Allahabad High Court: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक मामले में बड़ा फैसला सुनाते हुए कहा है कि इस्लाम को मानने वाला कोई व्यक्ति लिव-इन रिलेशनशिप में अधिकार का दावा नहीं कर सकता, खासकर तब जब उसका जीवनसाथी जीवित हो.
जस्टिस एआर मसूदी और जस्टिस अजय कुमार श्रीवास्तव की खंडपीठ ने तर्क दिया कि जब नागरिकों के वैवाहिक व्यवहार को वैधानिक और व्यक्तिगत कानूनों दोनों के तहत विनियमित (Regulate) किया जाता है, तो रीति-रिवाजों को समान महत्व दिया जाना तय है.
अदालत ने एक व्यक्ति के खिलाफ अपहरण के मामले को रद्द करने और हिंदू-मुस्लिम जोड़े के रिश्ते में हस्तक्षेप न करने का निर्देश देने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए ये टिप्पणियां कीं.
पीठ ने कहा, ‘इस्लामी सिद्धांत विवाह के बाद लिव-इन संबंधों की अनुमति नहीं देते हैं.’ उन्होंने कहा कि अगर एक साथ रहने वाला जोड़ा, दोनों वयस्क हैं, उनका जीवनसाथी जीवित नहीं है और वे अपने जीवन को अपने तरीके से जीना चुनते हैं, तब स्थिति अलग होगी.
पीठ ने यह भी कहा कि विवाह संस्थाओं के मामले में संवैधानिक नैतिकता और सामाजिक नैतिकता के बीच एक ‘संतुलन’ होना चाहिए. इस ‘संतुलन’ के अभाव में समाज में शांति और शांति के लिए आवश्यक सामाजिक एकजुटता ‘फीकी और खत्म’ हो जाएगी.
आदेश में कहा गया है, ‘इस प्रकार लिव-इन-रिलेशनशिप को जारी रखने के निर्देश जैसा कि वर्तमान रिट याचिका में प्रार्थना की गई है, न्यायालय दृढ़ता से निंदा करेगा और इस तथ्य के बावजूद इनकार करेगा कि संवैधानिक सुरक्षा भारत के नागरिक के लिए उपलब्ध है.’
अदालत स्नेहा देवी और मोहम्मद शादाब खान द्वारा दायर एक रिट याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिन्होंने स्नेहा के माता-पिता द्वारा शादाब के खिलाफ पुलिस शिकायत दर्ज करने के बाद कार्रवाई से सुरक्षा की मांग की थी. पुलिस शिकायत में शादाब पर उनकी बेटी स्नेहा का ‘अपहरण’ करने और उसे शादी करने के लिए ‘प्रेरित’ करने का आरोप लगाया गया था. वयस्क होने का दावा करने वाले याचिकाकर्ताओं ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा) के तहत सुरक्षा की भी मांग की है.
जांच के बाद अदालत को पता चला कि शादाब ने 2020 में फरीदा खातून से शादी की थी और उनका एक बच्चा भी है. अदालत ने पुलिस को उनकी लिव-इन पार्टनर स्नेहा को सुरक्षा के तहत उनके माता-पिता के पास वापस भेजने का भी निर्देश दिया. हालांकि याचियों ने कहा कि वे दोनों बालिग हैं और अपनी मर्जी से लिव-इन रिलेशन में रह रहे हैं, लेकिन अदालत इससे प्रभावित नहीं हुआ. अदालत ने पुलिस को निर्देश दिया कि वह उस व्यक्ति की लिव-इन पार्टनर को उसके माता-पिता के घर ले जाए और इस संबंध में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करे.
याचिकाकर्ताओं के अनुच्छेद 21 तर्क पर पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ताओं का मामला ‘अलग’ है. इसमें कहा गया है, ‘अनुच्छेद 21 के तहत संवैधानिक संरक्षण इस तरह के अधिकार (जीवन और स्वतंत्रता) को एक अनियंत्रित समर्थन नहीं देगा, जब प्रथाएं और रीति-रिवाज अलग-अलग धर्मों के दो व्यक्तियों के बीच इस तरह के रिश्ते पर रोक लगाते हैं.’
पीठ ने मामले को 8 मई को आगे की सुनवाई के लिए सूचीबद्ध करते हुए कहा कि अदालत अगली बार महत्वपूर्ण तथ्यों को छिपाने के सवाल पर गौर करेगी.
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गौरतलब है कि इस मामले में युवती के भाई ने अपहरण का आरोप लगाया था और बहराइच के विशेश्वरगंज थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई थी. तो वहीं इसी रिपोर्ट को चुनौती देने के लिए याचिका दायर की गई थी.
बार एंड बेंच की रिपोर्ट के अनुसार, अदालत ने कहा कि दंपति ने अपनी स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए पहले भी याचिका दायर की थी. रिकॉर्ड से अदालत ने पाया कि मुस्लिम व्यक्ति पहले से ही एक मुस्लिम महिला से शादी कर चुका था और उसकी पांच साल की बेटी थी.
यह भी नोट किया गया कि अदालत को बताया गया कि मुस्लिम व्यक्ति की पत्नी को उसके लिव-इन रिलेशनशिप पर कोई आपत्ति नहीं थी क्योंकि वह कुछ बीमारियों से पीड़ित थी. ताजा याचिका में कोर्ट को बताया गया कि शख्स ने पत्नी को तीन तलाक दे दिया है.
बीते 29 अप्रैल को अदालत ने पुलिस को मुस्लिम व्यक्ति की पत्नी को पेश करने का निर्देश दिया और उसे और उसकी लिव-इन पार्टनर को भी उपस्थित रहने के लिए कहा था. एक दिन बाद न्यायालय को कुछ ‘चिंताजनक’ तथ्यों से अवगत कराया गया. यह बताया गया कि मुस्लिम व्यक्ति की पत्नी उसके दावे के अनुसार उत्तर प्रदेश में नहीं, बल्कि मुंबई में अपने ससुराल वालों के साथ रह रही थी.
अदालत ने कहा था कि अपहरण के मामले को रद्द करने की मांग करने वाली याचिका वास्तव में हिंदू महिला और मुस्लिम पुरुष के बीच लिव-इन रिलेशनशिप को वैध बनाने की मांग करती है. इस प्रकार अदालत ने कहा था कि पत्नी के अधिकारों के साथ-साथ नाबालिग बच्चे के हित को देखते हुए लिव-इन रिलेशनशिप को आगे जारी नहीं रखा जा सकता है.
-भारत एक्सप्रेस
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