Siyasi Kissa: देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का 1965 में निधन होने के बाद ये सवाल उठ रहे थे कि अब देश का कौन प्रधानमंत्री होगा. ये चर्चा न केवल भारत बल्कि विदेशों में भी थी. इसी चर्चा के बीच ये संयोग ही था कि छोटे कद के लाल बहादुर शास्त्री भारत के प्रधानमंत्री बन गए तो दूसरी ओर पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खान भारत से कश्मीर हथियाने की फिराक में थे और उनको ये सही मौका लगा कि वह भारत से कश्मीर छीन सकते हैं. इसी गलतफहमी में पाकिस्तान ने ऑपरेशन जिब्राल्टर लॉन्च किया और जम्मू-कश्मीर में अपनी सेना भेज दी.
पाकिस्तान के राष्ट्रपति को अंदाजा भी नहीं था कि उन्होने कितनी बड़ी गलती की. भारत ने पलटवार किया और 1 महीने बाद 23 सितंबर 1965 को युद्ध रुक गया. पाकिस्तान को करारी हार का मुंह देखना पड़ा. इस युद्ध में भारतीय सेना लाहौर तक पहुंच चुकी थी. इसके बाद प्रधानमंत्री शास्त्री ने दिल्ली के राम लीला मैदान में एक रैली की और देश को संबोधित करते हुए कहा, ‘पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खान कह रहे थे कि वे टहलते हुए दिल्ली पहुंच जाएंगे. जब ये इरादा हो तो हम भी थोड़ा टहलते हुए लाहौर चले गए. मैं समझता हूं कि इसमें हमने कोई गलत बात तो नहीं की.’
लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 यूपी के मुगलसराय में हुआ था. वह महात्मा गांधी से काफी प्रभावित थे. वह पार्टी में शीर्ष नेताओं के बीच प्रमुखता से छा गए थे. जानकारों की मानें तो ये सब अचानक नहीं हुआ था. बल्कि इसके पीछे कई कारण थे. तब भारत की राजनीति में कुछ ऐसा संयोग बना था कि शास्त्री प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुंच गए थे.
27 मई 1964 को देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) के निधन होने के बाद से ही ये बहस छिड़ गई थी कि अब भारत का प्रधानमंत्री कौन होगा? उस समय देश में नई व्यवस्था थी और उत्तराधिकारी पहले से तय करने की कोई परंपरा या सिद्धांत नहीं था. ऐसे में देश के दूसरे प्रधानमंत्री बनने के कई दावेदार खड़े हो गए थे. हालांकि लाल बहादुर शास्त्री के प्रधानमंत्री बनने को लेकर एक संयोग कहा जाता है लेकिन कुछ जानकार इसे संयोग नहीं मनाते. दरअसल उनका नेहरू का उत्तराधिकारी बनना बिल्कुल स्वाभाविक भी नहीं था. हालांकि ऐसा कहा जाता है कि नेहरू ने अपने अंतिम दिनों में प्रधानमंत्री रहते हुए शास्त्री को अपनी बहुत कुछ जिम्मेदारियां सौंपनी शुरू कर दी थी और यही वजह थी कि पार्टी में ये संदेश जाने लगा था कि वो उन्हें अगले प्रधानमंत्री पद के रूप में तैयार कर रहे हैं.
फिर भी शास्त्री के लिए प्रधानमंत्री बनने की राह बहुत आसान नहीं थी. क्योंकि उस समय पीएम पद की दौड़ में गुलजारी लाल नंदा, जय प्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई का नाम भी चल रहा था जो कि शास्त्री को कड़ी टक्कर दे रहे थे. गुलजारी लाल नंदा उस समय तत्कालीन गृह मंत्री थे. इस वजह से मंत्रिमंडल में भी वह दूसरे नम्बर पर थे और मोरारजी देसाई भी थे, जिनकी जनता के बीच अच्छी पकड़ थी. जय प्रकाश नारायण भी जनता के बीच काफी शुमार थे. हालांकि तमाम चर्चा के बाद मोरारजी देसाई और शास्त्री पर आकर पूरी बात रूक गई. उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष कामराज इस बात को लेकर चिंतित थे कि पार्टी की एकता कैसे बनी रहे. इसी को लेकर वह लगातार मंथन कर रहे थे.
