पाकिस्तान एक बार फिर अनिश्चितता के गर्त में पहुंच गया है। पिछले साल अप्रैल में इमरान खान के सत्ता से बाहर होने के बाद से बने राजनीतिक अस्थिरता के हालात अब समय से पहले नेशनल असेंबली भंग कर दिए जाने के बाद और भी खराब हो गए हैं। भ्रष्टाचार के आरोप में निष्कासन के बाद इमरान को जेल जाना पड़ा और उनकी पार्टी, पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पर एक महीने तक कार्रवाई चली। इमरान खान के सत्ता से बाहर होने के बाद उन्हें रोके रखने के लिए पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी जैसी प्रतिद्वंद्वी पार्टियां सरकार बनाने के लिए एक साथ आईं लेकिन यह असंभावित गठबंधन भी सत्ता में अपने 18 महीने के कार्यकाल में कोई कमाल नहीं दिखा पाया।
पाकिस्तान के संविधान के अनुसार यदि नेशनल असेंबली अपना कार्यकाल पूरा कर लेती है, तो चुनाव आयोग को 60 दिनों के भीतर आम चुनाव कराने होंगे। लेकिन नेशनल असेंबली को अपने तय समय से महज तीन दिन पहले भंग कर निवर्तमान प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने इसमें 30 दिनों की और मोहलत हासिल कर ली है। हालांकि संकेत इस बात के हैं कि चुनाव में और भी देरी हो सकती है। पाकिस्तान की पहली राष्ट्रव्यापी जनसंख्या और आवास डिजिटल जनगणना इस साल मार्च में की गई थी जिसके आंकड़े मई में प्रकाशित हुए थे। सरकार का कहना है कि नए आंकड़े सामने आने के बाद चुनाव आयोग को निर्वाचन क्षेत्र के परिसीमन के लिए कम से कम छह महीने का समय चाहिए।
लेकिन क्या चुनाव कराने से ही पाकिस्तान के हालात सुधर सकते हैं? वहां जो तीन राजनीतिक विकल्प मौजूद हैं, उनमें से दो ने गठबंधन बनाकर सरकार चला ली लेकिन न तो देश की हालत सुधार सकी, न ही जनता का विश्वास जीतने में कामयाब हो पाए। तीसरा विकल्प इमरान खान का हो सकता था जो फिलहाल जेल में हैं और अभी की स्थितियों में अगले पांच साल तक उनके चुनाव लड़ने पर पाबंदी है। इमरान ने सेना से लोहा लेने का दुस्साहस भी किया था और उनका ये दांव उल्टा पड़ गया। इसके बाद भी यदि इमरान खान ने अपनी पार्टी को जोड़ कर रखा होता और चुनाव का इंतजार करते तो नतीजा शायद बेहतर हो सकता था। लेकिन अब एक तरफ उनके सभी बड़े नेता पार्टी छोड़कर चले गए हैं, तो दूसरी तरफ उम्र भी इमरान पर हावी हो रही है। एक और समस्या इमरान का अड़ियल रुख है। समझौता करने की अपनी क्षमता के कारण नवाज शरीफ और बेनजीर भुट्टो ने इससे भी मुश्किल हालात में पाकिस्तान की राजनीति में कई बार वापसी की, लेकिन इमरान के साथ वैसी भी संभावना नहीं है। इतना ही नहीं, उनके अधिकांश कट्टरपंथी समर्थक भी समझौता शब्द को नापसंद करते हैं। इसके अलावा चुनाव में मिली जीत को इमरान ने हमेशा अकेले अपने दमखम और लोकप्रियता का परिणाम समझा। इसलिए उन्होंने अपने गठबंधन सहयोगियों को कभी वो तवज्जो नहीं दी कि इस मुश्किल वक्त में वो उनके साथ खड़े रहते। दूसरी ओर, शाहबाज शरीफ और आसिफ अली जरदारी उनसे बेहतर गठबंधन निर्माता साबित हुए हैं। पाकिस्तान में भी युवाओं की बहुत बड़ी आबादी है और उनके अंदर बड़े बदलाव की चाहत है। हो भी क्यों नहीं, क्योंकि उदाहरण के लिए उनके सामने पड़ोसी देश भारत का मजबूत लोकतंत्र और ताकतवर सरकार है जिसकी आज दुनिया में धाक है। ऐसे में आने वाले वक्त में वहां की अवाम का रुख कैसा रहेगा, यह देखने वाली बात होगी। क्या ऐसा भी हो सकता है कि पाकिस्तान में आज जैसे हालात हो गए हैं, उसमें राजनीतिक प्रक्रिया से लोगों का पूरी तरह मोहभंग हो जाए?
