देश की राजनीति में सियासी दलों के घोषणापत्र चुनावी दांव-पेंच का एक हिस्सा होते हैं लेकिन लगता है कि कर्नाटक में कांग्रेस का ये दांव उल्टा पड़ गया है। अपने घोषणापत्र में कांग्रेस ने तमाम वादों के साथ बजरंग दल पर पाबंदी कसने का जो दावा किया है वो उसके लिए जी का जंजाल बनता जा रहा है। इसके ऊपर कांग्रेस ने पहले से ही बैन पीएफआई को जिस तरह बजरंग दल के साथ जोड़ा है, उसने आग में और घी डालने का काम किया है। अब इस पर कांग्रेस से जो सवाल पूछे जा रहे हैं, उसका जवाब देना उसके लिए मुश्किल होता जा रहा है। इसके कारण एक तरफ उसका अच्छा-खासा चल रहा चुनाव प्रचार पटरी से उतरता दिख रहा है, तो दूसरी तरफ अब तक रक्षात्मक दिख रही बीजेपी को आक्रामक होने का मौका मिल गया है। खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह इसे मुद्दा बनाया है वो बेदम दिख रही बीजेपी के लिए संजीवनी बन गया है। ये भी दिलचस्प है कि अब तक कांग्रेस ही बीजेपी पर चुनावों में ध्रुवीकरण के आरोप लगाती रही है। अब खुद उसने बैठे-बिठाए अपने प्रतिद्वंद्वी को उसकी पिच पर खेलने का मौका दे दिया है।
क्या बजरंग दल की PFI जैसे आतंकी संगठन से तुलना जरूरी थी? हर कोई जानता है कि पीएफआई एक बैन किया हुआ संगठन है। देश के खिलाफ आतंकी गतिविधियों में शामिल सिमी में काम कर चुके लोग इसके सदस्य रहे हैं। खुद पीएफआई पर देश के खिलाफ साजिश और आतंकी संगठनों से साठगांठ के आरोप लगे थे। देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी एनआईए ने ही खुलासा किया था कि पीएफआई गजवा-ए-हिन्द को स्थापित करने के लिए फंडिंग कर रहा था। पटना में एनआईए की छापेमारी में पीएफआई के एक ठिकाने से भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने की साजिशों के सबूत जैसे देश विरोधी गतिविधियों से जुड़ा साहित्य और अलग झंडे मिले थे जिसके बाद PFI पर बैन लगाया गया। कर्नाटक की जिस जमीन पर इस वक्त चुनावी घमासान मचा हुआ है, वहां हिजाब विवाद और हिंदूवादी कार्यकर्ता की हत्या के मामले में पीएफआई की भूमिका जांच के घेरे में है।
दूसरी तरफ बेशक बजरंग दल भी विवादित संगठन रहा है। बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद नरसिम्हा राव सरकार ने इस पर बैन भी लगाया था। हालांकि करीब एक साल बाद उसकी भूमिका साबित नहीं होने के चलते इस बैन को हटा भी लिया गया था। देश में लव जिहाद, धर्म परिवर्तन से लेकर गोहत्या तक के मामलों में भी बजरंग दल काफी एक्टिव दिखा है। इस संगठन के लोगों को वैलेंटाइन-डे जैसे कई मौकों पर मोरल पुलिसिंग करते हुए भी देखा गया है जिसमें उन पर बदसलूकी के आरोप भी लगते रहे हैं। लेकिन इस सबके बावजूद बजरंग दल पर देश विरोधी काम का कोई आरोप साबित नहीं हुआ है।
तर्क-वितर्क को अलग भी रख दिया जाए तो सवाल है कि 80 फीसद हिंदू आबादी वाले कर्नाटक में कांग्रेस को ऐसा क्या चुनावी फायदा दिखा कि उसने उसी संगठन पर पाबंदी लगाने की बात कह डाली जो राज्य की बहुसंख्यक जनता की पैरवी करता रहा हो। सीधे तौर पर ये राज्य के मुस्लिम मतदाताओं को आकर्षित करने का प्रयास लगता है मानो कांग्रेस ये संदेश देना चाह रही हो कि केन्द्र ने पीएफआई पर बैन लगाया तो हम बजरंग दल पर पाबंदी लगाकर मामला बराबर कर रहे हैं। कर्नाटक में करीब 13 फीसद मुस्लिम मतदाता हैं जो 40 सीटों पर हार और जीत का अंतर तय करते हैं। हालांकि मुस्लिम मतदाताओं की मौजूदगी कर्नाटक के