क्या बिहार सरकार की जातीय गणना के नतीजों का पिछले साल नीतीश कुमार के बनाए गए नए सियासी गठबंधन से कोई कनेक्शन है? नीतीश की ‘दूर की सोच’ वाली राजनीति से भली-भांति परिचित लोग यकीनन इसका जवाब हां में देंगे और साथ में दलील भी देंगे कि अगस्त 2022 में बीजेपी का साथ छोड़कर लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के साथ गठबंधन सरकार बनाकर नीतीश ने बदले राजनीतिक रुख का जो संकेत दिया था, वही रणनीतिक पैंतरेबाजी आज जातीय गणना के रूप में हमारे सामने है। इंडिया गठबंधन अब पूरे देश में इस तरह की गिनती की मांग कर रहा है और बड़ा सवाल यह है कि जातीय गणना के जो आंकड़े सामने आए हैं, क्या वो चुनावी राजनीति, खासकर 2024 में विपक्ष के लिए संजीवनी साबित हो सकते हैं?
किसी भी जवाब से पहले इस जातीय गणना को उचित परिप्रेक्ष्य में रखे जाने की जरूरत है। यह वास्तव में एक ऐतिहासिक घटना है क्योंकि स्वतंत्र भारत में इतने बड़े पैमाने पर इस तरह का यह पहला अभ्यास है जहां परिणाम सार्वजनिक किए गए हैं। तमिलनाडु और कर्नाटक के अतिरिक्त तत्कालीन केन्द्र सरकार ने साल 2011 में सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना के माध्यम से व्यापक जाति डेटा एकत्र किया था लेकिन अस्पष्ट कारणों से इसे कभी प्रकट नहीं किया। दूसरी ओर, बिहार सरकार ने भी अभी तक जातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति से जुड़े महत्वपूर्ण आंकड़े जारी नहीं किए हैं। इसका सार्वजनिक किया जाना यकीनन जातीय गणना को लेकर एक बेहतर सामाजिक समझ बनाने में मदद करेगा, वरना जातीय गणना का असली मकसद आबादी नहीं बल्कि जातियों की गिनती के आरोप से मुक्त नहीं हो पाएगा।
जातीय गणना के आधार पर तैयार हुई रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में संख्या के लिहाज से सबसे बड़ा जाति समूह अत्यंत पिछड़ा वर्ग है, जिसकी संख्या 36.01 फीसद है। इसके बाद पिछड़ा वर्ग है जिसकी संख्या कुल आबादी का 27.12 फीसद है। अनुसूचित जाति यानी एससी वर्ग की तादाद 19.65 फीसद, अनुसूचित जनजाति यानी एसटी की संख्या 1.68 फीसद और सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी 15.52 फीसद है। 1931 की जनगणना के आधार पर बिहार में पिछले नौ दशक से ओबीसी की संख्या अब तक 52 फीसद मानी जाती रही है। लेकिन आबादी बढ़ने के साथ ओबीसी जातियों का पूरा गणित बदल गया है। जातीय गणना की रिपोर्ट के मुताबिक अत्यंत पिछड़ा वर्ग और पिछड़ा वर्ग को जोड़ लें, तो बिहार में ओबीसी जातियों की संख्या 63 फीसद से ज्यादा हो जाती है जो अब तक के अनुमानित आंकड़े से 11 फीसद ज्यादा है। जिस देश में महज एक वोट से केन्द्र की सरकार गिर जाने का इतिहास रहा हो, वहां इतना बड़ा अंतर पूरा का पूरा सियासी खेल पलटने की क्षमता रखता है। इसलिए भी ओबीसी की राजनीति करने वाली आरजेडी और जेडीयू जैसे दलों की बांछें खिलने और सवर्ण जातियों पर अपेक्षाकृत अधिक निर्भर बीजेपी के लिए इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद मुश्किलें बढ़ने का दावा किया जा रहा है।
