गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजों को आए तीन दिन बीत चुके हैं लेकिन बीजेपी की जीत से जुड़े विश्लेषणों में ‘चमत्कारिक खुलासे’ थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। इनमें से ज्यादातर का भाव ऐसा है मानो गुजरात में बीजेपी की जीत के पीछे कोई ‘चमत्कार’ छिपा है। भारतीय राजनीति की मामूली समझ रखने वाले को भी चुनाव से पहले शायद ही इस बात पर कोई संशय रहा होगा कि गुजरात में बीजेपी फिर जीत रही है। लेकिन बीजेपी की जीत में ‘चमत्कार’ ढूंढ रहे लोग गलत भी नहीं हैं। गुजरात में जो कुछ भी हुआ है, वो दरअसल बीजेपी नहीं बल्कि आज के दौर की भारतीय राजनीति में करोड़ों परिवार के अटूट भरोसे का प्रतीक बन चुके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का करिश्मा और उनकी ही जीत है।
जीत की विशालता और उसका आकार निर्धारित करने वाले कई पैमाने मेरी इस मान्यता का सबसे बड़ा आधार है। इन्हीं पैमानों ने मोदी के विरोधी उन तमाम लोगों को एक बार फिर मुंह की खाने के लिए मजबूर किया है जो कुछ दिन पहले तक कह रहे थे कि अपनी पार्टी को हार से बचाने के लिए देश के प्रधानमंत्री को अहमदाबाद में 50 किलोमीटर लंबा रोड शो करना पड़ा। सच तो यह है कि चार घंटे के रोड शो या पांच दिन के चुनावी अभियान से ही गुजरात जैसी भारी जीत मिल जाती तो देश की चुनावी राजनीति में आए दिन चमत्कार हो रहे होते। दरअसल प्रधानमंत्री ने इस जीत की तैयारी पांच साल पहले 2017 में ही शुरू कर दी थी जब गुजरात की जनता ने बीजेपी की झोली में केवल 99 सीटें डाली थीं। इस भारी जीत की भूमिका तभी बन गई थी और इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए प्रधानमंत्री ने दिन-रात एक कर दिया। इसकी शुरुआत मोदी ने कांग्रेस में सेंध लगा कर की। आगे चलकर जनजातीय वोटरों में जनाधार रखने वाले नेता उनके निशाने पर आए। केन्द्रीय मंत्रिमंडल में सौराष्ट्र को अपेक्षाकृत ज्यादा तरजीह और गुजरात में पूरे-के-पूरे मंत्रिमंडल की अदला-बदली जैसे फैसले इसकी अगली कड़ी बने। बड़े से बड़े और कड़े से कड़े फैसले केवल राष्ट्रीय हित में ही नहीं, पार्टी हित में भी लिए गए। तत्कालीन मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री को हटाकर एक पाटीदार भूपेंद्र पटेल मुख्यमंत्री बनाए गए। फिर स्थानीय और जातिगत समीकरण दुरुस्त करने के लिए हार्दिक पटेल और ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर पार्टी में लाए गए और जब चुनाव का वक्त आया तो 40 विधायकों के टिकट काट भी दिए गए।
लेकिन यह सब रणनीतिक बदलाव हैं जिन्हें हर संगठन चुनावी संभावनाओं को लेकर अपनी समझ के मुताबिक आगे बढ़ता है। जिस एक वजह ने पूरा खेल बदला, वो है गुजराती अस्मिता। गुजरात का जो बेटा उत्तरप्रदेश को अपनी कर्मभूमि बनाकर दुनिया भर में देश का डंका बजा रहा हो, वो अपनी जन्मभूमि में ही मात खा जाए, ये गुजरात की जनता को भला कैसे गंवारा होता? प्रधानमंत्री ने लोगों से भावनात्मक अपील की और उन्हें कांग्रेस शासन के पुराने रिकॉर्ड की याद दिलाई। दो-दो बड़ी परियोजनाओं को महाराष्ट्र से गुजरात ले आना एक ऐसा साइलेंट मास्टर स्ट्रोक बना जिसने कई विपक्षियों की बोलती बंद कर दी। मैदान तैयार करने के बाद, प्रधानमंत्री ने गुजरात के कोने-कोने तक पहुंचकर अपने अभियान में पूरी ताकत लगा दी। एक तरह से उन्होंने गुजरात चुनाव को खुद पर एक जनमत संग्रह बना दिया। नतीजा उन्हीं के शब्दों को दोहराएं तो गुजरात की जनता ने रिकॉर्ड तोड़ने का रिकॉर्ड बना दिया। बीजेपी ने 182 में से 156 सीटों पर जीत हासिल की और आधे से अधिक लोकप्रिय वोट शेयर ने राज्य में उसके सातवें कार्यकाल का मार्ग प्रशस्त कर दिया। गुजरात के चुनावी इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। ये साबित करता है कि मोदी बिना शक ‘गुजरात के पर्यायवाची’ हैं।
और ये सब तब हुआ है जब दिल्ली के कचरे के पहाड़ की तरह गुजरात में भी मुद्दों का अंबार लगा हुआ था। महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, औसत स्वास्थ्य सेवाएं, बढ़ती शिशु-मातृ मृत्यु दर, मोरबी हादसा – मुद्दों की कोई कमी थी क्या? लेकिन जो जनता नेतृत्व से नाराजगी पर ‘सिंहासन खाली करो’ का नारा बुलंद कर सकती है, वही जनता अपने नेता से लगाव होने पर सिंहासन सजाने का काम भी करती है। गुजरात इसी बात की बानगी बना है जहां प्रधानमंत्री मोदी के लिए गुजरात की जनता का मर-मिटने का भाव हर मुद्दे पर भारी पड़ गया।
