पड़ोसी धर्म क्या होता है? सुख-दुख में मिल-जुलकर प्रेम से रहना और जब कोई परेशानी आए तो पड़ोसी का साथ देना। लेकिन अगर पड़ोसी ही परेशानी की वजह बन जाए तो इस पर ‘पड़ोसी धर्म’ क्या कहता है? बदलते वक्त के साथ इस प्रश्न का उत्तर भी बदला है और देश में अब एक बार फिर नए सिरे से इसके जवाब की तलाश हो रही है। इसकी वजह बना है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल का वो बयान जिसमें उन्होंने दाने-दाने के लिए तरस रहे हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान को मानवीय मदद के तौर पर बिना मांगे 10-20 लाख टन गेहूं भेजने की बात कही है। ‘हम सर्वे भवन्तु सुखिना में विश्वास वाले देश हैं और हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए। आज से 70 साल पहले हम एक ही थे।’ गोवर्धन मठ पुरी के शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानंद सरस्वती जी महाराज ने भी आर्थिक संकट से घिरे पाकिस्तान की सहायता करने की बात कही है लेकिन साथ में ये भी जोड़ दिया है कि यदि कोई दुरुपयोग न हो, तो मदद करने में कोई बुराई नहीं है।
नई परिस्थितियों में पड़ोसी धर्म के सवाल की मीमांसा करने से पहले इन बयानों की वजह को भी समझने की जरूरत है। दरअसल कंगाली की वजह से पाकिस्तानी सरकार पिछले कुछ समय से अपने नागरिकों को रोजमर्रा की जरूरतों में शामिल साधारण चीजें भी उपलब्ध नहीं करवा पा रही है। खासकर वहां गेहूं की भारी किल्लत है जिसके कारण खुले बाजार में आटे की कीमतें आसमान छू रही हैं। पाकिस्तान में आटा आम तौर पर 145 रुपए प्रति किलो और कहीं-कहीं तो 160 रुपए तक में मिल रहा है। इस्लामाबाद और रावलपिंडी में एक रोटी 30 पाकिस्तानी रुपये में बिक रही है। 48 साल की सबसे ऊंची महंगाई दर और पाकिस्तानी मुद्रा में लगातार गिरावट के फेर में फंसी वहां की आम अवाम के लिए भूखे मरने की नौबत आ गई है। सरकारी दामों पर मिल रहे आटे की आपूर्ति ऊंट के मुंह में जीरे समान है जिसका नजारा आटे की गाड़ियों के पीछे भागते आम पाकिस्तानी की वायरल तस्वीरों के जरिए पूरी दुनिया देख रही है।
कृषि प्रधान देश होने के बावजूद पाकिस्तान पिछले दो वर्षों से अपनी जरूरत पूरी करने के लिए गेहूं आयात करने पर मजबूर है। इसकी कई वजह हैं- रूस-यूक्रेन युद्ध, सिंध में पिछले साल आई बाढ़ के कारण कम उपज और बड़ी मात्रा में गेहूं की अच्छी किस्म की अफगानिस्तान में तस्करी। घरेलू जरूरत पूरी करने के लिए पाकिस्तान को पिछले साल दूसरे देशों से 20 लाख टन गेहूं मंगवाना पड़ा था। इस साल आयात बढ़कर 30 लाख टन हो गया है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार पाकिस्तान चालू वित्तीय वर्ष के पहले नौ महीनों में 80 करोड़ डॉलर का गेहूं आयात कर चुका है। विदेशी मुद्रा का हाल ये है कि पाकिस्तान के पास अब केवल तीन सप्ताह के आयात का पैसा बचा है, यानी कोई बाहरी मदद नहीं आई तो अगले एक महीने से भी कम समय में पाकिस्तान दाने-दाने के लिए मोहताज हो सकता है।
इस हालत के लिए पाकिस्तान खुद जिम्मेदार है। दरअसल पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 खत्म करने के फैसले के विरोध में भारत के साथ व्यापारिक रिश्ते खत्म कर लिए थे। अगर पाकिस्तान ने भारत के साथ अपने रिश्ते ठीक रखे होते तो इस आयात खर्च में भारी कमी आती। रूस, यूएई, मिस्र, ब्राजील जैसे दूर देशों से आयात करने में पाकिस्तान का शिपिंग चार्ज काफी बढ़ गया है और डॉलर के मुकाबले पाकिस्तानी रुपये के अवमूल्यन ने इस मुसीबत को और बड़ा बना दिया है। जब रिश्ते थोड़े बेहतर थे, तब दोनों देशों के बीच अधिकतर व्यापार सड़क मार्ग से ट्रकों के माध्यम से होता था। इससे आयात का खर्च काफी कम आता था। लेकिन 5 अगस्त 2019 के बाद द्विपक्षीय व्यापार लगभग नगण्य हो गया। भारत