जातीय गणना के आंकड़ों को लेकर इंडिया गठबंधन की तत्काल की समझ यह है कि इससे आने वाले दिनों में उसके पक्ष में तीन चीजें बदलेंगी। बेशक साल 2014 के बाद बीजेपी ने सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास का नारा बुलंद कर खुद को समावेशी समाज का प्रतिनिधि दल बताने की कोशिश की हो और काफी हद तक इसमें सफलता भी पाई हो, इसके बावजूद बहुसंख्यक हिंदुओं की राजनीति वाली पहचान उसके साथ आज भी मजबूती से चस्पा है। इंडिया गठबंधन को लग रहा है कि जातीय गणना ने धर्म की इस राजनीति के खिलाफ जातियों पर आधारित एक ऐसा ठोस एजेंडा दे दिया है जो बहुसंख्यक हिंदुओं की तरह बड़ी आबादी के साथ मेल खाता है। दूसरा इसमें बीते दिनों ओबीसी के पालनहार के रूप में बनी प्रधानमंत्री मोदी की छवि को चुनौती देने का दमखम भी दिखता है और तीसरा यह कि जातीय गणना के नतीजे मंडल पार्टियों को फिर से मजबूत कर सकते हैं। विपक्ष को लगता है कि ये तीनों बातें जुड़ेंगी तो अगले साल सत्ता बदल की संभावनाएं भी सच होंगी। बिहार की जातीय गणना में ओबीसी, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का जोड़ 84 फीसद बैठता है। इस संख्या को आधार बनाकर इंडिया गठबंधन जातीय गणना की पूरे देश में मांग करते हुए एक ऐसा सियासी नैरेटिव बनाने की कोशिश में हैं जो साल 2024 की चुनावी लड़ाई का परिणाम तय कर सकता है। उसे लगता है कि ऐसा करने से देश की 84 फीसद आबादी उसके पीछे आ जाएगी।
लेकिन भारत की चुनावी राजनीति का मजा ही इस बात में है कि यहां दो और दो चार नहीं होते हैं। भावनाओं का रसायन गणितीय जोड़ पर भारी पड़ जाता है। इसी बात को भांप कर कांग्रेस सांसद राहुल गांधी बार-बार ‘जितनी आबादी, उतना हक’ की बात कर रहे हैं ताकि देश की बड़ी आबादी को संख्या के आधार पर मिलने वाले लाभ का एहसास करवाकर लामबंद किया जा सके। संख्या की सियासत को लेकर यह एक तरह से यह कांग्रेस का यू-टर्न भी कहा जा सकता है क्योंकि यूपीए के कार्यकाल में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसके ठीक उलट देश के संसाधनों पर अल्पसंख्यकों के पहले अधिकार की पैरवी करते देखे-सुने गए थे। छत्तीसगढ़ के जगदलपुर की एक चुनावी रैली में इसे लेकर प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस पर निशाना भी साधा है। इसी रैली में प्रधानमंत्री ने देश के गरीबों को एक नई जाति के रूप में परिभाषित कर चुनावी सियासत को एक नया मोड़ भी दिया है। इस नई ‘जाति’ में वो 80 करोड़ लोग शामिल हैं जो कोरोना के मुश्किल समय के बाद से ही मुफ्त राशन की सुविधा पा रहे हैं। इसके अलावा राष्ट्रीय राजनीति में प्रधानमंत्री मोदी के उदय के बाद से बीजेपी ने ओबीसी और अनुसूचित जातियों में भी पैठ बढ़ाई है। साल 2014 के मुकाबले साल 2019 में बीजेपी को ओबीसी समाज के 10 फीसद ज्यादा वोट मिले थे। ठीक यही पैटर्न अनुसूचित जातियों के वोटरों में भी देखने को मिला जहां दस फीसद का उछाल आया। महिला आरक्षण इस बढ़त को और मजबूती दे सकता है। इसलिए भी अभी यह कहना जल्दबाजी हो सकती है कि जातीय गणना के आंकड़े साल 2024 के चुनाव में विपक्ष के लिए संजीवनी साबित हो सकते हैं। फिर अति-पिछड़ों में 100 से अधिक जातियां हैं। इस वर्ग का कोई सर्वमान्य नेता भी नहीं है। ऐसे में कोई एक दल इन जातियों का एकमुश्त समर्थन हासिल कर पाएगा, इस पर भी सवालिया निशान है।
