जब भी हमें पुलिस थाने या किसी पुलिस अधिकारी के संपर्क में आना पड़ता है तो मन में एक तनाव सा पैदा हो जाता है। इसका कारण है पुलिस के व्यवहार को लेकर हमारी सोच। ज़्यादातर देखा यह देखा गया है कि भारत में पुलिसकर्मी जनता से सीधे मुँह बात नहीं करते। इस कड़े रवैये के पीछे पुलिसकर्मियों का तनाव ही सबसे बड़ा कारण है। चाहे वो कोई उच्च अधिकारी हो या सड़क पर खड़ा एक आम सिपाही। तनाव में रहने वाले ये पुलिसकर्मी अक्सर अपने ग़ुस्से और बुरे बर्ताव को सीधी-सादी जनता पर निकालते हैं। इसी के चलते आम जनता के मन में इन्हें सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता। यदि हमारी सरकार पुलिस सुधारों को लेकर गंभीर हो जाए तो विदेशों की तरह हम भी पुलिस को एक मित्र के रूप में देखेंगे।
पुलिस सुधारों को लेकर हर सरकार में उच्च स्तरीय बैठकें होती रहती हैं परंतु इन बैठकों में कभी कोई विशेष समाधान नहीं निकलते। क्या आपको पता है कि भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 संविधान की मूल भावना के विरूद्ध है? भारत का संविधान, भारत की जनता को सर्वोच्च मानता है। उसको ही समर्पित है। भारतीय गणराज्य की समस्त संस्थाएं जनता की सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। किंतु भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में कहीं भी जनता शब्द का उल्लेख नहीं आता है। जाहिर है कि यह अधिनियम उस समय बनाया गया था जब भारत पर ब्रिटिश हुकूमत कायम थी। इस कानून का उद्देश्य ब्रिटिश हितों को साधना था। पुलिस का काम जनता पर नियंत्रण रखना था ताकि कानून और व्यवस्था इस तरह बनी रहे कि अंग्रेज हुक्मरानों को भारत का दोहन करने में कोई दिक्कत पेश न आए।
दरअसल, 1897 के गदर के बाद जब इंग्लैंड की हुकूमत ने ईस्ट इंडिया कंपनी से हिन्दुस्तान की बागडोर ली तब उसे ऐसी ही पुलिस की जरूरत थी। इसलिए ऐसे कानून बनाए गए। पर आश्चर्य की बात है कि 1947 में जब भारत आजाद हुआ या 1950 में जब हमने अपना संविधान लागू किया तब क्यों नहीं इस भारतीय पुलिस अधिनियम 1861 में बुनियादी परिवर्तन किया गया? क्यों औपनिवेशिक मानसिकता वाले कानून को एक स्वतंत्र, सार्वभौमिक, लोकतांत्रिक जनता के ऊपर थोपा गया? जब कानून पुराना ही रहा तो भारतीय पुलिस से ये कैसे उम्मीद की जाती है कि वह सत्ताधीशों को छोड़कर जनता की सेवा करना अपना धर्म माने?
1977 में बनी जनता पार्टी की पहली सरकार ने एक राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया जिसमें तमाम अनुभवी पुलिस अधिकारियों व अन्य लोगों को मनोनीत कर उनसे पुलिस व्यवस्था में वांछित सुधारों की रिपोर्ट तैयार करने को कहा गया। आयोग ने काफी मेहनत करके अपनी रिपोर्ट तैयार की पर बड़े दुख की बात है कि चार दशक बाद भी आज तक इस रिपोर्ट को लागू नहीं किया गया।1998 में पुलिस सुधारों का अध्ययन करने के लिए महाराष्ट्र के पुलिस अधिकारी श्री जेएफ रिबैरो की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया जिसने मार्च 1999 तक अपनी अंतिम रिपोर्ट दे दी। पर इसकी सिफारिशें भी आज तक धूल खा रही हैं। इसके बाद के पदमनाभइया की अध्यक्षता में एक और समिति का गठन किया गया। जिसने सुधारों की एक लंबी फेहरिश्त केन्द्र सरकार को भेजी, पर रहे वही ढाक के तीन पात।
यह बड़े दुख और चिंता की बात है कि कोई भी राजनैतिक दल पुलिस व्यवस्था के मौजूदा स्वरूप में बदलाव नहीं करना चाहता। इसलिए न सिर्फ इन आयोगों और समितियों की सिफारिशों की उपेक्षा कर दी जाती है बल्कि आजादी के 75 साल बाद भी आज देश औपनिवेशिक मानसिकता वाले संविधान विरोधी पुलिस कानून को ढो रहा है। इसलिए इस कानून में आमूलचूल परिवर्तन होना परम आवश्यक है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की पुलिस को जनोन्मुख होना ही पड़ेगा। पर क्या राजनेता ऐसा होने देंगे?
