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जब ‘मोदी’ ने ‘गब्बर’ का खात्मा किया था और नेहरू के जन्मदिन पर ये खबर उन्हें गिफ्ट में दी गई!

हिंदी सिनेमा के इतिहास में 1975 में आई कल्ट क्लासिक फिल्म ‘शोले’ उन फिल्मों में शुमार है, जिसके किरदार और डायलॉग आज भी लोगों द्वारा याद किए जाते हैं. शोले ने हमें एक खूंखार विलेन ‘गब्बर सिंह’ से परिचित कराया था, जो रामगढ़ गांव के लोगों के लिए आतंक का पर्याय हुआ था और जिसके जुल्म से आजादी दिलाने के लिए ‘ठाकुर साहब’ ने ‘जय’ और ‘वीरू’ को जिम्मेदारी सौंपी हुई थी.

रील लाइफ के गब्बर सिंह के जरिये हम रियल लाइफ के एक डकैत से आपका परिचय कराने जा रहे हैं. इनका नाम गब्बर सिंह गुज्जर था. मध्य प्रदेश में चंबल के बीहड़ में 50 के दशक में इस डकैत के आतंक का राज था. लोग उसके नाम से खौफ खाते थे. ऐसी चर्चा रही है कि शोले फिल्म में गब्बर का किरदार इसी से प्रेरित था, ऐसा इसलिए क्योंकि फिल्म की कुछ घटनाएं असल डाकू गब्बर सिंह से मेल खाती हैं.

इस डकैत ने उस समय के पुलिसवालों की नाक में दम कर रखा था. ऐसी खबरें हैं कि गब्बर सिंह को पकड़ने गए कई पुलिसकर्मियों की उसने नाक काट दी थी.

नाक काटने वाला डाकू

स्थानीय कहानियों के अनुसार, किसी तांत्रिक के कहने पर डाकू गब्बर सिंह ने पुलिसकर्मियों सहित अन्य लोगों की नाक काटनी शुरू कर दी थी. तांत्रिक ने उससे कहा था कि अगर वह 116 लोगों की नाक काटकर उन्हें अपनी कुल देवी को चढ़ाएगा तो पुलिस उसका बाल भी बांका नहीं कर सकेगी. मतलब पुलिस या किसी और की गोली उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाएगी. तांत्रिक की बात उसने गांठ बांध ली थी और लोगों की नाम काटने लगा था. उसके तमाम शिकार पुलिसकर्मी भी शामिल थे.

गरीब परिवार में जन्म

चंबल क्षेत्र की लोककथाओं का हिस्सा रहे गब्बर सिंह का जन्म 1926 में मध्य प्रदेश के भिंड जिले के डांग गांव में हुआ था. उसका नाम प्रीतम सिंह रखा गया था और प्यार से लोग उसे गबरा बुलाते थे. उसका परिवार गरीब था. गरीबी ऐसी कि दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना भी उसके लिए मुश्किल होता था.

उसके परिवार के पास खेती थी, लेकिन उससे गुजारा नहीं हो पाता था, इसलिए उसके पिता पत्थर की खदानों में मजदूरी किया करते थे. 16 साल की उम्र में वह भी खदान में काम करने लगा था.

समय बीता और जमीन के विवाद में एक बार कुछ लोगों ने गबरा के पिता को बुरी तरह से पीट दिया था. फिर पंचायत बुलाई गई और इसमें उसके पिता की जमीन को पंचायत ने अपने कब्जे में ले ली. गबरा ये सब बर्दाश्त नहीं कर सका और दो लोगों की हत्या कर फरार हो गया. ये 1955 की बात थी और गबरा 29 साल का हो चुका था.

पुलिस उसके पीछे पड़ी थी, इसलिए वह चंबल के बीहड़ों में शरण ली और उस समय के बड़े डाकू कल्याण सिंह गुज्जर के गिरोह में शामिल हो गया. हालांकि यह गठजोड़ लंबा नहीं चल पाया और अगले साल ही गब्बर ने अपना गिरोह बना लिया. इसके बाद गबरा हर दिन अपहरण, लूट और हत्या जैसी घटनाओं को अंजाम देने लगा और गब्बर सिंह के नाम से कुख्यात हो गया.

पूरे 50 हजार का इनाम

आगे चलकर उसकी क्रूरता ही उसकी पहचान बन गई. उस जमाने में मध्य प्रदेश के अलावा पड़ोसी राज्यों उत्तर प्रदेश और राजस्थान में भी उसके आतंक का राज कायम हो गया था. पुलिस उस पर लगाम लगाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन उसे सफलता नहीं मिल पा रही थी. इधर, वह पुलिसवालों को लगातार निशाना बनाता और उनकी नाक काट देता था.

ऐसा कहा जाता है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश की सरकारों ने 1959 में उसके सिर पर 50,000 रुपये इनाम घोषित किया था. उस समय यह भारत में किसी वांछित अपराधी के सिर पर रखा गया सबसे बड़ा इनाम था.

