मेरी बात

इजरायल-हमास युद्ध की रक्तपात युक्त राजनीति

इजरायल-हमास युद्ध में चीन की लगातार बढ़ रही कूटनीतिक सक्रियता के बीच पिछले तीन हफ्ते से जारी यह संघर्ष जिस दिशा में बढ़ रहा है उस पर पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के संस्थापक माओ-त्से-तुंग का एक कथन बहुत सटीक प्रतीत हो रहा है। माओ ने कहा था कि राजनीति रक्तपात रहित युद्ध है और युद्ध रक्तपात युक्त राजनीति। 1962 का भारत-चीन युद्ध इसी सोच की परिणति था जब घरेलू समस्याओं से परेशान माओ ने सत्ता पर पकड़ बनाए रखने के लिए युद्ध भड़काया था। दरअसल राजनीति और युद्ध एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जिसमें राजनीति सत्ता प्राप्त करने का शांतिपूर्ण साधन है और युद्ध उसी लक्ष्य की सिद्धि का हिंसक माध्यम। जीत हासिल करने के लिए दोनों क्षेत्र में रणनीति, कार्यनीति और संसाधन जुटाने की आवश्यकता होती है। आज इजरायल और हमास का संघर्ष जीत के लिए इस आवश्यकता को किसी भी कीमत पर पूरी करने का प्रतीक बन गया है। आलम यह है कि इस आवश्यकता की पूर्ति के आड़े आ रहे उस संयुक्त राष्ट्र को ही धमकाया जा रहा है जिसका गठन ही अंतरराष्ट्रीय संघर्ष को रोकने और शांति की स्थापना के लिए हुआ है।

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटरेस ने सुरक्षा परिषद में जब हमास के हमले और बेगुनाह इजरायलियों को बंधक बनाए जाने की निंदा करते हुए जवाबी हमले को भी अनुचित ठहराया तो हंगामा बरप गया। इजरायल ने यूएन महासचिव के इस्तीफ़े की मांग कर डाली। लेकिन, यूएन अपनी बात पर अड़ा है- “नागरिकों को मारना, बंधक बनाना ग़लत है। लेकिन इसके साथ ही आम लोगों के घरों को और उन्हें निशाना बना कर रॉकेट लॉन्च करने को भी किसी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता।”

दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से युद्ध रोकने की उठ रही आवाजों के बीच इजरायल के ताबड़तोड़ हमले गाजा को हर बीतते घंटे राख में तब्दील कर रहे हैं। मगर, जवाबी हमले रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। इजरायल समेत विभिन्न देशों के 200 से ज्यादा बंधकों को छोड़ने पर जोर देने के बजाए अब गाजा को मिटा देना प्राथमिकता बन गई दिखती है। गाजा में अस्पताल, बेकरी भी निशाने पर हैं। महिलाएं, बच्चे, बुजुर्ग सभी हमले के शिकार हुए हैं। खाने की चीजों से लेकर पीने के पानी तक की कमी हो चुकी है। आर्थिक नाकेबंदी ने हालात और गंभीर बना दिए हैं। लेकिन, दुनिया इधर या उधर खड़े होने को ही अपना धर्म मान रही है।

रूस और चीन ने हमास और फिलिस्तीनियों के समर्थन में अपने युद्धपोत उतार दिए हैं तो अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के नेतृत्व में नाटो के सदस्य देश इजरायल के साथ खड़े हैं। ईरान लगातार इजरायल को युद्ध रोकने या फिर जवाब के लिए तैयार रहने की धमकी दे रहा है। मिस्र, सूडान, मोरक्को जैसे देश भी अपनी-अपनी प्रतिक्रियाओं से ‘मुसलमानों के लिए एकजुट होने’ की जरूरत पर जोर दे रहे हैं।

अरब देश हमास की मदद नहीं कर पा रहे हैं और युद्ध के बीच हमास चीफ इस्माइल हानिया डर रहा है, परेशान हो रहा है और दुनिया भर के मुस्लिम देशों खास कर अरब देशों से मदद मांग रहा है। हानिया ने अरब देशों को ललकारते हुए कहा है कि ”आपको गाजा के कितने बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गों के खून और नरसंहार की जरूरत है जिससे आपको गुस्सा आए ताकि आप इतिहास में अपना चेहरा दिखा पाने के लिए स्टैंड ले पाएं।” इतना ही नहीं लगातार हमले से परेशान हानिया ने ये भी कहा कि ”इजरायल समर्थक नीति के कारण पश्चिमी देशों, अरब और मुस्लिमों के बीच एक दीवार खड़ी हो गई है जो कभी नहीं गिरेगी।”

