इस साल के लोकसभा चुनाव की तारीखें धीरे-धीरे नजदीक आ गई हैं और राजनीतिक दल जोर-शोर से चुनाव प्रचार में जुट गए हैं. चुनावी रैलियों में तरह-तरह के नारों की धूम है. पार्टियों द्वारा दिए गए नारे कई बार चुनावी नतीजों को प्रभावित करने में अहम भूमिका निभाते हैं. हम लोकसभा चुनावों के मद्देनजर आपको पुराने दिनों की ओर ले जा रहे हैं और उस दौर के एक नारे के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसकी गूंज आज भी सुनाई देती है.
इंदिरा गांधी ने देश में साल 1975 में आपातकाल लगा दिया है, उस जमाने में एक नारा काफी चर्चित हुआ था, ‘जमीन गई चकबंदी में, मकान गया हदबंदी में, द्वार खड़ी औरत चिल्लाए, मरद गया नसबंदी में’.
दरअसल तब इंदिरा गांधी की कार्य योजनाओं को पूरा कराने का जिम्मा उनके बेटे संजय गांधी ने उठा रखा था. बताया जाता है कि उनका सबसे ज्यादा जोर परिवार नियोजन पर था. साथ ही राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से झोपड़ियों को हटाए जाने का अभियान भी सरकार द्वारा चलाया जा रहा था.
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1975 में भारत कई आर्थिक समस्याओं का सामना कर रहा था – वर्षा औसत से कम थी, खाद्य उत्पादन गिर गया था, अंतरराष्ट्रीय तेल संकट ने आयातित तेल की कीमत बढ़ा दी थी, निर्यात से राजस्व कम हो गया था, और मुद्रास्फीति की दर उस समय के उच्चतम स्तर पर थी.
दूसरी ओर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी खुद राजनीतिक उथल-पुथल से जूझ रही थीं. उन्होंने भारतीय चुनाव कानून के कई प्रावधानों का उल्लंघन किया था. अदालतों ने उनके खिलाफ फैसला सुनाया था, जिससे उनके पद को लेकर खतरा पैदा हो गया था और इन समस्या का एकमात्र समाधान उन्हें आपातकाल के रूप में नजर आया, जिसे उन्होंने 25 जून, 1975 को लागू कर दिया था.
आपातकाल के दौरान नागरिक स्वतंत्रता और अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था. इसी दौरान इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी ने गरीब पुरुषों की नसबंदी करने के लिए एक ‘भीषण अभियान’ चला रखा था. ऐसी खबरें थीं कि पुलिस ने गांवों की घेराबंदी कर सर्जरी के लिए लोगों के साथ जबरदस्ती की जा रही थी.
विज्ञान पत्रकार Mara Hvistendahl के अनुसार, आश्चर्यजनक रूप से केवल एक वर्ष में 62 लाख भारतीय पुरुषों की नसबंदी कर दी गई, जो ‘नाजियों द्वारा नसबंदी किए गए लोगों की संख्या से 15 गुना’ थी. असफल ऑपरेशन से लगभग 2,000 लोग मारे भी गए थे.
इस अवधि में इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी का उदय हुआ था. वास्तव में यह संजय गांधी ही थे, जिन्होंने बड़े पैमाने पर नसबंदी अभियान का राजनीतिकरण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. ऐसा कहा जाता है कि आपातकाल के दौरान उनके पास सरकार में कोई आधिकारिक पद नहीं था और उन्हें इस बात की बहुत कम जानकारी थी कि सरकार कैसे काम करती है. उनकी एकमात्र योग्यता यह थी कि वह प्रधानमंत्री के बेटे थे.
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उनका दृढ़ विश्वास था कि भारत के आर्थिक विकास के लिए जनसंख्या पर अंकुश लगाना आवश्यक है. संजय गांधी ने तर्क दिया था कि परिवार नियोजन की अनुमति सभी धर्मों द्वारा दी गई है, इसलिए किसी को भी धार्मिक कारणों से नसबंदी से नहीं बचाया जा सकता है. इस प्रकार अनिवार्य नसबंदी एक बड़े गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम का हिस्सा था, जो बदले में आर्थिक विकास को धीमा करने के बजाय बढ़ावा देगा.
नसबंदी कराने के बहाने गरीबी हटाने के इस कथित अभियान के खिलाफ जनता के बीच आक्रोश बढ़ रहा था. 18 अक्टूबर 1976 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में लोगों ने नसबंदी के विरोध में स्वास्थ्य केंद्र जला दिया था. प्रशासन ने पुलिस बुलाई और फायरिंग में 50 लोगों की मौत हो गई.
द न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, 27 अक्टूबर 1976 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संसद में इस बात की पुष्टि की थी भारत में बड़े पैमाने पर नसबंदी अभियान के दौरान पुलिस के साथ झड़प में कुछ लोग मारे गए थे.
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दंगों में हुईं मौतों को ‘दुखद’ कहा था और फिर से जोर दिया कि ‘हम अनिवार्य नसबंदी को मंजूरी नहीं देते हैं.’ उन्होंने आगे कहा था, ‘लेकिन हम मानते हैं कि नसबंदी कार्यक्रम और जनसंख्या नियंत्रण के लिए अन्य सभी ज्ञात प्रभावी उपायों को अपनाना महत्वपूर्ण और सबसे जरूरी है.’
जनवरी 1977 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल हटा लिया और चुनावों की घोषणा की. ऐसी खबरें हैं कि उनकी पार्टी के सदस्यों और इंटेलिजेंस ब्यूरो ने उन्हें सूचित किया था कि वह चुनाव जीतेंगी, हालांकि मतदाताओं ने जनता पार्टी (उनके विरोधियों का गठबंधन) को चुना और इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर कर दिया. बताया जाता है कि इन्हीं चुनावों के दौरान ये नारा दिया गया था, ‘जमीन गई चकबंदी में, मकान गया हदबंदी में, द्वार खड़ी औरत चिल्लाए, मेरा मरद तो गया नसबंदी में.’
– भारत एक्सप्रेस
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