भिंड, ग्वालियर, ललितपुर, सागर, पन्ना और धौलपुर जैसे तकरीबन 15 जिलों में उसका इतना खौफ था कि जब भी कोई गब्बर का नाम लेता तो दूसरे लोग चुप हो जाते थे. साल 1957 तक थाने में उसके खिलाफ 200 से ज्यादा केस दर्ज हो चुके थे. गब्बर को अगर किसी पर मुखबिरी का शक होता था तो वो उसे सरेआम मार देता था. अपने कारनामों के कारण वजह से जल्द ही WANTED घोषित हो गया था.

खौफ का साम्राज्य

गब्बर सिंह की कहानियों को केएफ रुस्तमजी एक डायरी में दर्ज किया करते थे, जो 50 के दशक में मध्य प्रदेश के पुलिस महानिरीक्षक (IG) थे. बाद में पूर्व IPS अधिकारी पीवी राजगोपाल ने इसे एक किताब का रूप दिया, जिसका नाम The British The Bandits and The Border Men है.

गब्बर को पकड़ना मुश्किल था. उससे हुई मुठभेड़ में अक्सर पुलिस को ही नुकसान होता था. बताया जाता है कि उस दौर में चंबल में करीब 16 गैंग सक्रिय थे और गब्बर का गैंग सब पर भारी था. स्थिति इस कदर खतरनाक हो गई थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी डाकू गब्बर सिंह को लेकर चिंतित थे.

प्रधानमंत्री नेहरू की चिंता

दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के अनुसार, एक समय गब्बर को पकड़ने और उसकी जानकारी जुटाने के लिए पुलिस ने बच्चों को अपना मु​खबिर बना लिया था. हालांकि किसी तरह इसकी भनक गब्बर को लग गई तो उसने भिंड के एक गांव के 21 बच्चों की एक साथ गोली मारकर हत्या कर दी थी. इस घटना से गब्बर के खौफ की गूंज राष्ट्रीय स्तर पर पहुंच गई थी.

तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू को जब इस दर्दनाक घटना की खबर लगी तो वह चिंतित हो उठे. बच्चों के बीच वह चाचा नेहरू के नाम से प्रसिद्ध थे. कहा जाता है कि वह इस घटना को बर्दाश्त नहीं कर सके और उन्होंने अफसरों की मीटिंग बुलाकर किसी भी हालत में गब्बर का खात्मा करने का आदेश जारी कर दिया था.

शोले फिल्म में ठाकुर का किरदार निभाने वाले संजीव कुमार का एक डायलॉग था, ‘गब्बर चाहिए जिंदा या मुर्दा’. कहा जाता है ​कि इस फिल्म की रिलीज से 19 साल पहले 1956 में असल गब्बर को पकड़ने के आदेश देते वक्त ये डायलॉग मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कैलाश नाथ काटजू ने बोला था.

दिलचस्प बात यह है कि शोले की पटकथा लिखने वालों में से एक सलीम खान के पिता मध्य प्रदेश पुलिस में थे, इसलिए ऐसी चर्चा है कि वह गब्बर सिंह की कहानी से अच्छी तरह से वाकिफ थे और इसी से प्रेरित होकर उन्होंने शोले फिल्म की कहानी लिखी थी.

गब्बर के खात्मे की तैयारी

बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार, ये बात 1959 की है, गब्बर को खत्म करने की योजना पर मजबूती के साथ काम करना शुरू किया गया. मध्य प्रदेश सरकार ने गब्बर को पकड़ने के लिए एक विशेष टास्क फोर्स का गठन किया. डिप्टी एसपी राजेंद्र प्रसाद मोदी को इस टास्क फोर्स के प्रभारी बनाया गया था.

अपनी डायरी में रुस्तमजी ने बताया है कि गब्बर के ठिकाने के बारे में नवंबर 1959 में डिप्टी एसपी मोदी को एक गांववाले (जिसके बच्चे की जान मोदी ने बचाई थी) ने जानकारी दी थी. इस सूचना के बाद पुलिस और डकैतों के बीच जबर्दस्त संघर्ष हुआ. मोदी रात ढलने से पहले ऑपरेशन खत्म करना चाहते थे.

पुलिस का ये ऑपरेशन लोगों के सामने हुआ था. रेलवे लाइन पर रेल रोककर लोग रेलगाड़ी की छत से इसे देख रहे थे, तो हाइवे पर बसों की छतों पर लोगों ने इसे देखा. मुठभेड़ के दौरान मोदी, गब्बर के गैंग के काफी नजदीक पहुंच गए थे. उन्होंने दो ग्रेनेड फेंके और डाकुओं पर हमला किया. ग्रेनेड के प्रभाव से गब्बर सिंह का जबड़ा बुरी तरह जख्मी हो गया था और उसकी मौत हो गई.

इस तरह 13 नवंबर, 1959 को भिंड जिले के जगन्नाथ-का-पुरा गांव में पुलिस बल के साथ मुठभेड़ के दौरान गब्बर का खात्मा हो गया था. रुस्तमजी पहले जवाहरलाल नेहरू के विशेष सुरक्षा अधिकारी के रूप में काम चुके थे. कहा जाता है कि इसके अगले दिन 14 नवंबर को प्रधानमंत्री नेहरू का जन्मदिन था और उन्होंने गब्बर की मौत की खबर को उपहार के रूप में उन्हें दी थी.

-भारत एक्सप्रेस

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