बात 1984 की है, मैं इंग्लैंड के ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालयों में व्याख्यान दे कर यूरोप में घूम रहा था. तब मेरी उम्र 28 बरस थी. बर्लिन यूनिवर्सिटी के परिसर में कुछ युवा छात्र छात्राओं से बातचीत के दौरान मैंने उनके भविष्य की योजनाओं के विषय में पूछा. सबने अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी रुचि बताई. एक जर्मन लड़की कुछ नहीं बोली. तो मैंने उससे भी वही प्रश्न किया. इससे पहले कि वो कुछ कह पाती उसके बाक़ी साथियों ने उसका मज़ाक़ उड़ाते हुए कहा, “शी इज़ फिट टू बी ए सिविल सर्वेंट”.अर्थात् ये सरकारी अफ़सर बनने के लायक़ है. तब भारतीय युवाओं और पश्चिमी युवाओं की सोच में कितना भारी अंतर था. जहां एक तरफ़ भारत के, विशेषकर आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा आदि के युवा सरकारी नौकरी के लिए बेताब रहते थे और आज भी रहते हैं. वहीं पश्चिमी समाज में सरकारी नौकरी में वही जाते हैं जिनकी बौद्धिक क्षमता कम होती है.
भारत के जिन राज्यों में रोज़गार के वैकल्पिक अवसर उपलब्ध थे, वहाँ के युवाओं की सोच भी कुछ-कुछ पश्चिमी युवाओं जैसी थी. मसलन गुजरात के युवा व्यापार में, महाराष्ट्र के युवा वित्तीय संस्थाओं में, दक्षिण भारत के युवा प्रोफेशनल कोर्स में, हरियाणा और पंजाब के युवा कृषि आदि में आगे बढ़ते थे. पिछले कुछ वर्षों से भारत में बेरोज़गारी तेज़ी से बढ़ी है. जबकि दूसरी तरफ़ कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की भरमार हो गई है. नतीजतन तमाम डिग्रियां बटोरे करोड़ों नौजवान नौकरी की तलाश में दर-दर भटक रहे हैं. सरकारी संस्थाएँ नौकरी के लुभावने विज्ञापन देकर इन करोड़ों नौजवानों से मोटी रक़म परीक्षा शुल्क के नाम पर वसूल लेती हैं. फिर परीक्षाओं में घोटाले और पेपर लीक होने जैसे कांड बार-बार होते रहते हैं. जिससे इन युवाओं की ज़िंदगी के स्वर्णिम वर्ष और इनके निर्धन माता-पिता की गाढ़ी कमाई भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है. कोई बिरले होते हैं जो इस अंतहीन अंधेरी गुफा में अपने लिए प्रकाश की किरण खोज लेते हैं. उनका संघर्ष प्रेरणास्पद तो होता है पर वह एक औसत युवा के लिए दूर की कौड़ी होती है. ठीक वैसे ही जैसे किसी ज़माने में लाखों युवा देश भर से भाग कर हीरो बनने मुंबई जाते थे पर दो-चार की ही क़िस्मत चमकती थी. मनोरंजन के साथ गहरा संदेश देने में माहिर विधु विनोद चोपड़ा की नई फ़िल्म ‘ट्वेल्थ फेल’ एक ऐसे ही नौजवान की ज़िंदगी पर आधारित है जिसने चंबल के बीहड़ में निर्धन परिवार में जन्म लेकर, तमाम बाधाओं को झेलते हुए, केवल अपनी प्रबल इच्छा शक्ति से आईपीएस बन कर दिखाया. इस फ़िल्म का ये मुख्य पात्र मनोज कुमार शर्मा आजकल मुंबई बड़ा पुलिस अधिकारी है.
