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सरकार का ध्यान उच्च-आय वाले देशों को अधिक मूल्यवान वस्तुओं का निर्यात बढ़ाने और राजकोषीय घाटा कम करने पर है. उपलब्ध आंकड़ों को देखने से तो यही लगता है कि इस नीति को औसत सफलता मिली है. सोमवार को जारी अप्रैल 2023 के आंकड़ों के अनुसार वस्तु एवं सेवाओं का निर्यात घाटा कम होकर 21 महीने के निचले स्तर पर आ गया है. वित्त वर्ष 2022-23 के आंकड़े भी यही दर्शा रहे हैं कि निर्यात बढ़ा है, भले ही यह वृद्धि दर 7 प्रतिशत से कम रही है. मगर आंकड़ों का अलग-अलग अध्ययन और दीर्घ अवधि के लिहाज से विचार करने से तो ऐसा प्रतीत नहीं होता है.
भारत आर्थिक नीति एवं एकीकरण की एक सफल रणनीति तैयार करने से काफी दूर है. तेल एवं कीमती रत्न की मांग में थोड़ा सा बदलाव होने पर भी वस्तुओं का निर्यात घाटा कम हो जाता है मगर यह बाह्य खाते में स्थिरता का आधार तो नहीं हो सकता. देश से सेवाओं का निर्यात जरूर बढ़ रहा है मगर यह सरकार की नीति का हिस्सा नहीं रहा है. यही कारण है कि सूचना-प्रौद्योगिकी (आईटी) से संचालित सेवा क्षेत्र लगातार अपनी बाजार हिस्सेदारी गंवाने की चुनौती से जूझ रहा है.
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी कृत्रिम मेधा का तेजी से बढ़ता उपयोग इसका एक बड़ा कारण माना जा सकता है. दीर्घ अवधि के आंकड़े बताते हैं कि यूरोपीय संघ और अमेरिका को निर्यात अवश्य बढ़ा है मगर एशियाई एवं अफ्रीकी देशों को भारत से होने वाले निर्यात में कमी दर्ज की गई है.
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यूरोपीय संघ और अमेरिका को भी निर्यात बढ़ने का कारण यह है कि भारत रूस से तेल खरीद कर इसे परिष्कृत कर इन देशों को बेच रहा है. अगर भारत व्यापार एवं विनिर्माण का प्रमुख केंद्र बनना चाहता है तो इसे अन्य मध्य आय वाले देशों को निर्यात और वहां से आयात भी बढ़ाना होगा. मगर ऐसा होता प्रतीत नहीं हो रहा है. यह स्थिति एक वर्ष में खड़ी नहीं हुई है बल्कि एक संरचनात्मक समस्या है.
इस समाचार पत्र में प्रकाशित भारतीय सेल्यूलर इलेक्ट्रॉनिक एसोसिएशन (आईसीईए) के आंकड़ों के अनुसार 2018 से अमेरिका को इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं का आयात बढ़ कर भले ही तीन गुना हो गया हो मगर यह केवल 3.2 अरब डॉलर की ही वास्तविक बढ़ोतरी मानी जा सकती है. भारत की तुलना में वियतनाम के मामले में वास्तविक बढ़ोतरी 40 अरब डॉलर तक पहुंच गई है.
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