Subhash Chandra Bose Jayanti 2024: ये एक संयोग ही है कि, नेता जी सुभाष चंद्र बोस की 128वीं जयंती के एक दिन पहले ही अयोध्या में भव्य राम मंदिर का उद्घाटन हुआ है और रामलला अपने जन्म स्थान पर विराजमान हुए हैं व पूरे देश में उत्सव सा माहौल है. तो वहीं दूसरे दिन यानी आज 23 जनवरी को नेता जी की 128वीं जयंती मनाई जा रही है और लोग राम जन्म भूमि आंदोलन से जुड़े उनके किस्सों को जानना और पढ़ना चाह रहे हैं. तो वहीं सोशल मीडिया पर गुमनामी बाबा के तमाम रहस्यों को जानने के लिए लोग उत्सुक दिखाई दे रहे हैं. तो वहीं नेता जी का राम जन्म भूमि से जुड़ा एक किस्सा सामने आ रहा है. तब तक अयोध्या राम की जन्मभूमि तो थी, लेकिन राम मंदिर आंदोलन ने जोर नहीं पकड़ा था. अयोध्या तब फैज़ाबाद ज़िले की तीर्थ नगरी थी, डाउन-टाउन से 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित. इतिहासकार बताते हैं कि, गुमनामी बाबा जिन्हें लोग भगवान जी कहते थे, उनकी मौत 16 सितंबर 1985 को इसी फैज़ाबाद के राम भवन में हुई. इस राम भवन में गुमनामी बाबा पिछले दो साल से रह रहे थे, लेकिन, कथित तौर पर किसी ने उनका चेहरा तक नहीं देखा था. बताया जाता है कि, राम भवन के मालिक ने भी उनका चेहरा नहीं देखा था.
नेता सुभाष चंद्र बोस को लेकर एक रहस्यमय गुत्थी बंगाल में भी
ये तो सभी जानते हैं कि, बंगाल में आज भी नेता सुभाष चंद्र बोस को लेकर एक रहस्यमय गुत्थी हैं, लेकिन उससे भी बड़ी गुत्थी हैं यूपी के ‘गुमनामी बाबा’, जिनकी मौत होने के बाद उनके सुभाष चंद्र बोस होने की ख़बरें सुर्खियां बन गईं थीं. हालांकि गुमनामी बाबा की मौत पर दो-दो जांच आयोगों ने गुमनामी बाबा को सुभाष मानने से इनकार कर दिया, लेकिन उनकी चिता की राख को आज भी कुरेदा जा रहा है और यदा-कदा उनके ही गुमनामी बाबा होने पर लोग मोहर लगाते रहे हैं. यही नहीं गुमनामी बाबा के ऊपर 2019 में बंगाल के फिल्मकार श्रीजित मुखर्जी ने एक फिल्म बना दी थी, जो कि सुपरहिट भी हुई थी. सबसे अधिक रोचक बात तो ये है कि, गुमनामी बाबा की मौत के बाद उनके सुभाष होने की ख़बर चर्चा में कैसे आई? पूरा बंगाल और उत्तर-पूर्व छोड़ वह यूपी के फैज़ाबाद (अब अयोध्या) क्यों पहुंच गए ? ये सारी बातें मात्र एक सवाल ही हैं या कह लें कि रहस्य ही है.
नेता जी के अयोध्या आने को लेकर अयोध्या के एक वरिष्ठ पत्रकार तीखे लहजे में कहते है कि, ‘ग़रीबों के इस तीर्थ में भला सुभाष बाबू क्यों आते? वह आए नहीं, साज़िशन लाए गए थे.’ उनका ये दावा सुभाष की मौत के रहस्य को और भी गहरा कर देता है. वहीं एक किस्सा सामने आता है कि, तब तक अयोध्या राम की जन्मभूमि तो थी, लेकिन राम मंदिर आंदोलन ने जोर नहीं पकड़ा था. अयोध्या तब फैज़ाबाद ज़िले की तीर्थ नगरी थी, डाउन-टाउन से 5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित थी. गुमनामी बाबा को लोग भगवान जी कहते थे, जिनकी मौत 16 सितंबर 1985 को इसी फैज़ाबाद के राम भवन में हुई. बताया जाता है कि, इस राम भवन में गुमनामी बाबा पिछले दो साल से रह रहे थे, लेकिन, कथित तौर पर किसी ने उनका चेहरा तक नहीं देखा था. कहा जाता है कि राम भवन के मालिक तक ने उनका चेहरा नहीं देखा था.