सभी जिलों में है लेकिन गुलबर्गा, बीदर, बीजापुर, रायचूर और धारवाड़ जैसे उत्तर कर्नाटक के इलाकों में इनकी निर्णायक संख्या है। इसी तरह कलबुर्गी-उत्तर, पुलकेशीनगर, शिवाजीनगर, जयानगर और पद्मनाभनगर तुमकुर, चामराजपेट कुछ अन्य विधानसभा क्षेत्र हैं जहां मुस्लिम मतदाताओं का बाहुल्य दिखता है। अब तक इनका वोट कांग्रेस और जेडीएस में बंटता आया है। कांग्रेस शायद सोच रही है कि अगर ये वोट एकमुश्त उसकी झोली में गिरता है तो राज्य में वो लंबे समय बाद बहुमत की ऐसी सरकार बना सकती है जिसमें चुनाव के बाद बगावत का खतरा न हो या जेडीएस पर निर्भरता न रहे जिसमें टूट की वजह से उसे पिछली बार सरकार बनाने के बाद भी विपक्ष में बैठना पड़ा था। जहां तक नुकसान की बात है, तो ये भी सच है कि बजरंग दल कोई ऐसा संगठन नहीं है जिसका हिंदुओं के बीच बहुत बड़ा सपोर्ट बेस हो। कर्नाटक के तटीय इलाके और दक्षिण कर्नाटक में इसका कुछ असर दिख सकता है लेकिन ये वो इलाके हैं जहां कांग्रेस के जीतने के आसार पहले से ही काफी कम हैं।
लेकिन बड़ा सवाल परसेप्शन का है जो इस विवाद के बाद बदला है। भले कर्नाटक के आम मतदाताओं में ये ज्यादा नहीं दिख रहा हो लेकिन प्रधानमंत्री की अगुवाई में बीजेपी के तीखे हमले और बजरंग दल के सड़क पर उतरने के बाद कांग्रेस बैकफुट पर तो दिख ही रही है। शुरुआत में जब तक कांग्रेस डटकर अपने स्टैंड पर कायम रही, तब तक भी ऐसा नहीं था। लेकिन वीरप्पा मोइली के यू-टर्न और डी शिवकुमार के प्रदेश भर में बजरंग बली के मंदिर बनवाने जैसे बयानों से डैमेज कंट्रोल के बजाय कांग्रेस की और किरकिरी हो रही है। ये विरोधाभास कांग्रेस सरकार के साल 2013 से 2018 के कार्यकाल में भी दिखा था जब मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने एसडीपीआई और पीएफआई के कार्यकर्ताओं के खिलाफ 176 मामले वापस लेने का आदेश दिया था। अब वही कांग्रेस पीएफआई को कट्टर संस्था मान रही है। कांग्रेस के इस तरह के फैसलों से ये संदेश जाता है कि वैचारिक मामलों पर उसकी दृढ़ता चुनावी नफे-नुकसान से ज्यादा संचालित होती है।
इस विवादित मसले के अलावा भी कांग्रेस के घोषणापत्र में काफी कुछ ऐसा है जो सामान्य नहीं दिखता जैसे कि उसके द्वारा दी गई पांच चुनावी गारंटियां। कांग्रेस ने इन गारंटियों को गृह ज्योति, गृह लक्ष्मी, अन्ना भाग्य, युवा निधि और शक्ति नाम दिए हैं। अगर कांग्रेस चुनाव जीतकर राज्य में अगली सरकार बनाती है तो उसकी चुनावी गारंटियों को पूरा करने में राज्य के खजाने से हजारों करोड़ रुपये खर्च हो सकते हैं। कांग्रेस इसकी भरपाई कैसे करेगी इस पर भी उसकी ओर से कोई स्पष्टता नहीं है? दरअसल अब तक बोम्मई सरकार पर भ्रष्टाचार के खिलाफ कांग्रेस का अभियान सिर चढ़कर बोल रहा था, इसलिए इस सवाल पर कांग्रेस से ज्यादा पूछ-परख नहीं हो रही थी। लेकिन अब बजरंग दल पर विवाद के बाद कर्नाटक में जब पलड़ा बराबर हो रहा है तो कांग्रेस को इस पर भी जवाब देना पड़ सकता है जो उसके लिए एक नई मुसीबत बन सकता है। हालांकि कांग्रेस के लिए ये राहत की बात होगी कि ये विवाद ऐसे समय उठा है जब मतदान में ज्यादा समय नहीं बचा है, लेकिन चुनावी राजनीति में ये बात भी तो कही जाती है कि मतदान से पहले की रात कयामत की रात होती है। उससे पहले कर्नाटक में अगले 72 घंटे का चुनाव प्रचार बहुत दिलचस्प होने जा रहा है।
-भारत एक्सप्रेस
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