अफ्रीकी देश सूडान में चल रहे गृहयुद्ध ने एक ऐसा मानवीय संकट पैदा कर दिया है जिससे दुनिया का एक बड़ा हिस्सा प्रभावित हो रहा है। दो साल पहले सेना और नागरिकों की संयुक्त सरकार के तख्तापलट होने के बाद से सूडान की सेना और रैपिड सपोर्ट फोर्स के बीच सत्ता के लिए शुरू हुआ संघर्ष अब खूनी जंग में बदल चुका है जिसमें चार सौ से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है और लाखों लोग दर-बदर हो गए हैं। आर्मी चीफ जनरल अब्देल फतेह अल बुरहान और रैपिड सपोर्ट फोर्स के चीफ जनरल हमदान दगालो के बीच वर्चस्व की लड़ाई में पूरा सूडान फंस गया है और फंस गए हैं तमाम देशों के वो बेकसूर नागरिक जिनका इस संघर्ष से कोई लेना-देना भी नहीं है। भोजन, पानी और बिजली के बिना सूडान में फंसे अपने नागरिकों को निकालने के लिए दुनिया भर के देशों में मारामारी मची हुई है जो वाजिब भी है। भारत ने भी सूडान में रह रहे करीब 4,000 प्रवासी भारतीयों को बचाने के लिए ऑपरेशन कावेरी शुरू किया है जिसके तहत भारत सरकार हमेशा की तरह संकटग्रस्त क्षेत्र से प्रत्येक भारतीय की सुरक्षित निकासी के लिए पूरी प्रतिबद्धता के साथ जुटी है। शुक्रवार को सूडान से एक अच्छी खबर भी आई कि वहां की आर्म्ड फोर्सेस ने युद्धविराम को 72 घंटे के लिए और बढ़ा दिया है। पहले इस युद्धविराम की मियाद शुक्रवार को ही खत्म होने वाली थी। अब इस नए घटनाक्रम से सूडान से भारतीयों को बाहर निकालने की सरकार की प्रतिबद्धता को और मजबूती मिलेगी।
हालांकि ऑपरेशन कावेरी को लेकर सवाल भी उठे हैं कि सूडान से भारतीय नागरिकों को उस तेजी से नहीं निकाला जा सका है जिस गति से यूक्रेन में ऑपरेशन गंगा संचालित हुआ था। यूक्रेन पर रूस के हमले के दो दिन बाद ही भारत सरकार ने ऑपरेशन गंगा शुरू कर दिया था और एक हफ्ते में ही 18000 भारतीय यूक्रेन से सुरक्षित भारत लौट आए थे। वहीं, सूडान में 15 अप्रैल से गृहयुद्ध चल रहा है और दो हफ्ते पूरे होने के बाद भी भारत वहां से अपने 4,000 नागरिकों को बाहर नहीं निकाल पाया है। सवाल उठाने वालों के अपने तर्क हो सकते हैं लेकिन ऐसे लोगों को इस हकीकत को भी समझना होगा कि जंग के इन दोनों मैदानों के हालात में जमीन-आसमान का फर्क है। एक तो यूक्रेन और रूस की जंग दो देशों के बीच का युद्ध है। फिर इस युद्ध में एग्जिट रूट को लेकर कोई भ्रम की स्थिति नहीं थी। इतना ही नहीं, युद्धग्रस्त क्षेत्र के तमाम पड़ोसी देशों में मजबूत सरकारें हैं जिन्होंने विदेशी नागरिकों को बाहर निकालने में पूरा सहयोग दिया। जबकि सूडान में लड़ रहे दोनों पक्ष एक ही देश के हैं। दोनों ही ओर से जबरदस्त फायरिंग हो रही है और वो किसी को बख्श नहीं रहे हैं। इस रस्साकशी में एक भारतीय और एक अमेरिकी नागरिक अपनी जान भी गंवा चुके हैं। ऐसे में ह्यूमेनिटेरियन कॉरिडोर बनाने को लेकर हर देश में एक झिझक है। भारत या कोई भी देश ये नहीं चाहता कि जब वो अपने लोगों को निकाल रहे हों तो उनके दस्ते पर ही हमला हो जाए। इसलिए सभी देशों ने युद्धविराम के इंतजार को वरीयता दी। वैसे भी कठिनतम परिस्थितियों के बावजूद विदेशी धरती पर फंसे भारतीयों को बचाने के लिए भारत सरकार के प्रयासों को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठा प्राप्त है। पिछले कुछ वर्षों की ही बात करें तो यमन में ऑपरेशन राहत और अफगानिस्तान में ऑपरेशन देवशक्ति से लेकर यूक्रेन में ‘ऑपरेशन गंगा’ तक सरकार ने विदेशों से अपने नागरिकों को वापस लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