गुमनामी बाबा के समय का एक किस्सा सामने आता है कि, अगर गुमनामी बाबा को जानना है तो उसके लिए राम भवन को जानना बहुत ही ज़रूरी है. जिस राम भवन में गुमनामी बाबा के रुकने की बात कही जाती है वह उन्हीं ठाकुर गुरुदत्त सिंह का है, जिनके डिप्टी कलेक्टर रहते अयोध्या की बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्ति प्रकट हो गई थी. जैसे ही मूर्ति प्रकट होने की ख़बर सामने आई थी, लखनऊ से दिल्ली तक हड़कंप मच गया था. बताया जाता है कि, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक चिट्ठियां लिखते रहे और मूर्ति हटाने को कहते रहे, लेकिन गुरुदत्त सिंह मूर्ति हटाने को राज़ी नहीं हुए. उन्होंने अपने उच्चाधिकारियों से स्पष्ट रूप से कह दिया था कि, ‘मैं इस्तीफा दे दूंगा लेकिन मूर्ति हटाना संभव नहीं. मूर्ति हटाने की स्थिति में भारी हिंसा और खून खराबे की आशंका है.’
जानकार बताते हैं कि, राम भवन में आज ठाकुर गुरुदत्त सिंह की तीसरी पीढ़ी रह रही है. जानकारी मिलती है कि, गुरुदत्त सिंह के पोते शक्ति सिंह, गुमनामी बाबा के नाम से एक संगठन का संचालन करते हैं. फैजाबाद का गुप्तार घाट, जहां गुमनामी बाबा का अंतिम संस्कार किया गया, वहां एक समाधि स्थल भी है. इस समाधि स्थल पर एक होर्डिंग लगी हुई है और शक्ति सिंह अपने संगठन के साथ यहां पर सक्रिय भूमिका निभाते रहे हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक, जानकारी मिलती है कि, शक्ति सिंह ने एक इतिहासकार से बातचीत के दौरान गुमनामी बाबा का भगवान राम से सीधा कनेक्शन कुछ इस तरह से जोड़ा था और बताया था कि, ‘जहां भगवान राम ने जल समाधि ली, वहीं गुमनामी बाबा का भी अंतिम संस्कार हुआ.’
माना जाता है कि भगवान राम का समाधि स्थल गुप्तार घाट है. हालांकि सरयू का यह किनारा कैंटोनमेंट का हिस्सा है और यहां शवदाह नहीं होता, लेकिन प्रशासन ने गुमनामी बाबा का अंतिम संस्कार यहीं कराया था. शक्ति सिंह ने आगे भी जानकारी दी है और भगवान राम से गुमनामी बाबा का एक और कनेक्शन जोड़ते हुए बताया कि, ‘इसी राम भवन में रामलला की आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले ने भी अंतिम सांस ली और देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले ने भी.’ उनकी बात पर अगर गौर किया जाए तो इसका मतलब है कि, रामलला की आजा़दी की लड़ाई लड़ने वाले यानी उनके दादा गुरुदत्त सिंह और देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले यानी सुभाष चंद्र बोस. वहीं शक्ति सिंह का एक और बयान मिलता है, जिसमें उन्होंने ये कहा कि, जब गुमनामी बाबा की मृत्य हुई तो, वह ख़ुद 25 साल के थे, लेकिन, आश्चर्य की बात तो ये कि उसी राम भवन में वह खुद भी रहते थे लेकिन उन्होंने कभी बाबा का चेहरा नहीं देखा था. शत्ति सिंह ने बताया था कि, मौत के बाद भी नहीं, क्योंकि तब प्रशासन ने सब कुछ अपने कंट्रोल में ले लिया था.
जहां गुमनामी बाबा की मौत के बाद प्रशासन इतना सक्रिय हुआ कि उसने अगले दो दिन तक पूरे सिविल लाइंस इलाके को छावनी में तब्दील कर दिया, तो वहीं सवाल खड़ा होता है कि, यही प्रशासन बीते दो साल से क्या कर रहा था? एक शख़्स रहस्यमय परिस्थितियों में ‘गुमनाम’ तरीके से रह रहा हो और सरकारी एजेंसियों को उसकी कोई खोज ख़बर ही नहीं थी, भला ये कैसे संभव हो सकता है? इसकी जानकारी पुलिस की लोकल इंटेलिजेंस यूनिट और आईबी जैसी संस्थाओं को भी नहीं थी क्या, भला ये संस्थाएं क्या कर रही थीं?
