भारतीय लोकतंत्र का एक रोचक पहलू यह है कि जो विपक्ष में होता है वो सरकार के हर निर्णय की बढ़-चढ़ कर आलोचना करता है। पर जब वही दल सत्ता में आ जाते हैं तो वही करते हैं जो पूर्ववर्ती सरकारें करती आईं हैं। पत्रकार इस नूरा-कुश्ती से कभी प्रभावित नहीं होते। जबकि ये इस देश के मीडिया का दुर्भाग्य है कि उसके काफ़ी सदस्य राजनैतिक ख़ेमों में बटे रहते हैं और इसलिए उनकी पत्रकारिता एक पक्षीय होती है। ऐसे ही पत्रकार अपने समर्थकों के शासन में आने पर मलाई खाते हैं और उनके विपक्ष में बैठने पर प्रलाप करते हैं।
अगर हर राजनैतिक दल देश की समस्याओं का ईमानदारी से हल निकालना चाहे तो यह कार्य बिल्कुल भी कठिन नहीं है। पर हल निकालने से ज़्यादा राजनैतिक लाभ पाने के उद्देश्य से शोर मचाया जाता है। जैसे अब चुनाव आयोग पर प्रधान मंत्री के नियंत्रण की संभावना वाले विधेयक को देख कर मचाया जा रहा है। जो आज मोदी सरकार के इस कदम की आलोचना कर रहे हैं, जब वे सरकार में थे तो उन्होंने भी चुनाव आयुक्त की ताक़त को कम करने का काम किया था।
ताज़ा विवाद इसलिए पैदा हुआ है कि भारत सरकार ने संसद के मानसून सत्र में अचानक एक नया बिल पेश करके राजनैतिक हलकों में खलबली मचा दी है। इस प्रस्तावित विधेयक के अनुसार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए बनने वाली चयन समिति में अब केवल प्रधान मंत्री, उनके द्वारा मनोनीत उनका कैबिनेट मंत्री और नेता प्रतिपक्ष हींगें। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति, चयन समिति में बहुमत के आधार पर सीधे प्रधान मंत्री करेंगे। जबकि 2 मार्च 2023 को सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ के सदस्य पाँचों न्यायाधीशों ने एक मत से यह आदेश दिया था कि इस समिति में प्रधान मंत्री, नेता प्रतिपक्ष व भारत के मुख्य न्यायाधीश सदस्य होंगे। हालाँकि यह व्यवस्था क़ानून बनाए जाने तक की ही थी पर इसमें संविधान के रक्षक सर्वोच्च न्यायालय ने अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया था। इसलिए देश की अपेक्षा यही थी कि इसी आदेश को आधार मानते हुए चुनाव आयोग के आयुक्तों के चयन का क़ानून बनाया जाएगा। उल्लेखनीय है कि अब तक चुनाव आयुक्तों के चयन की कोई लोकतांत्रिक व पारदर्शी व्यवस्था नहीं रही है। आजतक केंद्र सरकार के मुखिया ही अब तक चुनाव आयुक्तों का चयन करते आये हैं।
पिछले कुछ वर्षों में चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर लगातार सवाल खड़े हो रहे हैं। आरोप है कि मौजूदा चुनाव आयोग केंद्र सरकार के इशारों पर काम कर रहा है। ऐसे में बार-बार देश 90 के दशक के बहुचर्चित मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषण को बार-बार याद कर रहा है। जिन्होंने पुराने ढाँचे में रहते हुए भी चुनाव आयोग के संवैधानिक महत्व को पहचाना और देश के राजनैतिक दलों को एक मज़बूत और निष्पक्ष चुनाव आयोग बना कर दिखाया। उन्होंने इसी दौर में देश की चुनाव प्रक्रिया में क्रांतिकारी परिवर्तन किए और चुनावों को यथासंभव पारदर्शी बनाया। हालाँकि, शेषण का एक छत्र शासन कुछ ही समय तक चला क्योंकि उनके आक्रामक व्यवहार से घबराकर तत्कालीन प्रधान मंत्री नरसिंह राव ने शेषण के दो सहयोगी चुनाव आयुक्तों की ताक़त बढ़ा कर उनके समकक्ष कर दी। ऐसे में अब टी एन शेषण कोई भी निर्णय अकेले लेने के लिए स्वतंत्र नहीं थे।
मौजूदा चुनाव आयोग पर पक्षपात पूर्ण होने का आरोप लगाकर कुछ जनहित याचिकाएँ सर्वोच्च न्यायालय में दायर हुईं, जिन पर सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने उक्त आदेश पारित किया, जिसे मौजूदा सरकार ने इस नये प्रस्तावित विधेयक के मार्फ़त दर किनार कर दिया। ज़ाहिर है कि सरकार के इस कदम से विपक्षी दलों को डर है कि अब मोदी सरकार, चुनाव आयोग को अपनी मुट्ठी में जकड़ कर आगामी चुनावों को प्रभावित करेगी। इसलिए ये विधेयक पेश होते ही राजनैतिक हलकों और सोशल मीडिया पर चर्चाओं का दौर शुरू हो गया है। केंद्र सरकार के प्रति सोशल मीडिया पर लगातार आक्रामक रहने वाले बुद्धिजीवीयों और पत्रकारों का कहना है कि सरकार का यह कदम लोकतंत्र की समाप्ति की दिशा में आगे बढ़ने वाला है। उनका आरोप है कि अब आगामी चुनाव निष्पक्ष नहीं हो पाएँगे। पर महत्वपूर्ण बात यह है कि जब तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषण के अधिकारों कम किया गया था तब कोई भी राजनैतिक दल शेषण के समर्थन में खड़ा नहीं हुआ था।