इस फ़िल्म में ऐसे संघर्षशील लाखों नौजवानों की ज़िंदगी का सजीव प्रदर्शन किया गया है. जिसे देख कर हम जैसे मध्यम वर्गीय लोग अंदर तक हिल जाते हैं. मध्यम वर्ग के बच्चे तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद चाह कर भी जो हासिल नहीं कर पाते उसे कुछ मज़दूरों के बच्चे अपनी कड़ी मेहनत और लगन से हासिल करके पूरे समाज को आश्चर्यचकित कर देते हैं. पहले इलाहाबाद विश्वविद्यालय आईएएस या आईपीएस की नौकरी में जाने का प्रवेश द्वार हुआ करता था. पिछले चार दशकों से दिल्ली विश्वविद्यालय व जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय इसके प्रवेश द्वार बन गये हैं. उत्तरी दिल्ली का मुखर्जी नगर इसका बड़ा केंद्र है. पिछले साढ़े चार दशकों से मैं दिल्ली में रहते हुए कभी मुखर्जी नगर नहीं गया था. केवल सुना था कि वो कोचिंग संस्थानों का मछली बाज़ार है. विधु विनोद चोपड़ा ने अपनी पैनी नज़र से मुखर्जी नगर की जो हक़ीक़त पेश की है वह न सिर्फ़ युवाओं के लिए बल्कि उनके माता पिता के लिए भी आँखें खोल देने वाली है. हो सकता है कि चोपड़ा का उद्देश्य फ़िल्म की कैच लाइन “री-स्टार्ट” से युवाओं को प्रेरित करना हो. पर मेरी नज़र में उन्होंने इससे भी बड़ा काम किया है. देश के दूर-दराज इलाक़ों में रहने वाले मेहनतकश परिवारों को प्रतियोगी परीक्षाओं की नंगी हक़ीक़त दिखा दी है. वे सचेत हो जाएँ और अपने नौ-निहालों के कोरे आश्वासनों से प्रभावित हो कर अपना घर लुटा न बैठें.
इस संदर्भ में मैं अपने दो व्यक्तिगत अनुभव पाठकों के हित में साझा करना चाहूँगा. मेरे वृंदावन आवास पर चित्रकूट के जनजातीय इलाक़े का एक कर्मचारी मेरी माँ से एक लाख रुपया क़र्ज़ माँग रहा था. उद्देश्य था अपने भतीजे को आईआईटी की कोचिंग के लिए कोटा (राजस्थान) भेजना. सामाजिक सेवा में सदा से रुचि रखने वाली मेरी माँ उसे ये रक़म देने को तैयार थीं. पर इससे पहले उन्होंने उस लड़के का इंटरव्यू लेना चाहा. जिससे यह पता चला कि उसका मानसिक स्तर साधारण पढ़ाई के योग्य भी नहीं था. माँ ने समझाया कि इसे कोटा भेज कर पैसा बरबाद मत करो. इसे कोई हुनर सिखवा दो. इस पर वो कर्मचारी बहुत नाराज़ हो गया और बोला, “आप बड़े लोग नहीं चाहते कि हमारे बच्चे आईआईटी में पढ़ें.” इसके बाद उसने कहीं और से क़र्ज़ लेकर उस लड़के को कोटा भेज दिया. दो साल बाद दो लाख रुपये बर्बाद करके वो लड़का बैरंग लौट आया. आजकल वो वृंदावन में बिजली मरम्मत का काम करता है.
दूसरा अनुभव बिहार के चार लड़कों के साथ हुआ. इनमें से तीन हमारे संस्थान में दो दशकों से कर्मचारी हैं. तीनों बड़े मेहनती हैं. चौथा भाई आईपीएस बनने बिहार से रायपुर (छत्तीसगढ़) चला गया. चार बरस तक तीनों भाई दिन-रात मेहनत करके उसकी हर मांग पूरी करते रहे. अपने बच्चों का पेट काट कर उस पर लाखों रुपया खर्च किया. वो लगातार इन्हें झूठे आश्वासन देता रहा. एक बार इन भाइयों ने मुझ से पैसा माँगा. ये कह कर कि हमारा भाई आईपीएस में चुन लिया गया है और अब ट्रेनिंग के लिए लंदन जायेगा. मैंने सुनकर माथा पीट लिया. उनसे उस भाई का फ़ोन नंबर माँगा और उससे तीखे सवाल पूछे तो वो घबरा गया और उसने स्वीकारा कि पिछले चार बरसों से वो अपने तीनों भाइयों को मूर्ख बना रहा था.
मैं विधु विनोद चोपड़ा की इस फ़िल्म को इसीलिए ज़्यादा उपयोगी मानता हूं कि जहां एक तरफ़ ये मनोज शर्मा की ज़िंदगी से प्रेरणा लेने का संदेश देती है, वहीं प्रतियोगी परीक्षाओं की इस भयावयता को बिना लाग-लपेट के ज्यों-का-त्यों सामने रख देती है. जिससे युवा और उनके माता-पिता दोनों सचेत हो जाएँ. इसलिए इस फ़िल्म को हर शहर और गाँव के हर स्कूल में दिखाया जाना चाहिए. चाहे ये काम सरकार करे या स्वयंसेवी संस्थाएँ. ‘ट्वेल्थ फेल’ फ़िल्म की पूरी टीम को इस उपलब्धि के लिए बधाई.
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