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Supreme Court ने यूपी मदरसा शिक्षा अधिनियम को ‘असंवैधानिक’ घोषित करने वाले Allahabad High Court के आदेश पर लगाई रोक

Uttar Pradesh Board of Madarsa Education Act, 2004: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (5 अप्रैल) को इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस आदेश पर रोक लगा दी, जिसमें उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 को इस आधार पर ‘असंवैधानिक” घोषित किया गया था कि यह ‘धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत’ के साथ-साथ संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है.

एक जनहित याचिका (PIL) पर आए हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली अपीलों को स्वीकार करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने मामले की अंतिम सुनवाई जुलाई के दूसरे सप्ताह में करने का तय करते हुए कहा कि ‘याचिकाओं की सुनवाई और अंतिम निपटान तक 22 मार्च के हाईकोर्ट के फैसले और आदेश पर रोक रहेगी’.

पीठ में जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा भी शामिल थे, जिन्होंने अधिनियम के प्रावधानों का अध्ययन किया और कहा कि वे ‘यह स्पष्ट करते हैं कि अधिनियम के तहत गठित वैधानिक बोर्ड का उद्देश्य और उद्देश्य नियामक प्रकृति का है.’

हाईकोर्ट ने प्रावधानों की गलत व्याख्या की

इसमें कहा गया, ‘हाईकोर्ट का यह निष्कर्ष कि बोर्ड की स्थापना ही धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन होगा, मदरसा शिक्षा की अवधारणा को उन नियामक शक्तियों के साथ मिलाता हुआ प्रतीत होता है, जो बोर्ड को सौंपी गई हैं.’

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘अधिनियम के प्रावधानों को रद्द करके हाईकोर्ट ने प्रथमदृष्टया अधिनियम के प्रावधानों की गलत व्याख्या की है. अधिनियम सरकारी पैसे से संचालित किसी शैक्षणिक संस्थान में धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं करता है.’

शीर्ष अदालत ने बताया कि संविधान के अनुच्छेद 28(1) में प्रावधान है कि पूरी तरह से सरकारी धन से संचालित किसी भी शैक्षणिक संस्थान में कोई धार्मिक निर्देश प्रदान नहीं किया जाएगा और 2002 के एक फैसले का हवाला दिया जो अनुच्छेद में प्रयुक्त अभिव्यक्ति ‘धार्मिक निर्देश’ की व्याख्या करता है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘अगर जनहित याचिका का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि गणित, विज्ञान, सामाजिक अध्ययन और इतिहास जैसे मुख्य विषयों में धर्मनिरपेक्ष शिक्षा के अलावा मदरसा शिक्षा प्रदान करने वाले संस्थानों में भाषाएं भी प्रदान की जाती हैं, तो इसका समाधान 2004 अधिनियम के प्रावधानों को रद्द करने में नहीं होगा, बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त निर्देश जारी करना होगा कि इन संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करने वाले सभी छात्र उस शिक्षा की गुणवत्ता से वंचित न हों जो सरकार द्वारा अन्य संस्थानों में उपलब्ध कराई जाती है.’

17 लाख छात्र होते प्रभावित

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने बीते 22 मार्च को उत्तर प्रदेश सरकार को मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों को नियमित स्कूलों में समायोजित करने का निर्देश दिया था. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘हाईकोर्ट के ऑपरेटिव निर्देश इन संस्थानों में शिक्षा प्राप्त कर रहे लगभग 17 लाख छात्रों की भविष्य की शिक्षा पर प्रभाव डालेंगे. हालाकि यह पूरी तरह से छात्रों और अभिभावकों की पसंद है कि वे किस संस्थान में अपनी पढ़ाई करना चाहते हैं. हमारा विचार है कि छात्रों के स्थानांतरण के लिए हाईकोर्ट का विवादित निर्देश प्रथमदृष्टया उचित नहीं था.’

नोटिस जारी करते हुए पीठ ने राज्य सरकार को 31 मई से पहले अपना जवाबी हलफनामा दाखिल करने को कहा और अपीलकर्ताओं को राज्य के विचारों का जवाब देने के लिए 30 जून तक का समय दिया.

हाईकोर्ट ने अधिनियम को रद्द करते हुए कहा था कि मदरसा पाठ्यक्रम के अनुसार, छात्रों को अगली कक्षा में जाने के लिए इस्लाम और उसके सिद्धांतों का अध्ययन करना आवश्यक है और आधुनिक विषयों को या तो वैकल्पिक के रूप में शामिल किया जाता है या पेश किया जाता है और उनके पास केवल एक वैकल्पिक विषय का अध्ययन करने का विकल्प होता है. हाईकोर्ट ने अधिनियम को ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम, 1956 की धारा 22 का उल्लंघन’ भी माना था.

केंद्र और राज्य सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट में हाईकोर्ट के फैसले का समर्थन किया था. केंद्र ने कहा था कि धर्म और अन्य प्रासंगिक मुद्दों के संदिग्ध उलझाव पर बहस होनी चाहिए.

-भारत एक्सप्रेस

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