कांग्रेस अध्यक्ष कामराज मोरारजी देसाई के खिलाफ थे. ये शास्त्री के लिए प्लस बात साबित हुई. दूसरा अखबारों में एक खबर चलने लगी थी कि मोरारजी देसाई के पक्ष में उनके समर्थक दावेदारी कर रहे हैं. इसको लेकर कामराज ने विचार किया कि अगर मोरारजी पीएम बनेंगे तो पार्टी के नेता नाराज हो सकते हैं. बस यही खबर मोरारजी के विरुद्ध हो गई और फिर शास्त्री के नाम पर मुहर लग गई. इसी के साथ ही सभी कयास पर पूर्ण विराम लग गया. इस तरह से 31 मई 1964 को लाल बहादुर शास्त्री के रूप में देश को दूसरा प्रधानमंत्री मिल गया. हालांकि इन सब चर्चाओं के बीच शास्त्री ने कभी खुद को पीएम पद का दावेदार नहीं माना. हमेशा नेहरू के उत्तराधिकारी के रूप में इंदिरा या फिर जेपी नारायण को माना गया.
1965 में जब लाल बहादुर शास्त्री ने 15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से भाषण दिया तो कश्मीर पर पाकिस्तान के छिटपुट हमले शुरू हो चुके थे. जंग के आसार नजर आ रहे थे. कुछ दिनों बाद दोनों देशों की सेनाएं आमने सामने थीं. पाकिस्तान सोच रहा था कि वह यह युद्ध जीत जाएगा. फिर प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने पाकिस्तान को ऐसा जवाब दिया कि उसका सारा घमंड टूट गया और भारतीय सेना ने लाहौर तक कब्जा कर लिया था. शास्त्री ने अंतरराष्ट्रीय सीमा को लांघने का आदेश दिया जिसने सेना के शीर्ष अधिकारियों को भी हैरत में डाल दिया था. ये सही बात है कि पाकिस्तान से उस लड़ाई के बाद शास्त्री पूरे देश के हीरो बन गए. लड़ाई के बाद उनका कद बहुत ऊंचा हो गया था.
तब पत्रकार कुलदीप नैयर की किताब “बियांड द लाइंस : एन ऑटोबॉयोग्राफी” में लिखा, अगर भारतीय सेनाओं ने 06 सितंबर से एक दिन पहले ही हमला किया होता तो भारतीय सेना को और फायदा हो सकता था लेकिन 06 सितंबर को भारतीय सेना तब हरकत में आई जबकि पाकिस्तानी वायुसेना ने पठानकोट हवाई अड्डे पर हमला करके भारत में 13 विमानों को ध्वस्त कर दिया.
लाहौर के काफी करीब पहुंचने के बाद भी भारतीय सेना ने आखिर पाकिस्तानी शहर पर कब्जा क्यों नहीं किया. इसको लेकर तमाम सवाल उठे. तो वहीं कुलदीप नैयर अपनी किताब में लिखते हैं कि मैने जब बाद में लेफ्टिनेंट जनरल हरबख्श सिंह से बात की कि भारत ने लाहौर पर कब्जा क्यों नहीं किया तो उनका कहना था हमले से पहले ही हमने तय कर लिया था कि लाहौर पर कब्जा नहीं करना है. हमारा ऐसा कोई सैनिक लक्ष्य नहीं था. शायद इसलिए भी क्योंकि भारत को लाहौर पर कब्जे की स्थिति में अपनी अच्छी-खासी सेना को वहीं रखना पड़ता. इसका कोई फायदा नहीं था. लेकिन भारत द्वारा लाहौर पर कब्जा नहीं कर पाने के कारण विदेशों में इस लड़ाई को ड्रा घोषित कर दिया गया था.
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