तो वहीं खबरों की मानें तो गुमनामी बाबा का अंतिम संस्कार उनकी मौत के दो दिन बाद यानी 18 सितंबर को कराया गया था. इसको लेकर कहा जाता है कि, प्रशासन किसी परिजन के आने का इंतजार कर रहा था लेकिन कोई नहीं आया. इसके बाद उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया. 1985-86 में फैजाबाद के ज़िला कलेक्टर रहे इंदु कुमार पांडे का एक बयान सामने आता है, जिसमें कहा गया है कि, कुछ लोगों के कलकत्ता से आने की प्रतीक्षा थी, जो नहीं आए.
आखिरकार प्रशासन ने ख़ुद गुमनामी बाबा का दाह संस्कार करवाया और वह भी एक ऐसे घाट पर, जो श्मशान के तौर पर इस्तेमाल ही नहीं होता था. बयान में ये भी कहा गया है कि, भगवान राम का जल समाधि स्थल होने के कारण इस जगह की एक पवित्रता है लेकिन, प्रशासन ने इस दाह संस्कार को आम जनता से दूर रखने के लिए गुप्तार घाट का ही चयन किया. तो हीं प्रशासन ने ये सब क्यों किया, ये भी आज तक एक पहेली ही है. तो वहीं ये भी कहा जाता है कि, उस समय की मीडिया में गुमनामी बाबा के सुभाष चंद्र बोस होने की खबर बनने में एक महीन से अधिक का वक्त लग गया था. बताया जाता है कि इस सम्बंध में तत्कालीन कई ऐसे समाचार पत्र के सम्पादक थे, जिन्होंने इस बारे में काफी खोजबीन की और इसके बाद शंका जाहिर करते हुए दावा किया कि गुमनामी बाबा ही सुभाष थे. हालांकि कुछ समाचार पत्रों ने इसका खंडन भी किया, लेकिन इसी उधेड़बुन के बीच आज भी गुमनामी बाबा का रहस्य बरकरार है और उनसे जुड़े किस्से कई मर्तबा सामने आते रहते हैं.
बता दें कि गुमनामी बाबा के सुभाष होने की खबर ने इस कदर तत्कालीन सरकार पर असर किया था कि, इसके लिए जांच बैठाई गई थी. गुमनामी बाबा के सुभाष चंद्र बोस होने की जांच तीन काउंट पर बेस थी. पहला डीएनए, दूसरी हैंड राइटिंग और तीसरा उनका सामान. जांच के दौरान डीएनए और हैंड राइटिंग के मिलान में तो गुमनामी बाबा मुखर्जी आयोग में ही फेल हो गए तो वहीं सामानों की जांच में कुछ कसर शेष रह गई थी. खबरों के मुताबिक, सामानों का यह जखीरा इतना बड़ा था कि 2760 आर्टिकल्स की इन्वेंट्री तैयार हुई. इन सामानों को ही गुमनामी बाबा को सुभाष साबित करने का बड़ा आधार बनाया गया था, लेकिन सहाय आयोग ने यहां भी गुमनामी बाबा के सुभाष होने की बात सिरे से नकार दी थी. हालांकि जस्टिस सहाय ने ये ज़रूर कहा था कि, गुमनामी बाबा, सुभाष से बहुत प्रभावित लगते थे, लेकिन सुभाष नहीं थे. तो वहीं इन सामानो को लेकर शक्ति सिंह का एक बयान भी सामने आता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि, कहीं किसी सामान पर सुभाष चंद्र बोस का नाम नहीं है, लेकिन किताबें और दस्तावेज़ देखकर मन में सीधा सवाल उठता है कि किसी बाबा से ऐसे सामानों का क्या लेना-देना? जाहिर है, यह नतीजा तय करने के बाद सबूत जुटाने जैसा मामला है. तो वहीं इतिहासकार तो ये भी बताते हैं कि, गुमनामी बाबा के पास से जो सामान मिला था उसे बाद में अयोध्या ट्रेजरी में रखा गया था जो कि आज भी गुमनामी में पड़ा हुआ धूल खा रहा है.
-भारत एक्सप्रेस
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