‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ को अमली जामा पहनाने के लिए केंद्र सरकार ने कमर कस ली है. दरअसल पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द की अध्यक्षता में बनी कमेटी की रिपोर्ट को 18 सितंबर को केंद्रीय कैबिनेट ने मंजूरी दी थी. वहीं 11 दिसंबर को केंद्रीय कैबिनेट ने वन नेशन वन इलेक्शन के बिल को मंजूरी दी. इसका मतलब साफ है कि केंद्र सरकार इस बिल को इसी सत्र में पेश करेगी. गौरतलब है कि वन नेशन वन इलेक्शन की रिपोर्ट पेश करते हुए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा था कि वन नेशन वन इलेक्शन पर परामर्श प्रक्रिया के दौरान 47 सियासी दलों ने कमेटी के सामने अपनी बात रखी जिसमें 32 दलों ने तो वन नेशन वन इलेक्शन के समर्थन में अपने विचार दिए लेकिन 15 दलों ने इसका विरोध किया. इन 15 दलों में कांग्रेस प्रमुख है.
दरअसल वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर 2 सितंबर, 2023 को कमेटी गठित की गई थी. कमेटी के सदस्यों ने7 देशों की चुनाव व्यवस्था का अध्ययन किया और तमाम चर्चा और विश्लेषण के बाद 191 दिन में 18 हजार 626 पन्नों की एक रिपोर्ट तैयार की हुई. रिपोर्ट में सभी विधानसभाओं का कार्यकाल 2029 तक करने का सुझाव दिया है. जाहिर है इस समय बीच बहस में वन नेशन वन इलेक्शन है. लेकिन पीएम मोदी ने 2019 में ही लालकिले से वन नेशन वन इलेक्शन की बात की थी.
वन नेशन, वन इलेक्शन का मतलब देश में लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराये जाने के संवैधानिक प्रावधान से है. अभी लोकसभा और राज्य विधानसभा के चुनाव सरकार 5 साल का कार्यकाल पूरा होने या फिर विभिन्न कारणों से विधायिका के भंग हो जाने पर अलग-अलग कराए जाते हैं. अगर वन नेशन वन इलेक्शन का कानून बन जाता है तो लोकसभा के साथ ही सभी राज्य की विधानसभाओं के एक साथ चुनाव होंगे. देश की सभी 543 लोकसभा सीटों और सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों की कुल 4130 विधानसभा सीटों पर एक साथ चुनाव होंगे. वोटर सांसद और विधायक चुनने के लिए एक ही दिन, एक ही समय पर अपना वोट डाल सकेंगे.
हालांकि यह भी तथ्य है कि देश की आजादी के बाद शुरुआत में ऐसा ही होता था लेकिन बाद में स्थितियां बदलीं और अब अलग-अलग कारणों से लोकसभा के साथ सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव नहीं हो पाते हैं. यह कांसेप्ट भारत के लिए नया नहीं है. 1952 से लेकर 1957, 1962 और 1967 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही हुए थे. 1968 और 1969 में कई विधानसभाएं तय समय से पहले भंग कर दी गई थीं. 1970 में लोकसभा भी समय से पहले भंग कर दी गई थी. इसके चलते एक देश एक चुनाव की जो गाड़ी है वो डिरेल हो गई.
