किस्सा कुर्सी का फिल्म का पोस्टर.
फिल्में और विवाद लगभग समानांतर चलते हैं. कई बार फिल्में अपनी रिलीज से पहले ही चर्चा में आ जाती हैं और अक्सर इन चर्चाओं का कारण उससे जुड़ा कोई विवाद होता है. कई बार ये विवाद जाने-अनजाने में शुरू होता है, तो कई दफा ऐसा इन्हें जान-बूझकर शुरू किया जाता है.
हम आपको ऐसी ही एक फिल्म के बारे में बताने जा रहे हैं, जो विवादों में ऐसे फंसी कि सिनेमाघरों में कभी रिलीज ही नहीं हो पाई. वो दौर आपातकाल यानी Emergency का था और विवादों के केंद्र में आई फिल्म का नाम ‘किस्सा कुर्सी का’ था.
राजनीतिक व्यंग्य पर आधारित इस फिल्म के कारण उस दौर में ऐसा बवाल मचा था कि प्रधानमंत्री के बेटे तक को जेल की हवा खानी पड़ी थी और इसका नतीजा ये रहा था कि ये फिल्म सिनेमाघरों में कभी रिलीज ही न हो सकी.
किस्सा कुसी का/Kissa Kursi Ka
किस्सा कुर्सी का, जैसा कि नाम से ही जाहिर है फिल्म में कुर्सी की बात थी, जिसका अर्थ राजनीति में सत्ता से जुड़ा हुआ होता है. कुर्सी मिल गई यानी सत्ता मिल गई और कुर्सी हिल गई मतलब सत्ता हाथ से निकल गई. ‘किस्सा कुसी का’ का निर्देशन अमृत नाहटा (Amrit Nahata) ने किया था. यह एक Political Satire थी. फिल्म में शबाना आजमी, उत्पल दत्त, रेहाना सुल्तान, सुरेखा सीकरी और राज किरण प्रमुख भूमिकाओं में थे. फिल्म में जयदेव वर्मा ने संगीत दिया था.
दरअसल, फिल्म में भ्रष्टाचार, भारतीय नौकरशाही और राजनीति में प्रणालीगत विफलताओं का चित्रण किया गया था. यह फिल्म इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी की राजनीति पर एक व्यंग्य थी. इमरजेंसी के दौरान भारत सरकार द्वारा इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और सभी प्रिंट जब्त कर लिए गए थे.
विवाद के कारण
कहा जाता है कि फिल्म को अप्रैल 1975 में सेंसर बोर्ड यानी केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (CBFC) के पास सर्टिफिकेट के लिए भेजा गया था, तब बोर्ड ने इसे एक संशोधन समिति को भेजकर प्रमाणित करने से इनकार कर दिया थी.
बताया जाता है कि आपत्ति यह थी कि फिल्म में कथित तौर पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी के साथ-साथ स्वामी धीरेंद्र ब्रह्मचारी, रुखसाना सुल्ताना और प्रधानमंत्री के सचिव आरके धवन जैसे कांग्रेस नेताओं और समर्थकों का मजाक उड़ाया गया था.
ये भी पढ़ें: मॉडल और पत्रकार रह चुकीं मेनका गांधी का इस तरह शुरू हुआ था राजनीतिक करिअर, पहली बार दिखी थीं इस विज्ञापन में
मीडिया में आई एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘सर, इस नौजवान को छोटी कार बनाने का लाइसेंस दे दीजिए, क्योंकि उसने यह काम अपनी मां के गर्भ में ही सीख लिया था’, फिल्म में इस डॉयलॉग को लेकर आपत्ति जताई गई थी.
उस समय फिल्म के उस नौजवान के किरदार को देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बड़े बेटे संजय गांधी पर आधारित माना गया था. फिल्म में मुख्य राजनीतिक दल के चुनाव चिह्न के रूप में ‘लोगों की कार’ थी, जो संजय की मारुति कार परियोजना की ओर इशारा कर रही थी.