हालांकि ये जरूर है कि सूडान में रेस्क्यू मिशन चलाने में सरकार को दिक्कतें पेश आई हैं। वो भी तब जबकि सूडान में भारत की कई वजहों से अच्छी-खासी साख है। साल 2005 में जब सूडान में सरकार और विद्रोहियों के बीच शांति समझौता हुआ था, उस समय संयुक्त राष्ट्र के शांतिरक्षक दल के तहत भारतीय सेना भी वहां गई थी जिसके बाद साल 2011 में दक्षिण सूडान से अलग होकर आज का सूडान बना। सूडान की बदहाल स्वास्थ्य सेवा को सहारा देने में भी भारत बड़ी भूमिका निभाता रहा है। सूडान के हर कोने से हजारों की संख्या में लोग इलाज कराने के लिए भारत आते हैं। इसके साथ ही वहां रहने वाले ज्यादातर भारतीय भी आयुर्वेद के उत्पाद का कारोबार करते हैं जिनसे बनी दवा का घर बैठे सस्ते दामों में मिल जाना चरमराते स्वास्थ्य ढांचे के बीच सूडान वासियों के लिए किसी वरदान से कम नहीं है।
भारत के पक्ष से देखें, तो सूडान में विशेष रूप से ईंधन को लेकर हमारे महत्वपूर्ण आर्थिक हित हैं। सूडान भारत के लिए कच्चे तेल का प्रमुख सप्लायर भी है। जाहिर तौर पर वहां की अस्थिरता भारत की ऊर्जा सुरक्षा को बाधित कर सकती है। पूर्व की तरह भारत अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए केवल ईरान, इराक और सऊदी अरब जैसे पश्चिम एशियाई देशों पर ही निर्भर नहीं रह सकता है। सूडान के साथ-साथ नाइजीरिया और अंगोला जैसे तेल समृद्ध अफ्रीकी राज्यों के साथ रिश्ते स्थापित करने के पीछे ऊर्जा की बढ़ती मांग को पूरा करना भी एक प्रमुख वजह है। इसी तरह हॉर्न ऑफ अफ्रीका में अपने निवेश, व्यापार और अन्य हितों की रक्षा करना भारत के लिये महत्त्वपूर्ण होगा। भारत-सूडान संबंधों की मौजूदा संरचना और हॉर्न ऑफ अफ्रीका में सूडान के स्थान को देखते हुए नए शासन को मान्यता देने के लिए भारत को जल्दबाजी में कोई भी कदम उठाने से पहले क्षेत्र में अपने व्यापार, निवेश एवं दूसरे हितों को भी देखना होगा। वहीं, एशिया और अफ्रीका के बीच का लाल सागर क्षेत्र भारत की समुद्री सुरक्षा के नजरिए से भी काफी महत्वपूर्ण है।
सूडान का घटनाक्रम तेजी से बदल रही दुनिया की उन खतरनाक चुनौतियों की ओर भी ध्यान खींचता है जो अब बार बार हमारे सामने आकर खड़ी हो रही हैं। एक अनुमान है कि तीन करोड़ से ज्यादा भारतीय दूसरे देशों में रहते हैं और हर साल विदेशों में पर्यटन या अन्य कामों से जाने वाले भारतीयों का आंकड़ा भी करीब-करीब इतना ही है। प्रवासी भारतीयों की एक बड़ी संख्या चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में अपनी लक्ष्य साधना करती है – जैसे यूक्रेन में छात्र, इराक या यमन में नर्सें या लीबिया, सीरिया और लेबनान में मजदूर। पिछले वर्षों में हमने देखा है कि किस तरह इन देशों में उथल-पुथल मचने पर समुचित सुरक्षा के अभाव में इन प्रवासियों की सुरक्षित वापसी के लिए सरकार को मोर्चा संभालना पड़ा है। दुनिया भर में अब जिस तेजी और नियमितता के साथ ये घटनाएं आकार ले रही हैं, उसे देखते हुए लगता है कि समय आ गया है कि अब हम भी इनका सामना करने के लिए कोई विशेष बल बनाने जैसे मानक तय कर लें। पिछले साल विदेश मामलों की संसदीय समिति ने इसी से मिलते-जुलते कदम की अनुशंसा भी की थी। यह भी जरूरी है कि इस तरह के संकट पर राजनीतिक टीका-टिप्पणी और मुश्किल में फंसे देशवासियों की सुरक्षित निकासी पर राजनीतिक लाभ के लिए अनावश्यक विवाद से बचा जाए। दुनिया के किसी भी कोने में जब-जब इस तरह की चुनौती सामने आई है, भारत सरकार ने देश-दुनिया में उपलब्ध संसाधनों का हरसंभव उपयोग करते हुए हर रेस्क्यू मिशन को सफल बनाकर जिस तरह देश की क्षमता को स्थापित किया है, उस प्रतिष्ठा को हर कीमत पर बरकरार रखा जाना चाहिए।
-भारत एक्सप्रेस
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