फ्री की रेवड़ी शब्द लगता है राजनीति के लिए बेहद अहम हो गया है. तभी तो हर दल इसकी परिक्रमा करने में लगा है. आखिर मतदाताओं को इंस्टैंट अपने हक में करने का शानदार तरीका जो है. फ्री की रेवड़ी कोई नया आया हुआ शब्द हो ऐसा नहीं है. दक्षिण भारत में तो 1 रुपया चावल और साड़ी देने का पुराना इतिहास रहा है वहीं आम आदमी पार्टी ने तो इसे अपना एजेंडा ही बना लिया. फ्री की बिजली, फ्री का पानी और उसी की बदौलत लगातार दिल्ली की सरकार में काबिज है. भले ही दिल्ली की सातों लोकसभा हाथ से निकल गई हो लेकिन विधानसभा में जलवा बरकरार है.
एक वक्त था जब जनता सरकार के गुड गवर्नेंस को जेहन में रखकर मतदान करती थी लेकिन अब जनता का मन भी बदल गया है. भ्रष्टाचार ने तमाम समीकरण बदल डाले. मलयालम में भ्रष्टाचार को मामूल कहा जाता है और लगता है भ्रष्टाचार मामूली हो गया है. एक वर्ग पिस्ता खा रहा है तो खा ही रहा है दूसरा वर्ग पिसता ही जा रहा है तो पिसता ही जा रहा है. भूखी-सूखी अंतड़ियों की विवशता को आखिर कौन जाने कौन समझे. और सुप्रीम कोर्ट ने इसी के मद्देनजर फ्री की रेवड़ी पर सख्त ऐतराज जताया है. सरकारों द्वारा दी जा रही मुफ्त सेवाओं और सुविधाओं पर सवाल उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि-कब तक मुफ्त राशन वितरित की जाएगी? कोर्ट ने यह बात तब की जब केंद्र ने कोर्ट को बताया कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) के तहत 81 करोड़ लोगों को फ्री राशन दिया जा रहा है. कोर्ट ने साफ मतलब निकाला कि केवल करदाता ही बाकी बचे हैं. सुप्रीम कोर्ट की सुप्रीम सलाह थी कि क्यों न लोगों के जॉब मुहैया करने पर फोकस किया जाय.
देखने में आता है राजनीतिक दल मुफ्त की रेवड़ी और कल्याणकारी योजना के बीच बारीक अंतर के मद्देनजर अपनी बात रखते हैं. मुफ्त की रेवड़ी में आमतौर पर मुफ्त लैपटॉप, टीवी, साइकिल, बिजली और पानी जैसी वस्तुएं शामिल होती हैं, जिन्हें अक्सर वोट पाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. वहीं कल्याणकारी योजनाओं का मकसद लक्षित आबादी के जीवन स्तर और संसाधन तक उसकी पहुंच बढ़ाना है, ताकि उसका विकास हो सके. उदाहरण के तौर पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), मनरेगा और मिड डे मील प्रोग्राम. लेकिन मुफ्त की रेवड़ियों ने कल्याणकारी योजनाओं को नए तरीके से देखने पर विवश किया है.
जाहिर है विकास की राह में पीछे छूट गए लोगों के लिए कल्याणकारी कार्यक्रम बेहद जरूरी होते हैं. विकास के अपेक्षाकृत निचले स्तर और उच्च गरीबी दर वाले राज्यों में इस तरह की मुफ्त सुविधाएं समाज के निचले तबके के समर्थन और उत्थान में मायने रखती हैं. मिड डे मील योजना पहली बार 1956 में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के कामराज ने शुरू की थी. एक दशक बाद इसे राष्ट्रीय स्तर पर अपनाया गया था. जाहिर है इससे तमाम लोगों को फायदा मिला. खाना और पढ़ना दोनों मिलना ऐसे परिवारों के लिए एक वरदान से कम न था.
ग्रामीण इलाकों में मुफ्त साइकिल और लैपटॉप जैसी वस्तुओं को बांटने से विकास से पिछड़े लोगों को लाभ तो मिलता है लेकिन फ्री की बिजली, पानी से उसके अपव्यय का भी खतरा बढ़ा है. जाहिर है अगर इन सबको छोड़कर रोजगार पर फोकस किया जाय. उत्पादकता, ज्ञान और कौशल को बढ़ावा तो मिले तो रेवड़ी ले लो कहने वालों से खुद ही जनता किनारा कर लेगी.
-भारत एक्सप्रेस
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