हिमाचल प्रदेश का नतीजा इस बात का दूसरा प्रमाण है। प्रधानमंत्री तो वहां भी चुनाव प्रचार के लिए गए थे, राज बचाने के लिए बीजेपी ने वहां भी एड़ी-चोटी का जोर लगाया था, मुकाबला वहां भी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी से ही था, लेकिन रिवाज नहीं बदल पाए। एंटी इन्कम्बेंसी और लचर शासन ऐसा भारी पड़ा कि निवर्तमान मुख्यमंत्री के अलावा केवल ऊर्जा मंत्री अपनी सीट बचा पाए, बाकी सभी मंत्री चुनाव हार गए।
गुजरात में बेमन से चुनाव मैदान में उतरी कांग्रेस के पास हिमाचल में भी नेतृत्व का टोटा था, लेकिन यहां मुद्दे उसके तारणहार बन गए। पुरानी पेंशन स्कीम, अग्निवीर, सेब उत्पादकों की समस्या जैसे स्थानीय मुद्दों ने कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाया। जीत हासिल करने के लिए कांग्रेस ने अपनी रणनीति में भी कई बदलाव किए – प्रियंका गांधी की अगुवाई में स्थानीय नेताओं को आगे रखा, राष्ट्रीय नेतृत्व ज्यादातर नेपथ्य में रहा, प्रधानमंत्री पर हमलों को टाला गया और बीजेपी को भावनात्मक मुद्दे पर चुनौती नहीं दी गई। सीधे तौर पर इस मुकाबले को प्रधानमंत्री बनाम कौन की जंग में बदलने से रोकने में कांग्रेस कामयाब रही जो वो गुजरात में नहीं कर पाई। अगले साल मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में उम्मीद है कि कांग्रेस इस रणनीति को वहां भी आजमा सकती है। गुजरात में इस बार कांग्रेस के प्रदर्शन से कोई धारणा बना लेने का कोई फायदा नहीं है क्योंकि मोदी मैजिक की सुनामी में वो कोई रणनीति बना भी लेती तो वो काम नहीं करती।
गुजरात के संदर्भ में आम आदमी पार्टी पर चर्चा तुलनात्मक रूप से ज्यादा प्रासंगिक होगी जो दिल्ली और पंजाब के बाद अब प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के राज्य में भी पैर जमाने में कामयाब रही है। इस चुनाव में आम आदमी पार्टी ने राष्ट्रीय पार्टी बनने के लिए पर्याप्त वोट ही नहीं बटोरे, बल्कि दशकों में पहली बार कांग्रेस के वोट शेयर को भी 30 फीसद से नीचे ला दिया। ऐसे समय में जब बीएसपी, एनसीपी, टीएमसी, सीपीआई, सीपीएम जैसे दूसरे राष्ट्रीय दल अपने-अपने प्रभाव वाले क्षेत्र से बाहर विस्तार करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वहां अगले लोकसभा चुनाव की दौड़ में आम आदमी पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की जगह लेने के लिए एक गंभीर दावेदार के रूप में उभर रही है। ग्लोबल मार्केट रिसर्च फर्म YouGov और दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) का इस साल की शुरुआत में देश के 200 से ज्यादा शहरों और कस्बों में किया गया सर्वेक्षण इस अनुमान को पुष्ट करता है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि आम आदमी पार्टी हर चुनाव में कांग्रेस को पटखनी देगी, लेकिन वो उसकी जगह पर राजनीतिक दावेदार जरूर बन गई है। दिल्ली में सरकार बनाने के बाद अब एमसीडी पर कब्जा कर उसने देश की राजधानी को तो एक तरह से कांग्रेस मुक्त कर ही दिया है। हालांकि हिमाचल में उसका खाता भी नहीं खुल पाना, गोवा-उत्तराखंड में ‘वोटकटवा’ वाली भूमिका, दिल्ली से लेकर गुजरात तक उसको लेकर नकारात्मक प्रचार और पार्टी के अकेले चेहरे अरविंद केजरीवाल के अतिरेक से भरे दावों का एक-के-बाद-एक गलत साबित होना आम आदमी पार्टी की विश्वसनीयता को कठघरे में भी खड़ा करता है।
सार यही है कि प्रधानमंत्री मोदी की जनमानस के बीच अपील बरकरार है और वह अब 2024 में लोकसभा चुनाव की लड़ाई में विपक्ष का मुकाबला करने के लिए पहले से कहीं अधिक तैयार दिख रहे हैं। प्रधानमंत्री का करिश्मा और मतदाताओं से जुड़ाव बीजेपी की सबसे बड़ी ताकत है लेकिन वही पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी भी है। राजनीतिक समीकरण से उनके हटते ही बीजेपी भी कमजोर दिखती है। प्रधानमंत्री पर उसकी अति निर्भरता एक तरह से स्थानीय नेतृत्व की कमजोरी की एक स्वीकारोक्ति भी है। हिमाचल इसका ताजा उदाहरण है जिसने बताया है कि राज्य के चुनावों में अकेले दम पर बीजेपी को आगे बढ़ाने की प्रधानमंत्री की जबरदस्त क्षमता की भी एक सीमा है। राष्ट्रीय राजनीति में अपेक्षाकृत कमजोर दिख रहा विपक्ष इस स्थिति से कितनी संजीवनी ले सकेगा, ये उसके रणनीतिक कौशल पर निर्भर करेगा और आगे चलकर 2024 में उसका राजनीतिक भविष्य भी तय करेगा।
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