Uttarakhand Conclave: देश का उत्तराखंड राज्य अपनी खूबसूरत गढ़वाली और कुमाऊंनी संस्कृति के लिए न केवल भारत बल्कि विदेश में भी जाना जाता है. गढ़वाली यहाँ बोली जाने वाली मुख्य भाषा है. इसकी तमाम बोलियाँ भी हैं जिनमें जौनसारी, मरची, जढ़ी और सैलानी शामिल हैं. यहां पर कई जातीय समूहों और जातियों के लोग निवास करते हैं, जिनमें राजपूत भी शामिल हैं. इनके बारे में मान्यता है कि वे आर्य मूल के हैं. तो वहीं गढ़वाल के आदिवासी जो उत्तरी इलाकों में रहते हैं और जिनमें जौनसारी, जाध, मार्चा और वन गुजर शामिल हैं. यहां कि विभिन्न परंपराएँ, धर्म, मेले, त्यौहार, लोक नृत्य, संगीत लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं. आज इसी भूमि पर भारत एक्सप्रेस न्यूज नेटवर्क का ‘उत्तराखंड उन्नति की ओर’ कॉनक्लेव का आयोजन किया जा रहा है. तो आइए इस खास मौके पर हम उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत के बारे में जानें.
उत्तराखंड में कुमाऊंनी होली को तीन रूपों में मनाया जाता है, जिसे बैठकी होली, खड़ी होली और महिला होली के नाम से जाना जाता है. इस त्यौहार की खास बात ये है कि इसे पारंपरित गीतों के साथ मनाया जाता है. इसी के साथ यहां पर हरेला त्यौहार मनाया जाता है जो वर्षा ऋतु या मानसून की शुरुआत का प्रतीक माना गया है. कुमाऊं समुदाय के लोग इस त्योहार को श्रावण माह यानी जुलाई-अगस्त के दौरान मनाते हैं. तो वहीं इस त्योहार के बाद भिटौली मनाया जाता है, जिसे चैत्र महीने यानी मार्च-अप्रैल में मनाया जाता है. इस त्योहार को कृषि से जुड़ा माना जाता है. इस त्योहार के तहत महिलाएं मिट्टी में बीज बोती हैं और त्योहार के अंत तक वे फसल काटती हैं जिसे हरेला कहा जाता है.
तो त्योहारों के क्रम में यहां पर जागेश्वर मेला बैसाख महीने के पंद्रहवें दिन जागेश्वर में भगवान शिव के मंदिर में आयोजित किया जाता है, जो मार्च के अंत से अप्रैल की शुरुआत तक चलता है. मेले के दौरान लोग एक प्रकार की आस्था के रूप में ब्रह्म कुंड के नाम से जाने जाने वाले कुंड में डुबकी लगाते हैं और अपने ईष्ट देव को याद करते हैं. तो वहीं उत्तराखंड में कुंभ मेला सबसे बड़े और सबसे लोकप्रिय त्योहारों में से एक माना गया है. यह मेला 3 महीने तक चलता है और इसे त्योहार के रूप में मनाया जाता है. बता दें कि हर चार साल में एक बार इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक के बीच लगता है, यानी 12 साल में केवल एक बार किसी एक स्थान पर कुंभ मेला का आयोजन किया जाता है. बता दें कि, यहां पर छोटे-बड़े सभी त्यौहारों को उत्साह के साथ मनाया जाता है.
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यहां पर कुमाऊँ समाज के लोग 13 बोलियाँ बोलते हैं, जिनमें कुमैया, गंगोला, सोरयाली, सिराली, अस्कोटी, दानपुरिया, जोहारी, चौगरख्याली, माझ कुमैया, खसपर्जिया, पछाई और रौचौभैसी शामिल हैं. बता दें कि भाषाओं के इस समूह को मध्य पहाड़ी भाषाओं के समूह के रूप में जाना जाता है. भाषा की तरह ही कुमाऊँ अपने लोक साहित्य के लिए भी काफी समृद्ध है. इसमें मिथक, नायक, नायिका, वीरता, देवी-देवता और रामायण और महाभारत के पात्र शामिल हैं. तो वहीं नृत्य को लेकर भी कुमाऊँ समृद्ध है और यहां का सबसे लोकप्रिय नृत्य छलरिया के नाम से जाना जाता है और यह क्षेत्र की मार्शल परंपराओं से संबंधित है. यहां के नृत्य की विविधिता लोगों को आकर्षित करती है. यहां के त्योहारों व लोकनृत्यों को देखने के लिए देश-विदेश से लोग पहुंचते हैं.
बता दें कि उत्तराखंड के लोगों के जीवन में जितना त्योहार रचा बसा है, उतना ही नृत्य-संगीत भी. नृत्य को उनकी परंपराओं का एक प्रमुख हिस्सा माना गया है. यहां पर बरदा नाटी देहरादून जिले के जौनसार भावर क्षेत्र का लोकप्रिय नृत्य है, जो कि बहुत प्रचलित है. तो वहीं लंगविर नृत्य पुरुषों द्वारा किया जाने वाला एक कलाबाज़ी नृत्य है, जिसे देखने से दूर-दूर से लोग यहां पहुंचते हैं. पांडव नृत्य के द्वारा संगीत और नृत्य के रूप में महाभारत का वर्णन किया जाता है. धुरंग और धुरिंग भोटिया आदिवासियों के लोकप्रिय लोक नृत्य हैं.