जाहिर है साल 2020 में अमेरिका की पहल पर हुआ अब्राहम समझौता – जिसके तहत इजरायल ने संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, मोरक्को, सूडान और कोसोवो के साथ अलग-अलग द्विपक्षीय समझौते किए हैं – अब खतरे में दिख रहा है। वैसे भी यह समझौता अपनी बुनियाद तैयार होने के समय से ही मध्य-पूर्व के देशों, रूस और चीन को सशंकित करता रहा है। मध्य-पूर्व के बाजार पर कब्जे की लड़ाई में यह परिवर्तनकारी पहल मानी जा रही थी। सच तो ये है कि चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव ने एशिया, अफ्रीका और यूरोप को जोड़ने की जो महत्वाकांक्षी पहल की है, अब्राहम समझौता अब उसके भी आड़े आ रहा है। लिहाजा अरब देशों के साथ नए रिश्ते की इस पहल को चीन, रूस जैसे देशों ने सशंकित नजरों से देखा।

बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव पर भारत भी आपत्ति जताता रहा है। इजरायल के साथ भारत के खड़े होने के पीछे विश्व पटल पर होती गोलबंदी में अपनी पोजिशनिंग भी एक बड़ी वजह है। चीन और पाकिस्तान का एक साथ खड़े होना और हमास-इजरायल युद्ध में अमेरिका-नाटो के समानांतर मोर्चा लेना भारत के लिए चिंता का सबब है। भारत ने बीते हफ्ते एक बार फिर बीआरआई को भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के खिलाफ बताया है।

दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में इस तरह के कई प्रकारांतरों से स्पष्ट होता है कि मध्य-पूर्व को लेकर पहले से मतभेदों में उलझी दुनिया हमास-इजरायल संघर्ष के कारण और ज्यादा बंट गई है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक समेत नाटो के कई सदस्य देशों के राष्ट्र प्रमुख इजरायल का दौरा कर चुके हैं और प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को समर्थन दे रहे हैं। अमेरिका ने इजरायल के समर्थन में दो युद्धपोत भूमध्य सागर में तैनात कर दिए हैं तो जवाबी कार्रवाई करते हुए चीन ने भूमध्य सागर में छह युद्धपोत तैनात कर दिए। इजरायली हमले तुरंत रोकने की मांग पर अरब देशों ने भी साझा अपील जारी की है।

तमाम घटनाक्रम इस बात के संकेत हैं कि अरब-इजरायल संघर्ष खत्म करने की कोशिशों पर अब पलीता लग चुका है। अब्राहम समझौते से जुड़े देश बयान दे रहे हैं कि आम मुसलमानों की भावना इजरायली हमले को तुरंत रोकने की है क्योंकि ऐसा नहीं होने पर इजरायल के साथ संबंध सामान्य बनाने की कोशिशों को वे रोक देंगे। समझौते के तहत यह कोशिश 2020 से जारी है। इन सबके बीच गाजा पर इजरायली हमले में अब तक 6,500 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। वहीं, इजरायल पर हमास के हमले में 1,400 लोगों की मौत हुई थी। गाजा से आ रही खबरें बता रही हैं कि वहां अब अस्पतालों के आईसीयू में भी पानी खत्म हो चुका है। रेडक्रॉस जैसी संस्थाएं भी गाजा में नदारद हैं। रसद पहुंचाने के लिए जो मार्ग हैं, उस पर भी हमले हो रहे हैं। हाल ये है कि गाजा के लोग पलायन के लिए बेचैन हैं लेकिन पड़ोसी देशों की सीमाएं भी बंद हैं। तड़प-तड़पकर जी रहे फिलिस्तीनी मौत से लड़ने में बेबस दिखने लगे हैं। यूरोपीय यूनियन और जापान ने मानवीयता दिखाई है और अस्थायी संघर्ष विराम की वकालत की है लेकिन जमीन पर ऐसी अपीलों का कोई असर नहीं दिख रहा है।

