवा कर अपने साथ पुलिस थाने ले जाने लगे। जैसे ही गाड़ी का पहिया उतारा जा रहा था तभी वो मनचला हड़बड़ाता हुआ बाहर आया। पुलिस के इस एक्शन पर घबराहट में उनके पैरों में गिरने लगा और माफ़ी माँगने लगा। परंतु तेलंगाना पुलिस ने उसकी एक न सुनी और पहिया उतार कर अपने साथ थाने ले गई। इस बिगड़े मनचले के पास सिवाय अपना सर खुजाने के और कोई उपाय न था। शायद वो इस तरह से गाड़ी पार्क करने से पहले इंसानों की तरह सोचता तो ऐसा न होता। परंतु पैसे के घमंड में चूर इसे कुछ दिखाई नहीं दिया। यदि यहाँ पुलिस उस व्यक्ति से उलझती तो वो अवश्य अपने पैसे व रुतबे की धौंस दिखाता। ग़ौरतलब है कि इस पूरे वीडियो को सोशल मीडिया पर ‘स्क्रिप्टेड वीडियो’ या नाटकीय वीडियो कहा जा रहा है। परंतु जो भी हो वीडियो डालने वाले ने जो संदेश देना चाहा, वह देश के अन्य राज्यों की पुलिस के लिए एक अच्छा उदाहरण बना।

चुनावों के मौसम में तेलंगाना के इस विडियो क्लिप से देश के केंद्रीय चुनाव आयोग को भी प्रेरणा लेनी चाहिए। सोशल मीडिया पर शायद ही कोई ऐसी राजनैतिक पार्टी होगी जिसने अपने चुनावी भाषण में किसी न किसी तरह से आचार संहिता व लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के नियमों का उल्लंघन न किया हो। परंतु जिस तरह भारत का चुनाव आयोग एक तरफ़ा कार्यवाही करते हुए दिखाई दे रहा है उससे तो यही लगता है कि चुनाव आयोग दोहरे मापदंड अपना रहा है। ईवीएम और वीवीपैट को लेकर चुनाव आयोग पहले से ही विवादों में है। इसके बाद से चुनावी भाषणों को लेकर चुनाव आयोग की एक तरफ़ा कार्यवाही एक बार फिर से पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषण व उनके बाद नियुक्त हुए कुछ चुनाव आयुक्तों की याद दिलाती है जो नियम और कायदों के पक्के माने जाते थे। चुनावों के मौसम में हर राजनैतिक दल चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, चुनाव आयोग से कभी नहीं उलझता था। परंतु बीते कुछ वर्षों में जिस तरह चुनाव आयोग की जग हसाई हुई है उससे यह प्रतीत होता है कि चुनाव आयोग निष्पक्ष नहीं रहा। फिर वो चाहे चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के सुझावों की अनसुनी हो या किसी बड़े राजनैतिक दल द्वारा किए गए उल्लंघन की अनदेखी हो। चुनाव आयोग विवादों में बना ही रहा।

जब भी कभी कोई प्रतियोगिता आयोजित की जाती है तो उसका संचालन करने वाले शक के घेरे में न आएँ इसलिए उस प्रतियोगिता के हर कृत्य को सार्वजनिक रूप से किया जाता है। आयोजक इस बात पर ख़ास ध्यान देते हैं कि उन पर पक्षपात का आरोप न लगे। इसीलिए जब भी कभी आयोजकों को किसी कमी की शिकायत की जाती है या उन्हें कोई सकारात्मक सुझाव दिये जाते हैं तो यदि वे उन्हें सही लगें तो वे उसे स्वीकार लेते हैं। ऐसे में उन पर पक्षपात का आरोप भी नहीं लगता। ठीक उसी तरह एक स्वस्थ लोकतंत्र में होने वाली सबसे बड़ी प्रतियोगिता चुनाव हैं। उसके आयोजक यानी केंद्रीय चुनाव आयोग को उन सभी सुझावों व शिकायतों को खुले दिमाग़ से और निष्पक्षता से लेना चाहिए। चुनाव आयोग एक संविधानिक संस्था है, इसे किसी भी दल या सरकार के प्रति पक्षपात होता दिखाई नहीं देना चाहिए। यदि चुनाव आयोग ऐसे सुझावों और शिकायतों को जनहित में लेती है तो मतदाताओं के बीच भी एक सही संदेश जाएगा, कि चाहे ईवीएम पर गड़बड़ियों के आरोप लगें या आचार संहिता के नियमों का उल्लंघन की शिकायत हो, चुनाव आयोग किसी भी दल के साथ पक्षपात नहीं करेगा।

जिस तरह पहले चरण के चुनावों में मतदान के प्रतिशत कम होने के बाद कुछ राजनैतिक दल घबराहट में अपने भाषणों में ग़लत बयानी कर रहे हैं, चुनाव आयोग को इन सभी का स्वतः संज्ञान लेना चाहिए और नियम अनुसार उचित कार्यवाही करनी चाहिए। यदि चुनाव आयोग किसी भी राजनैतिक दल को उसके क़द और आकार को नज़रअंदाज़ कर नियम और क़ायदे के अनुसार उस पर कार्यवाही करेगा तो जनता के बीच चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा और बढ़ेगी। मतदाता को भी वोट करने पर गर्व होगा। यदि चुनाव आयोग ऐसा करता है तो आने वाले शेष चरणों में हो सकता है कि मतदान का प्रतिशत बढ़ भी जाए। यदि मतदाता का चुनाव मशीनरी से विश्वास डगमगाया तो नागालैंड जैसी स्थिति न पैदा हो जाए। जहां राज्य के छह पूर्वी जिलों में नौ घंटे इंतजार के बावजूद, क्षेत्र के चार लाख मतदाताओं में से एक भी वोटर मतदान करने नहीं आया। चुनाव आयोग को इस बात को हमेशा याद रखना चाहिए कि चाहे आप कितने भी बड़े क्यों न हों, कानून आपसे ऊपर है।

  • लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के प्रबंध संपादक हैं।
रजनीश कपूर, वरिष्ठ पत्रकार

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