छुरा चरवाहों के अनुभव और उनके द्वारा युवा पीढ़ी को दी गई सलाह के बारे में बात करता है.
बसंती गीतों की रचना यहां पर वसंत ऋतु के स्वागत के लिए की गई.
जागरों का प्रयोग भूत-प्रेतों की पूजा के दौरान किया जाता है.
विवाह समारोहों में यहां पर मंगल गीत गाए जाते हैं.
खुदेद एक ऐसी महिला की पीड़ा के बारे में बात करती है जो अपने पति से अलग हो जाती है.
बाजूबंद गीत चरवाहों के प्रेम और त्याग की बात करता है.
अगर उत्तराखंड के भोजन की बात करें तो यहां पर गढ़वाली व्यंजनों और कुमाऊंनी व्यंजनों का आधिपत्य है. यहां पर व्यंजनों में बहुत अधिक मसालों का प्रभुत्व नहीं है. अगर यहां के लोगों से जानें तो पता चलता है कि उत्तराखंड के कुछ सबसे प्रसिद्ध व्यंजन धीमी आग पर पकाए जाते हैं और इनमें दाल शामिल होती है. तो इस लेख में हम आपको बताते हैं कि, उत्तराखंड का सबसे स्वादिष्ट खाना क्या है जो मुँह में पानी ला देता है-
अगर आप यहां जा रहे हैं तो उड़द दाल के पकौड़े अवश्य खाएं जो कि अलग-अलग दालों से बनाए गए मसालेदार पकौड़े होते हैं.
चैनसू को काले चने की दाल से बनाया जाता है.
तो वहीं यहां पर भांग की चटनी बहुत पसंद की जाती है, जो कि एक खट्टी स्वाद वाली चटनी है जो भुनी हुई भांग और जीरे को नींबू के रस के साथ मिलाकर तैयार की जाती है.
यहां पर दाल से फानू बनाया जाता है और झंगोरे की खीर झंगोरे से बनाई जाने वाली एक मीठी डिश है.
बता दें कि यहां का मौसम ठंडा रहता है. इसलिए गढ़वाल की पहाड़ियों के निवासियों के कपड़े पहनने के अपने ढंग हैं. इसलिए यहां के लोग भेड़ या बकरी से प्राप्त ऊन का उपयोग करके ऊनी कपड़े तैयार कराते हैं और उसी को पहनते हैं. यहां के पुरुषों की पारंपरिक पोशाक की बात करें तो यहां पर करीब हर कोई एक जैसी ही ड्रेसिंग स्टाइल को फॉलो करता है. यहां पर सबसे अधिक पहना जाने वाला निचला परिधान या तो धोती या लुंगी है या फिर विभिन्न रंगों के कुर्ते ऊपरी परिधान के रूप में पहने जाते हैं. इसी के साथ ही इस पारंपरिक पोशाक को पूरा करने के लिए हेडगियर या पगड़ी का भी इस्तेमाल किया जाता है जो कि पूरे परिधान में चार चांद लगा देती है. तो इसके अलावा कुर्ता-पायजामा भी यहां के पुरुषों के बीच बहुत प्रचलित है. सर्दी के मौसम में पुरुषों के साथ-साथ महिलाएं भी ऊनी जैकेट के साथ-साथ स्वेटर भी कैरी करती हैं.
उत्तराखंड में महिलाओं के बीच घाघरी बहुत प्रचलित है. यह एक एक लंबी स्कर्ट है. यह एक सुंदर रंगीन चोली के साथ पहनी जाती है, जिसे भारतीय ब्लाउज कह सकते हैं. इसके साथ सिर को ढकने वाला एक कपड़ा है, यानी ओढ़नी या भी चुन्नी भी कह सकते हैं, होती है, जिसे महिलाएं तरह-तरह से कैरी करती हैं. यह पोशाक गढ़वाली और कुमाऊँनी दोनों ही महिलाओं की पारंपरिक पोशाक है. घाघरा-पिछोरा कुमाऊंनी महिलाओं की पारंपरिक दुल्हन पोशाक है जो घाघरा लहंगा-चोली की तरह ही होती है. बता दें कि पिछोरा एक कुमाउनी आवरण है जो कि घूंघट की तरह होता है. इसको सोने और चांदी की कढ़ाई से सजाया जाता है. इसी के साथ ही उत्तराखंड विभिन्न परंपराओं, जातीय समूहों और भाषाओं से सजा एक खूबसूरत राज्य है. अगर आप यहां जाने का प्लान कर रहे हैं तो जरूर जाएं, लेकिन यहां की सुंदरता देखने के बाद शायद ही आपका अपने शहर लौटने का मन करे.
-भारत एक्सप्रेस
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