विश्लेषण

World Nature Conservation Day 2023: प्रकृति संरक्षण की जरूरत, बदल रहा विश्व का मिजाज

वैश्विक स्तर पर प्रकृति का चक्र बिगड़ रहा है। कहीं अधिक वर्षा हो रही है, तो कहीं अत्यधिक सूखा। तो कहीं अधिक चक्रवाती तूफान आ रहे हैं। तापमान बढ़ने लगता है तो कहीं ग्लेशियर अधिक पिघलने लगते हैं। जहां सर्दी अधिक होती है वहां ज्यादा गर्मी पड़ रही है। तो कहीं अधिक वर्फबारी से सर्द हवाएं चलने लगते हैं। जब यह पूरा प्रकृति का मौसमी चक्र असंतुलित होता है तो पेड़ पौधों के उगने और उनके विकास पर भी बेहद असर पड़ता है। स्थानीय और विश्व स्तर पर लम्बे समय तक मौसमी बदलाव प्रकृति के चक्र पर प्रभाव डाल रहे हैं। संयुक्त राष्ट की एमीशन गैप रिपोर्ट को देखें तो ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए सभी देशों को एक जुट होकर 2030 तक वर्तमान ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 45 प्रतिशत कटौती करने की जरूरत बताई गई है। जबकि 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने को 30 प्रतिशत कटौती करने की आवश्यकता होगी।

रिकार्ड तापमान में वृद्धि

वैश्विक स्तर पर न्यूनतम और अधिकतम तापमान में वृद्धि हो रही है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से वातावरण में बेहद बदलाव है। प्रकृति में मौसमी गतिविधियां उथल पुथल हैं। विश्व मौसम विज्ञान संगठन की जनवरी, 2023 की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले 8 साल विश्व स्तर पर रिकार्ड सबसे गर्म रहे हैं। जो लगातार ग्रीन हाउस गैसों की मौजूदगी का प्रभाव है। विश्व पटल पर जलवायु में परिवर्तन गंभीर समस्या बन गई है। वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस रखने के लिए विश्व के तमाम देशों ने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती और अनुकूल उपाय उठाने के जोर दे रहे हैं। इसके वावजूद तापमान बढता ही जा रहा है।

28 प्रतिशत प्रजातियों को विलुप्ति का खतरा

इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर अर्थात ‘आईयूसीएन रेड लिस्ट’ की थ्रेटेनेड स्पसीज की 1964 में स्थापना की गई। बुरी खबर है की जैव विविधता लगातार घट रही है। वर्तमान में आईयूसीएन रेड लिस्ट में 1,50,300 से अधिक प्रजातियां अकाउंट की गई है। इनमें से 42,108 प्रजातियां पर विलुप्त होने का खतरा है। जो कि कुल प्रजातियों का 28 प्रतिशत हैं। इनमे 41 प्रतिशत एंफीबियंस, 27 प्रतिशत मैमल्स, 34 प्रतिशत कोनिफर्स, 13 प्रतिशत बर्ड्स, 37 प्रतिशत शार्क और रेज, 36 प्रतिशत रीफ कोरल, 21 प्रतिशत रेप्टाइल्स आदि शामिल हैं।

तीन हिस्से में पानी, फिर भी प्यासे

पृथ्वी ग्रह के 71 प्रतिशत हिस्से में पानी है और 29 प्रतिशत हिस्से में भू भाग है। फिर भी लोग प्यासे और फसलें सूखी रह जाती हैं। भूजल रसातल में पहुंच रहा है। इसके पीछे जलवायु परिवर्तन तो है ही मानवीय गतिविधियों के कारण प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण नहीं हो पा रहा। इसे देखें तो 71 प्रतिशत पानी में से पृथ्वी की सतह पर 97 प्रतिशत खारे पानी के सागर और महासागर है जिनका पानी पीने योग्य नहीं है। जबकि बचे तीन प्रतिशत भाग में से 2.4 प्रतिशत पानी ग्लेशियर, उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव में बर्फ के रूप में मौजूद है। बाकी बचा पानी पृथ्वी पर नदियों, झील और तालाब के रूप में है। जिसे हम पीने और कृषि की सिंचाई के लिए इस्तेमाल करते हैं। नदियां बहती हुई महासागरों में मिल जाती हैं और कुछ पानी भूजल के रूप में पृथ्वी सोख लेती है। लेकिन प्राकृतिक जल संसाधनांे के समुचित संरक्षण ना होने के कारण हर साल पानी की समस्या पर दो चार होना पड़ता है। उदाहरण के तौर पर भारत का मेघालय राज्य का चेरापूंजी विश्व की ऐसी जगह है जहां विश्व की सर्वाधिक वर्षा होती है। लेकिन लोग पानी की समस्या से जूझ रहे हैं।

वनों का ह्रास से जलवायु में परिवर्तन

डाउन टू अर्थ के अनुसार स्टेट ऑफ द वर्ड फॉरेस्ट 2022 की रिपोर्ट में बड़े चैकाने वाले नतीजे मिले हैं। फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन द्वारा प्रकाशित यह रिपोर्ट कहती है कि विश्व के कुल 4.06 बिलियन हेक्टेयर फॉरेस्ट का साल 1992 से 2020 के बीच पिछले करीब 30 साल में 420 मिलियन फॉरेस्टएरिया 10.34 प्रतिशत कम हो गया है। वर्ष 2015 से 2000 के बीच हर साल 10 मिलियन हेक्टर वन कम हो रहे है। स्टेट ऑफ वर्ड फॉरेस्ट 2022 (एसडब्ल्यूएफ) में कहा गया है कि 250 उभरती संक्रामक बीमारियों में से 15 प्रतिशत का संबंध जंगलों के विनाश से है। 1960 के बाद से 30 प्रतिशत नई बीमारियों का कारण वनों की कटाई और भूमि उपयोग में बदलाव को माना जा सकता है।
हजारों प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा

जैव विविधता और पारिस्थितिकी सेवाओं की अंतर सरकारी विज्ञान नीति मंच अर्थात आईपीबीईएस की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक जीव जंतुओं और पेड़ पौधों की हजारों प्रजातियों पर प्राकृतिक वातावरण से विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। इनके संरक्षण को विश्व पटल पर हो रही चिंताओं को देखते हुए संरक्षण के लिए विश्वव्यापी कदम उठाने की आवश्यकता है। अगर ऐसा ही रहा तो हजारों प्रजातियां आने वाले दशकों में विलुप्त हो जाएंगी। इन जीव जंतुओं और पेड़ पौधों की प्रजातियों की विलुप्ति के पीछे जलवायु परिवर्तन तो एक मुख्य कारण है ही लेकिन मानवीय गतिविधियां भी उतनी ही जिम्मेदार हैं।

महासागरों के तल और तापमान में चिंताजनक बढोत्तरी

महासागरों में अम्लीकरण, ऑक्सीजन की कमी और महासागरों के गर्म होने से साथ ही अत्यधिक मछलियां पकड़ने और समुद्र में प्रदूषण महासागरों पर नुकसान पहुंचा रहे हैं। समुद्र तल बढ रहे हैं और बेहताशा खनन से समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र बिगड़ रहा है। अगर सुधारात्मक कार्य नहीं हुआ मानवता के लिए प्रभाव पड़ेगा और विश्व स्तर पर मौसम की मार झेलनी पड़ेगी।

-भारत एक्सप्रेस

अनिरूद्ध गौड़, वरिष्ठ पत्रकार

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