हिंदी भाषा भले ही अब तक राष्ट्रभाषा न बन पाई हो, लेकिन इसकी पहुंच अब तेजी के साथ लोगों के बीच हो रही है. सोशल मीडिया के बढ़ते चलन की वजह से भी हिंदी को पढ़ने और बोलने वालों की संख्या में इजाफा हो रहा है. इसके साथ ही उन इलाकों तक हिंदी की पहुंच बढ़ रही है, जहां पर हिंदी समझने और बोलने वालों की संख्या न के बराबर रही है.
हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए यूं तो तमाम कोशिशें हुईं, लेकिन ये कोशिशें अंजाम तक नहीं पहुंच पाईं. बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता वाली समिति जब संविधान के स्वरूप पर मंथन कर रही थी तो भाषा से जुड़ा कानून बनाने की जिम्मेदारी अलग-अलग भाषा वाले पृष्ठभूमि से आए दो विद्वानों को दी गई थी.
पहले विद्वान कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी थे, जो बॉम्बे सरकार के गृह मंत्री रह चुके थे और लेखकीय नाम घनश्याम व्यास से भी जाने जाते थे. दूसरे विद्वान तमिलभाषी नरसिम्हा गोपालस्वामी आयंगर थे, जिन्होंने भारतीय सिविल सर्विस में अफसर के रूप में कार्य किया और 1937 से 1943 तक जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री भी रहे.
इन दोनों की अगुवाई में, हिंदी को लेकर विस्तृत वाद-विवाद और विचार-विमर्श हुआ, जिसके बाद मुंशी-आयंगर फॉर्मूले पर सहमति से मुहर लगी. इस फॉर्मूले के तहत ये यह तय किया गया कि हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में नहीं बल्कि राजभाषा के रूप में मान्यता दी जाएगी. इस निर्णय को भारतीय संविधान में अनुच्छेद 343 से 351 तक 14 सितंबर 1949 को अंगीकार किया गया. यही वजह है कि 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है.
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इन 15 सालों के दौरान, यह उम्मीद थी कि धीरे-धीरे हिंदी को सरकारी कामकाज की भाषा के रूप में अपनाया जाए. हालांकि, 15 वर्षों की अवधि समाप्त होने के बाद की स्थिति पर कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं थे. इसके अतिरिक्त, भविष्य में इस मुद्दे की समीक्षा करने के लिए एक संसदीय समिति गठित करने का निर्णय लिया गया.
हालांकि धीरे-धीरे 15 साल गुजर गए, लेकिन केंद्र सरकार के कामकाज में हिंदी का इस्तेमाल नहीं बढ़ पाया. सारे कामकाज अंग्रेजी में होते रहे. हिंदी भाषा को लेकर सियासत भी शुरू हो गई. जब भी इसको राष्ट्रभाषा बनाने की बात उठती तो गैर हिंदी भाषी राज्य इसके विरोध में खड़े हो जाते थे. दूसरी तरफ राजनीतिक प्रतिबद्धता की कमी के चलते हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई.
-भारत एक्सप्रेस
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