आज हर सत्ताधीश राजनेता पुलिस को अपनी निजी जायदाद समझता है। नेताजी की सुरक्षा, उनके चारों ओर कमांडो फौज का घेरा, उनके पारिवारिक उत्सवों में मेहमानों की गाड़ियों का नियंत्रण, तो ऐसे वाहियात काम हैं जिनमें इस देश की ज्यादातर पुलिस का, ज्यादातर समय जाया होता है।
पुलिस आयोग की सिफारिश से लेकर आज तक बनी समितियों की सिफारिशों को इस तरह समझा जा सकता है; पुलिस जनता के प्रति जवाबदेह हो। पुलिस की कार्यप्रणाली पर लगातार निगाह रखी जाए। उनके प्रशिक्षण और काम की दशा पर गंभीरता से ध्यान दिया जाए। उनका दुरूपयोग रोका जाए। उनका राजनीतिकरण रोका जाए। उन पर राजनीतिक नियंत्रण समाप्त किया जाए। उनकी जवाबदेही निर्धारित करने के कड़े मापदंड हों। पुलिस महानिदेशकों का चुनाव केवल राजनैतिक निर्णयों से प्रभावित न हों बल्कि उसमें न्यायपालिका और समाज के प्रतिष्ठित लोगों का भी प्रतिनिधित्व हो। इस बात की आवश्यकता महसूस की गई कि पुलिस में तबादलों की व्यवस्था पारदर्शी हो। उसके कामकाज पर नजर रखने के लिए निष्पक्ष लोगों की अलग समितियां हों। पुलिस में भर्ती की प्रक्रिया में व्यापक सुधार किया जाए ताकि योग्य और अनुभवी लोग इसमें आ सकें। आज की तरह नहीं जब सिफारिश करवा कर या रिश्वत देकर अयोग्य लोग भी पुलिस में भर्ती हो जाते हैं। जो सिपाही या इन्सपेक्टर मोटी घूस देकर पुलिस की नौकरी प्राप्त करेगा उससे ईमानदार रहने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? पुलिस जनता का विश्वास जीते। उसकी मददगार बनें। अपराधों की जांच बिना राजनैतिक दखलंदाज़ी के और बिना पक्षपात के फुर्ती से करे। लगभग ऐसा कहना हर समिति की रिपोर्ट का रहा है।
पर लाख टके का सवाल यह है कि क्या हो यह तो सब जानते हैं, पर हो कैसे ये कोई नहीं जानता। राजनैतिक इच्छाशक्ति के बिना कोई भी सुधार सफल नहीं हो सकता। अनुभव बताता है कि हर राजनैतिक दल पुलिस की मौजूदा व्यवस्था से पूरी तरह संतुष्ट है। क्योंकि पूरा पुलिस महकमा राजनेताओं की जागीर की तरह काम कर रहा है। जनता की सेवा को प्राथमिकता मानते हुए नहीं। फिर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे?अगर जनता चाहती है कि पुलिस का रवैया बदले तो उसे अपने क्षेत्र के सांसद को इस बात के लिए तैयार करना होगा कि वह संसद में पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करने का अभियान चलाए। क्या हम यह करेंगे ?
*लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के प्रबंधकीय संपादक हैं।
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