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बाजार की चकाचौंध से नहीं भीतर के दिये को जलाकर मनाएं दीवाली: आचार्य प्रशान्त

श्रीमद्भगवत गीता में श्री कृष्ण और अर्जुन के बीच एक ऐसा संवाद है, जिसमें सभी मानव समस्याओं की कुंजी छुपी है. इस संवाद की पृष्ठभूमि महाभारत का युद्ध है. गीता में दिए उपदेश आज भी प्रासंगिक हैं और मनुष्य मात्र को जीवन जीने की सही राह दिखाते हैं. गौतम बुद्ध यूनिवर्सिटी के ऑडिटोरियम में देशभर से प्रतिभागियों ने दीपावली के उपलक्ष्य में आयोजित गीता दीपोत्सव कार्यक्रम के संवाद सत्र में भाग लिया. प्रशांत अद्वैत संस्था द्वारा आयोजित गीता दीपोत्सव में आचार्य प्रशान्त ने साधकों द्वारा पूछे गए सवालों के काफ़ी गहरे और स्पष्ट समाधान दिए.

आचार्य प्रशान्त ने कहा कि दीपावली मनाएं लेकिन बोधपूर्ण तरीके से. दीवाली तभी सार्थक होगा जब मन में प्रकाश हो ,चित्त शांत नहीं है बाहरी चकाचौंध से प्रभावित होकर कुछ भी करो उसका कोई लाभ नहीं होगा. उन्होंने कहा कि बाहर सौ दीपक भी जल रहे हो उससे कुछ नहीं होगा भीतर एक दिया पर्याप्त है. बाहर जो भी हो रहा है वह भीतर का प्रतिबिंब हो तो वह सही है, लेकिन पहले भीतर रोशनी होनी चाहिए.बाहर का प्रकाश एक साधन की तरह होनी चाहिए जो भीतर की रोशनी जगाए, लेकिन दुर्भाग्य से जो चुनाव हम करते है वह गलत ही करते हैं. त्यौहार को जान सके व सही तरीके से मना सके वह आत्मज्ञान से ही सम्भव है. उन्होंने कहा कि यह तात्कालिक रूप से कुछ अच्छा लग सकता है धर्म के नाम पर ऐसा उत्सव मत मनाए जो केवल मनोरंजन के लिए मनाते हैं.

त्योहार पर बाहर मिठाई  बांटते हैं भीतर कड़वाहट है उसे निकलना है नहीं तो हम बदल नहीं सकते कड़वाहट हमेशा दूसरे के प्रति होती है. श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था भिड़ जाओ युद्ध का अंजाम कुछ भी हो. हम यथार्थ जानने से डरतें हैं जब विवेकानंद की राह नहीं मिलती तो ज़िंदगी कचरे की ही होती है उसके लिए पथ प्रदर्शक चाहिए. अगर दुर्योधन के हाथ हस्तिनापुर चला जाता तो देश का इतिहास ही बदल जाता. इसलिए कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया था.

उन्होंने कहा कि गीता ऐसा ग्रंथ है जो मानव को जीने का ढंग सिखाता है. गीता मनुष्य को निष्काम कर्म और प्रेम का पाठ पढ़ाती है.आचार्य प्रशान्त के अनुसार, अहंकार और अज्ञान ही जीवन की मूलभूत समस्याएं हैं. और विद्या, सही ज्ञान, ही हमारी सभी समस्याओं का अंतिम समाधान है. उन्होंने कहा कि श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि स्वार्थ से प्रेरित हुआ कर्म ही दुख को जन्मता है. और कर्म के केंद्र में निष्काम होनी चाहिए. उन्होंने कहा कि गीता में कहा गया है कि इंद्रियों से परे बुद्धि, बुद्धि से परे मन और मन से श्रेष्ठ आत्मा है. शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो चरित्र का निर्माण करे.

आचार्य प्रशान्त ने कहा कि आज के दौर में पीड़ा तो सभी के मन में है. उस पीड़ा से मुक्ति भी सभी को चाहिए, लेकिन मन मे जो अज्ञान और धारणाएं बैठी है उन्हें छोड़ने में पीड़ा होती है. भीतर के झूठ व अहंकार को हम इतना पोषण दे देते हैं कि वही हमे सत्य लगता है और हम उसे छोड़ने को तैयार नही होते.

आचार्य प्रशान्त ने कहा कि हम झूठी कल्पनाओं, अंधविश्वास के आदि हो चुके हैं. हमारे धर्म ग्रंथ ही हमें सही जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं. और हम उनकी तरफ जाने को तैयार नहीं होते, जिसकी वजह से दुख झेलते हैं. अगर हमारे पास कोई सही लक्ष्य नहीं है तो मन गलत धारणाओं को पकड़ ही लेगा और अंततः दुख का निर्माण करेगा. आचार्य प्रशान्त ने सत्र में पहुंचे करीब दो हजार साधको की जिज्ञासाओं को भी सुना व उनके जीवन से जुड़े प्रश्नों का जवाब दिया. दीपोत्सव कार्यक्रम में भजन संध्या में संत कबीर के दोहों और गीता के श्लोकों पर आचार्य प्रशांत द्वारा रचित कविता को भी गाया.

-भारत एक्सप्रेस

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