इसी तरह दिल्ली सरकार के प्रशासनिक नियंत्रण को कम करने का मामला है। इसी सत्र में दिल्ली सरकार के अधिकारों को सीमित करने वाला जो विधेयक संसद में पारित हुआ उसकी भी पृष्ठभूमि में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को दर-किनार करने की मंशा ज़ाहिर हुई है। जबकि भाजपा ने चार दशकों तक दिल्ली को स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिलाने के लिए संघर्ष किया था। पर आज उसी उपलब्धि को भाजपा अपने ऊपर भार मान रही है।
तमाम ऐसे मुद्दे हैं जिनमें ये बात साफ़ होती है कि जहां अपने अधिकारों को कम करने की या अपने वेतन और भत्तों की बढ़ाने की बात होती है तो वहाँ सत्तापक्ष और विपक्ष एक हो जाते हैं। ऐसे ही जैन हवाला केस में 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुरूप सरकारी जाँच एजेंसियों के ऊपर नियंत्रण रखने वाले केंद्रीय सतर्कता आयोग को स्वायत्ता देने की बात कही गई थी। पर जब सीवीसी अधिनियम बनाने का समय आया तो संसदीय समिति ने सर्वोच्च न्यायालय के तमाम निर्देशों को दर-किनार कर एक ऐसा विधेयक बनाया जिसमें केंद्रीय सतर्कता आयोग के अधिकारों को सीमित कर दिया। इसे दंत-विहीन संस्था बना दिया। जहां तक मुझे याद है इस संसदीय समिति में कांग्रेस के सांसद संजय निरुपम, भाजपा की सांसद सुषमा स्वराज, एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार जैसे विभिन्न दलों के भारी भरकम नेता थे। अगर ये चाहते तो सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुरूप सीवीसी को एक ताकतवर संस्था बना सकते थे। अब जब सीबीआई या ईडी विपक्ष पर अपना शिकंजा कसती है, तो मोदी सरकार पर उसके दुरुपयोग का आरोप लगाया जाता है। अगर विधेयक बनाते समय इस बात का ध्यान रखा गया होता तो कोई भी दल जो केंद्र में सत्ता हासिल करता वो द्वेष की भावना से विपक्षी दलों पर ऐसा हमला न कर पाता, जिससे उसके एक पक्षीय होना सिद्ध होता। वो निष्पक्षता अपना काम करता।
यह सही है कि हर राजनैतिक दल अपनी विचारधारा के अनुरूप अपने कुछ लक्ष्य निर्धारित करता है और सत्ता में आने के बाद उन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए काम करता है। उस दृष्टि से भाजपा को भी हक़ है कि वो अपने एजेंडा के अनुरूप योजनाओं और कार्यक्रमों में बदलाव करे। पर संविधान में बदलाव करने के दूरगामी परिणाम होते हैं। इसलिए ऐसे क़ानून यथासंभव अगर सर्वसम्मति से बनाए जाते हैं तो उससे राजनीति में कटुता या वैमनस्य उत्पन्न नहीं होगा और सरकार के लिए भी काम करना आसान होगा। उदाहरण के तौर पर किसानों से संबंधित विधेयक अगर सामूहिक बहस के बाद लाए जाते तो हो सकता है कि उन विधायकों के कई हिस्सों पर आम-सहमति बन जाती और इतना बवण्डर खड़ा नहीं होता।
एक बेघर व्यक्ति को मारने के बदले में भीड़ ने तय किया कि हाथिनी मैरी…
दिल्ली में Aam Aadmi Party की सरकार शासन और नौकरशाही पर नियंत्रण से जुड़े कई…
डॉ. राजेश्वर सिंह ने देश को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने तथा 2047…
AMU छात्र नेता सलमान गौरी ने कहा, जिन बच्चों का सस्पेंशन किया है उन्हें बहाल…
Gautam Adani Indictment In US: दिल्ली में नामचीन क्रिमिनल लॉयर एडवोकेट विजय अग्रवाल ने उद्योगपति…
Border-Gavaskar Trophy: भारतीय टीम पहले टेस्ट में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ केवल 150 रन बनाकर ऑल-आउट…