अपने पड़ोसी देशों को जिस दर पर गेहूं बेच रहा है, पाकिस्तान को दूसरे देशों से गेहूं खरीद के लिए उससे कहीं अधिक पैसे देने पड़ रहे हैं। बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, यूएई, कतर, ओमान, श्रीलंका जैसे लगभग सभी पड़ोसी देश भारत से गेहूं, चीनी आदि वस्तुओं का आयात अपेक्षाकृत कम खर्च पर कर रहे हैं। अब तो अफगानिस्तान भी भारत से गेहूं ले रहा है। पाकिस्तान अकड़ नहीं दिखाता तो आयात पर हो रहे भारी-भरकम खर्च का उपयोग वो अपने देश की माली हालत सुधारने और कर्ज चुकाने में कर सकता था।
भारत तो वैसे भी वसुधैव कुटुंबकम की संस्कृति वाला देश रहा है जिसमें पड़ोसी ही क्या पूरी दुनिया को एक परिवार मानने का भाव है। सत्ता में आने के बाद से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार ने इस महान परंपरा को कई मौकों पर नया आयाम दिया है। नेपाल को भूकंप में मदद के लिए ‘ऑपरेशन मैत्री’ हो या यूक्रेन से भारत समेत दूसरे देशों के लोगों की सुरक्षित वापसी के लिए ‘ऑपरेशन गंगा’ हो या फिर महामारी से कराह रही मानवता पर मरहम लगाने के लिए मुफ्त वैक्सीन उपलब्ध करवाना हो, भारत हर मुश्किल वक्त पर सबसे आगे खड़ा दिखा है। भारत जी-20 की अध्यक्षता कर रहा है तो उसकी थीम भी ‘एक धरती, एक परिवार, एक भविष्य’ रखी गई है। आज किसी त्रासदी के बीच तिरंगे का पहुंचना आपदा से उबरने की सबसे बड़ी उम्मीद बन गया है। हाल ही में तुर्किए और सीरिया में आए भूकंप में ‘ऑपरेशन दोस्त’ ने भी तिरंगे की इस नई पहचान का परचम लहराया है। हमने मदद का हाथ इस तथ्य के बावजूद बढ़ाया कि कश्मीर मुद्दे को बार-बार उठाने में तुर्किए हमेशा पाकिस्तान का साथ देता है। कालांतर में जब हमने उसकी मदद के लिए गेहूं भेजा तो उसने गेहूं में रुबेला वायरस होने का आरोप लगाकर उसे वापस लौटा दिया था। इतना ही नहीं, तुर्किए ने पाकिस्तान के साथ साझेदारी में एक युद्धपोत बनाने का ऐलान किया हुआ है जो यकीनी तौर पर भारत के लिए एक चेतावनी है। इन सबके बावजूद जब बात मानवता की आई तो भारत ने अतीत की कड़वी यादों को भुलाकर सर्वे भवन्तु सुखिन: और वसुधैव कुटुंबकम के आदर्श को अंगीकार करते हुए तुर्किए की भी मदद की है। तमाम कड़वाहट ताक पर रखकर भारत ने तो पाकिस्तानी विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी को मई में गोवा में शंघाई सहयोग संगठन के विदेश मंत्रियों की बैठक में शामिल होने के लिए भी आमंत्रण भेजा है।
फिर दिक्कत कहां है? वो इस मसले से जुड़े तीसरे बयान से समझ आती है जो दरअसल पड़ोसी धर्म के नए मायने की तलाश को पूरा करता है। ये बयान आया है भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर की ओर से जिसे इस मामले में भारत सरकार के औपचारिक जवाब के रूप में देखा-समझा जा सकता है। एस जयशंकर के मुताबिक किसी देश को गंभीर आर्थिक कठिनाइयों में देखना उसके पड़ोसी के लिए हितकारी नहीं है लेकिन केवल इसी आधार पर पाकिस्तान की अन्य पड़ोसी देशों से तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि इन देशों ने पाकिस्तान की तरह आतंकवाद को अपना मूल उद्योग नहीं बनाया है। और क्योंकि पाकिस्तान में फल-फूल रहे इस आतंकवाद का निशाना भारत पर है इसलिए ये भी जरूरी है कि इस मामले में कोई बड़ा फैसला लेते समय स्थानीय जनभावना का भी ध्यान रखा जाए। हकीकत ये है कि पाकिस्तान की हरकतों के कारण भारत के जन-जन की भावना में कभी उसे लेकर आश्वस्ति का भाव नहीं रहा। इसलिए पड़ोसी धर्म का लाभार्थी बनने के लिए पाकिस्तान के लिए ये जरूरी है कि पहले वो खुद को बदले और मुश्किलों से बाहर निकलने के लिए नीतिगत विकल्प तलाशे। सही भी है, भगवान भी उन्हीं की मदद करते हैं जो खुद अपनी मदद करना चाहते हैं।
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