इसके अलावा इंदिरा गांधी के प्रतिष्ठित ‘गरीबी हटाओ’ नारे की भी फिल्म में झलक थी. इसमें स्वामी धीरेंद्र ब्रह्मचारी के प्रति गांधी परिवार के प्रेम को भी दिखाया गया था. फिल्म में उत्पल दत्त धार्मिक नेता के किरदार में नजर आए थे.
जला दिए गए थे फिल्म के प्रिंट
इन आपत्तियों को लेकर सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने फिल्म के निर्माता को कारण बताओ नोटिस जारी किया था, जिस पर उन्होंने जवाब दिया कि सभी पात्र काल्पनिक थे ‘और किसी राजनीतिक दल या व्यक्तियों का संदर्भ नहीं देते’.
लेकिन तब तक इमरजेंसी की घोषणा हो चुकी थी, इसलिए फिल्म की रिलीज पर ही रोक लगा दी गई. इसके बाद संजय गांधी और उनके समर्थकों ने CBFC के कार्यालय से फिल्म के सभी प्रिंट उठा लिए और कथित तौर पर उन्हें गुड़गांव की मारुति फैक्ट्री में जला दिया था, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि फिल्म कभी भी सिनेमाघरों में रिलीज न हो सके.
संजय गांधी को जेल की सजा
1977 में इमरजेंसी खत्म होने पर इंदिरा गांधी को जनता ने सत्ता से बेदखल कर दिया था. इमरजेंसी के दौरान जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाले आंदोलन के बाद में जनता पार्टी की सरकार बनी थी. नई सरकार ने इमरजेंसी के दौरान हुए कथित दुर्व्यवहारों की जांच के लिए शाह आयोग का गठन किया था, जिसने इस मामले की भी जांच की थी.
ये भी पढ़ें: जब किराया न चुका पाने के कारण मकान मालिक ने पूर्व प्रधानमंत्री का सामान घर के बाहर फिंकवा दिया था
आयोग ने पाया कि संजय गांधी, तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री वीसी शुक्ला के साथ मिलकर फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ के प्रिंट को नष्ट करने के दोषी थे. सुप्रीम कोर्ट द्वारा जमानत देने से इनकार करने पर संजय गांधी को एक महीने दिल्ली की तिहाड़ जेल में बिताने पड़े थे.
इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में सूचना एवं प्रसारण मंत्री वीसी शुक्ला को भी फिल्म के प्रिंट को नष्ट करने के आरोप में मुकदमे का सामना करना पड़ा और उन्हें दो साल की जेल हुई. हालांकि बाद में की गई अपील में अदालत ने यह फैसला पलट दिया था. फिर फिल्म का एकमात्र बचा हुआ प्रिंट अंतत: 90 के दशक में किसी तरह Zee TV तक पहुंच गया, जहां इसे रिलीज होने के 20 साल बाद प्रसारित किया गया था.
राजनीति में भी थे निर्देशक
फिल्म निर्देशक होने के अलावा अमृत नाहटा राजनीति से भी जुड़े हुए थे. वह राजस्थान से कांग्रेस के सांसद रह चुके थे. इमरजेंसी के बाद 1977 के चुनाव में नाहटा कांग्रेस छोड़कर जनता पार्टी में शामिल हो गए थे. उन्होंने 1978 में नए कलाकारों के साथ दोबारा यह फिल्म बनाई. विवाद और बड़े पैमाने पर प्रचार के बावजूद यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर टिक नहीं सकी. यहां तक कि शबाना आजमी की जगह कैलेंडर गर्ल केटी मिर्जा (Katy Mirza) को फिल्म में लेने का व्यावसायिक रूप से लिया गया निर्णय भी इसे बचा नहीं पाया.
इस फिल्म से पहले नाहटा ने 1965 में एक भक्ति फिल्म ‘संत ज्ञानेश्वर’ और 1967 में एक क्राइम थ्रिलर ‘रातों का राजा’ बनाई थी. 26 अप्रैल 2001 को 74 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई थी.
-भारत एक्सप्रेस
इस तरह की अन्य खबरें पढ़ने के लिए भारत एक्सप्रेस न्यूज़ ऐप डाउनलोड करें.