सबसे बड़ी बात यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर जातीय गणना हमारे सामाजिक ताने-बाने और आरक्षण व्यवस्था दोनों के लिए बड़े स्तर पर परिवर्तनकारी हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट की ओर से आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसद तय की गई है। हालांकि तमिलनाडु, हरियाणा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों ने इस आंकड़े को पार करने के लिए कानून पारित किए हैं। भारत की मौजूदा जाति जनगणना डेटा 1951 से 2011 तक है, जिसमें केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का दस्तावेजीकरण किया गया है। केन्द्रीय कोटा व्यवस्था के अनुसार ओबीसी के लिए 27 फीसद सीटें अलग रखी गईं हैं। हालांकि जातीय गणना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि वास्तविक ओबीसी संख्या के अनुपात में आरक्षण के दूसरे लाभार्थी वर्गों की तुलना में बहुत कम है। अगर आरक्षण की वैधानिक सीमा में बढ़ोतरी नहीं होती है तो इसका युक्तियुक्तकरण समाज में विभेद को बढ़ावा दे सकता है क्योंकि आखिरकार एक वर्ग को दूसरे वर्ग का हिस्सा देकर ही लाभान्वित किया जा सकता है। बीजेपी दलील दे रही है कि राष्ट्रीय स्तर पर जातीय गणना विभाजन की भावनाओं को फिर से भड़काएगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हाल की अपनी सभी चुनावी रैलियों में इस बात को प्रमुखता से उठा रहे हैं कि इंडिया गठबंधन जाति के आधार पर समाज को बांटना चाहती है।
पिछली बार जब लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री थे, तब जातीय राजनीति की लहर ने बीजेपी ब्रांड के हिंदू ध्रुवीकरण को सफलतापूर्वक चुनौती दी थी। खुद को ओबीसी के नेता के रूप में प्रचारित करते हुए लालू प्रसाद यादव ने अयोध्या जा रहे लाल कृष्ण आडवाणी के रथ को भी रोक दिया था। यह भी माना गया कि इस कदम के पीछे जातीय कार्ड के साथ ही राज्य की मुस्लिम आबादी को आश्वस्ति देने की भावना भी थी। साल 1990 के दशक के राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डालें, तो साल 2023 में वैसी ही स्थितियां बनने की पूरी संभावना है। तब के दौर में उत्तर भारत में सियासी लड़ाई मंडल और कमंडल के बीच सिमट गई थी। एक तरफ मंडल आयोग की रिपोर्ट के परिणामस्वरूप आरक्षण का समर्थन करने वाले लोग थे तो दूसरी ओर हिंदुत्व राजनीति के समर्थक।
हालांकि दूसरी तरफ जातीय गणना की मदद से आर्थिक असमानता का बेहतर विश्लेषण किया जा सकता है। भारत में ओबीसी आबादी पर कोई दस्तावेजी डेटा नहीं है। विश्वसनीय डेटा के बिना विशिष्ट सकारात्मक कार्रवाई के लिए नीतियां बनाना असंभव है। जातीय गणना से यह मुश्किल आसान हो सकती है। मोटे तौर पर जातीय गणना एक ऐसी सामाजिक आवश्यकता है जो चुनावी राजनीति से कहीं आगे है और इसे उससे परे रखने की जरूरत भी है। लेकिन कड़वी हकीकत यह भी है कि ऐसा करना देश भर में जातीय गणना करवा लेने से कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण है।
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