सच तो यह है कि दुनिया मानवता के नाम का इस्तेमाल कर रही है, लेकिन शांति की प्राथमिकता को अनमने तरीके से रख रही है। मानवता का राग दिखावा साबित हो रहा है और युद्ध से अनुराग ही कड़वी सच्चाई है। वर्चस्ववाद ने दुनिया को बांट दिया है। युद्ध रोकने की गंभीर कोशिशों के बजाए दोनों पक्षों को भड़काने के लिए हथियार, गोला-बारूद और युद्धपोत उपलब्ध कराए जा रहे हैं। लेबनान, सीरिया जैसे देशों से भी इजरायल की छिटपुट लड़ाई शुरू हो चुकी है। अगर ये चिंगारी ईरान तक पहुंचती है, तो विश्व युद्ध की आशंका गीदड़भभकी की लक्ष्मण रेखा भी पार कर सकती है। वैसे भी ईरान लगातार इजरायल को अल्टीमेटम दे रहा है।

जिस तरह के हालात हैं, उसमें अरब देशों ने अगर इजरायल के विरुद्ध हथियार उठा लिए तो दुनिया लंबे समय के लिए युद्ध में उलझकर रह जाने वाली है क्योंकि फिर युद्ध सीमित नहीं रहेगा। भयानक नरसंहार होगा, आर्थिक रूप से भी दुनिया नए सिरे से व्यवस्थित होगी। तो क्या यही डर अरब देशों को जुबानी जंग से आगे बढ़ने को लेकर सशंकित बना रहा है? अरब देश इजरायल से लड़ने का अंजाम भुगत चुके हैं। मगर, यह भी सच है कि अरब देश आज के दिनों में पहले से अधिक शक्तिशाली हुए हैं। फिर भी इजरायल और अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो का मुकाबला करना अरब देशों के लिए बेहद मुश्किल होगा।

सवाल ये है कि अरब देश हमास को कितनी मदद कर पाएंगे? दूसरा ये कि क्या वे खुद इजरायल-अमेरिका-यूरोपीय यूनियन की तिकड़ी से बच पाएंगे? दरअसल हमास के हमले के बाद अमेरिका और इजरायल ने मिलकर अलग-अलग बॉर्डर पर मॉडर्न हथियारों वाले 62 एयरक्राफ्ट तैनात कर दिए हैं। जॉर्डन में अमेरिका ने 15 हेवीलिफ्ट एयरक्राफ्ट तैनात किए हैं और 2 फाइटर स्क्वाड्रन और स्पेशल फोर्स को डिप्लॉय किया है। इसके अलावा साइप्रस में भी अमेरिका के 20 हेवीलिफ्ट एयरक्राफ्ट हैं।

ऐसे में ये तय है कि विश्व युद्ध हुआ तो यह अरब-इजरायल तक ही सीमित नहीं रहेगा। दुनिया भर में वर्चस्ववाद की लड़ाई कई मोर्चों को जन्म देगी। यह मोर्चा भारत-पाकिस्तान और भारत-चीन सीमा भी हो सकता है। भारत के लिए यह स्थिति ख़तरनाक होगी। अमेरिका की जो नजदीकी इजरायल से है वह भारत से नहीं है। भारत की विदेश नीति अमेरिका समेत दुनिया के वर्चस्ववादी देशों को खटकती रहती है। ऐसे में भारत को अपने दम पर ही स्थिति संभालनी होगी। चूंकि अरब-इजरायल संबंध में धार्मिकता का भी पुट है और भारत में धार्मिक आधार पर बड़ी संख्या में लोग इजरायल के खिलाफ हैं इसलिए इजरायल के समर्थन वाले गुट की ओर खड़े होना भारत की मुश्किलें बढ़ा सकता है। यही वजह है कि भारत ने अब तक संतुलित विदेश नीति का अनुसरण किया है। खतरे में दिख रही मानवता के अस्तित्व को बचाने के लिए शेष-विश्व से भी संतुलन दिखाने की अपेक्षा है।

उपेन्द्र राय, सीएमडी / एडिटर-इन-चीफ, भारत एक्सप्रेस

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