यह करेले पर नीम चढ़े वाली स्थिति हो जाएगी। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 3 अरब डॉलर मिलने के बाद पाकिस्तान की इकॉनमी बड़ी मुश्किल से दिवालिया होने से बची है। पाकिस्तान ब्यूरो ऑफ स्टैटिस्टिक्स (पीबीएस) की ओर से जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, नकदी संकट से जूझ रहे देश में महंगाई की दर जुलाई में बढ़कर 28.3 प्रतिशत तक पहुंच गई है जिसने बेरोजगारी के बीच भुखमरी के संकट को और बढ़ा दिया है। पाकिस्तान के राजनीतिक क्षेत्र में अब और किसी भी तरह की अस्थिरता आर्थिक हालात को और बिगाड़ सकती है।
ऐसे में पाकिस्तानी फौज और देश का चुनाव आयोग मिलकर ऐसे प्रधानमंत्री पर भी दांव लगा सकते हैं जो गैर सियासी हो और देश की इकॉनमी को पटरी पर ला सकता हो। हालांकि अब वहां तीन बार देश के प्रधानमंत्री रह चुके नवाज शरीफ की वापसी की अटकलें भी तेज हो गई हैं। शहबाज शरीफ ने कहा है कि नवाज शरीफ सितंबर में देश लौटेंगे और कानून का सामना करेंगे। एक पाकिस्तानी टीवी चैनल पर शहबाज शरीफ ने इस बात के भी संकेत दिए हैं कि नवाज शरीफ पीएमएलएन के चुनावी अभियान का नेतृत्व करेंगे और जीतने पर वही प्रधानमंत्री भी बनेंगे। तो एक संभावना यह है कि जब भी अगले चुनाव होंगे, तो नवाज शरीफ और जरदारी के साथ सत्तारूढ़ गठबंधन पाकिस्तान डेमोक्रेटिक फ्रंट की कमान संभाल रहे मौलाना फजल-उर-रहमान एक बार फिर सरकार बनाने में कामयाब हो जाएंगे।
यानी आने वाले दिनों में भी पाकिस्तान के पुरानी लकीर पर ही आगे बढ़ने की सूरत दिखाई दे रही है। लेकिन इसके लिए भी वहां की अवाम को अगले साल फरवरी या मार्च का इंतजार करना होगा। संयोग से यही वो समय होगा जब भारत में भी आम चुनाव का माहौल परवान चढ़ रहा होगा। यह कितना बड़ा विरोधाभास है कि पाकिस्तान का निर्माण भारत के आजाद होने से एक दिन पहले हुआ था, लेकिन आज पूरी दुनिया भारत और पाकिस्तान के बीच अंतर देख रही है। आज भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। आज का भारत 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देता है, जबकि पाकिस्तान में एक किलो आटे के लिए भी मारामारी है। भारत सुख-समृद्धि का प्रतीक है, जबकि पाकिस्तान के लोग दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहे हैं। यही वजह है कि बीते कुछ वर्षों में पाकिस्तानी अवाम की ओर से भारत की मोदी जैसी सरकार की मांग जोर पकड़ रही है। अस्थिर सरकार, सैन्य तानाशाही और आतंकी संगठनों को समर्थन देने की नीति ने लंबे समय से पाकिस्तान की दुर्गति कर रखी है। दुनिया की कोई भी कंपनी वहां कारोबार करने को तैयार नहीं है। देश से उद्योग-धंधे बाहर जा रहे हैं। पाकिस्तान के आज के जो हालात हैं, उसमें कोई सोच भी नहीं सकता कि साठ के दशक में उसकी प्रति व्यक्ति आय भारत से बेहतर थी। नब्बे के दशक तक भी दोनों देशों की जीडीपी बराबर थी। तब भी कई सामाजिक-आर्थिक पैमानों पर पाकिस्तान भारत से बेहतर स्थिति में था। लेकिन इसके बाद तस्वीर लगातार बदलती गई है। केवल तीन दशक के कालखंड में पाकिस्तान कंगाली के रसातल में डूब चुका है, जबकि भारत नई-नई ऊंचाइयों की बुलंदियों को बौना साबित कर रहा है। आज भारत की जीडीपी पाकिस्तान से करीब 10 गुना बड़ी हो चुकी है, जबकि पाकिस्तान की इकॉनमी महाराष्ट्र से भी कम हो गई है। भारत के कई और राज्य भी पाकिस्तान को पीछे छोड़ने की तैयारी में हैं। आज भारत का विदेशी मुद्रा भंडार पाकिस्तान से करीब 200 गुना ज्यादा है। अब तो पाकिस्तान के नेता भी भारत का लोहा मानने लगे हैं और दुनिया टॉप-3 इकॉनमी में हमारी एंट्री की बातें करने लगी है।
केवल अर्थव्यवस्था ही नहीं, आज का भारत करीब-करीब हर सेक्टर में विश्वगुरु की हैसियत रखता है। सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान भी खुद को लेकर विश्व का दृष्टिकोण बदलने की कोई सोच या सामर्थ्य रखता है? या फिर आंतरिक संघर्ष, अवाम का शोषण और आतंक का पोषण ही आगे भी पाकिस्तान की पहचान बने रहेंगे? एक राष्ट्र के रूप में हमारी तमाम उपलब्धियों के बाद क्या हमारे लिए भी यह सतत चिंता का विषय बना रहेगा क्योंकि कोई भी देश ऐसे पड़ोसी से निश्चिंत नहीं रह सकता जो स्थायी अस्थिरता के दलदल में फंसा हो।
-भारत एक्सप्रेस
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