देश में एक साथ चुनाव होंगे तो निश्चित ही अलग-अलग चुनावों में जो खर्च होता है वो राशि बचेगी और ये बची हुई राशि देश के विकास के ही काम आएगी. एक रिपोर्ट के मुताबिक 2024 लोकसभा में 1.35 लाख करोड़ खर्च हुए. जो 2019 लोकसभा में खर्च हुए 60 हजार करोड़ से बहुत ज्यादा है. अगर संपूर्ण देश में एक साथ ही लोकसभा के साथ ही राज्यों की विधानसभाओं के भी चुनाव होते तो इसी राशि में सारे चुनाव हो गए होते. यही नहीं एक साथ चुनाव होने से प्रशासनिक व्यवस्था में कोई अड़चन नहीं आएगी क्योंकि अलग-अलग चुनावों में इनकी हर बार ड्यूटी लगती है जिससे सामान्य प्रशासनिक कामकाज प्रभावित होता है वहीं आचार संहिता भी अलग-अलग चुनावों में लगती है एक साथ होने से एक बार ही आचार संहिता लगेगी और सरकारी कामकाज भी निर्बाध हो सकेगा. वहीं बार-बार चुनावों से जनता भी मतदान को लेकर उत्साहित नहीं रह पाती ऐसे में मतदान प्रतिशत में इजाफा नहीं हो पाती अगर 5 साल में एक ही बार वोट डालन हो तो मतदाता भी वोट देने के लिए ऊर्जा से लबरेज रहेंगे और मतदान में भी वृद्धि होगी. वहीं सरकारें भी फ्री की रेवड़ी के चक्कर में नहीं पड़ेंगी. एक साथ चुनाव होने से अगले 5 सालों में सरकारों का भी फोकस जॉब सेंट्रिक होंगी जिससे विकास को गति मिलेगी.
लोकसभा के साथ राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होने से सबसे ज्यादा चिंता क्षेत्रीय दलों को है. क्षेत्रीय दलों को लगता है कि एक साथ चुनाव होने से स्थानीय मुद्दों को वो मजबूती से नहीं उठा पाएंगे. क्योंकि एक साथ चुनाव होने में राष्ट्रीय मुद्दे केंद्र में आ जाएंगे. यही नहीं उनको डर ये भी है कि चुनावी खर्च हो या चुनावी रणनीति, कौशल के मामले में वो राष्ट्रीय पार्टियों की बराबरी नहीं कर पाएंगी. आपको याद होगा अगर दिल्ली विधानसभा चुनाव का उदाहरण लें तो तीन बार से लोकसभा में दिल्ली की जनता सातों सीटें बीजेपी को देती है लेकिन विधानसभा में आम आदमी पार्टी को चुनती है. जाहिर है दिल्ली में लोकसभा और विधानसभा दोनों की टाइमिंग अलग-अलग है. क्षेत्रीय दलों को लगता है कि अगर लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होंगे तो जनता एक ही दल को मन बनाकर ईवीएम का बटन दबाएगी.
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साल 2015 में IDFC की ओर से जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होने पर 77 फीसदी संभावना इस बात की होती है कि मतदाता राज्य और केंद्र में एक ही पार्टी को चुनते हैं, जबकि अलग-अलग चुनाव होने पर केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी को चुनने की संभावना घटकर 61 फीसदी हो जाती है. कहीं न कहीं क्षेत्रीय दलों के मन में यही चल रहा है कि एक साथ अगर चुनाव हुए तो सत्ता से दूर रहकर इसका खामियाजा उनको भुगतना पड़ेगा.
लोकसभा और राज्यसभा चुनाव एक साथ कराए जाने के लिए संविधान में संशोधन करना पड़ेगा, साथ ही जनप्रतिनिधित्व अधिनियम और अन्य संसदीय प्रक्रियाओं में भी संशोधन करना होगा. वन नेशन वन इलेक्शन बिल लाने के लिए 16 विधानसभाओं का समर्थन चाहिए यानी पहले देश के 16 राज्यों की विधानसभा में इसके प्रस्ताव को पास कराना होगा. यही नहीं ये बिल जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के तहत ही लाया जा सकता है, जिसमें बदलाव करना होगा. यही नहीं इसको संविधान के अनुच्छेद 83, 85, 172, 174 और 356 में दो तिहाई बहुमत के साथ संशोधन करना होगा. बहरहाल अपने ही देश में वन नेशन वन इलेक्शन की बात नहीं है. दक्षिण अफ्रीका, स्वीडन, बेल्जियम, जर्मनी, फिलीपींस में पहले से ही ये चुनाव व्यवस्था लागू है.
-भारत एक्सप्रेस
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