Sanatana Dharma Row: सनातन धर्म पर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे उदयनिधि स्टालिन की विवादास्पद टिप्पणी ने देश में बड़ा राजनीतिक तूफान खड़ा कर दिया है. सत्ताधारी पार्टी बीजेपी इसे एक बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही है, जबकि इंडिया गठबंधन में शामिल दल एक सप्ताह पुराने पड़ चुके इस बयान पर अब भी अपनी प्रतिक्रिया को लेकर असहज दिख रहे हैं.
पिछले सप्ताह एक कार्यक्रम में उदयनिधि स्टालिन ने सनातन धर्म को समाज में असमानता और विभाजन को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार बताते हुए न सिर्फ इसकी तुलना मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियों से की बल्कि इसे खत्म करने का आह्वान भी किया था. इस बयान पर दिल्ली पुलिस ने उदयनिधि के खिलाफ मामला भी दर्ज किया है. इतना सब होने के बावजूद वह न केवल अपने शब्दों पर दृढ़ता से कायम हैं, बल्कि इसके लिए किसी कानूनी चुनौती का सामना करने तक की दिलेरी भी दिखा रहे हैं.
हालांकि हाल ही में बने इंडिया गठबंधन के लिए इसके चुनावी नुकसान की आशंका को भांपकर उदयनिधि के पिता और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एवं डीएमके अध्यक्ष एमके स्टालिन ने समझदारी दिखाते हुए अपने मंत्री बेटे के बचाव में कहा है कि इस बयान में किसी भी धर्म या धार्मिक मान्यता को ठेस पहुंचाने का कोई इरादा नहीं था और उदयनिधि ने केवल सनातन धर्म में अनुसूचित जाति, आदिवासियों और महिलाओं के प्रति बर्ताव को लेकर अपनी बात कही है. इंडिया गठबंधन में शामिल सबसे बड़े दल कांग्रेस ने भी अपनी चुप्पी तोड़ते हुए सर्वधर्म सम्भाव में विश्वास और संविधान के अनुरूप हर धर्म, हर आस्था के सम्मान की बात कही है.
यह पहली बार नहीं है कि सनातन धर्म का विचार राजनीतिक बहस के केन्द्र में आया है. बहस या अभिव्यक्ति का स्तर चाहे कुछ भी रहा हो, लेकिन अपने बयान पर सफाई में उदयनिधि ने ईवी रामास्वामी नायकर पेरियार और डॉक्टर बीआर आंबेडकर का उल्लेख कर यही बताने की कोशिश भी की है. अपने नेता की हां में हां मिलाने के चक्कर में उदयनिधि की पार्टी के सांसद ए राजा ने सनातन धर्म की तुलना कुष्ठ रोग और एड्स से कर दी.
आरजेडी की बिहार इकाई की ओर से भी सनातन धर्म को लेकर जो कहा गया है, वो कम आपत्तिजनक नहीं है. इसी तरह का उत्साह दिखाने के फेर में केन्द्र सरकार के कुछ मंत्रियों और बीजेपी संगठन के कुछ पदाधिकारियों ने भी कांग्रेस समेत इंडिया गठबंधन के नेताओं पर व्यक्तिगत टिप्पणियां करने में राजनीतिक शिष्टाचार की अनदेखी की है, जिसके कारण यह बहस अब पटरी से उतर चुकी है और पूरी की पूरी राजनीतिक जमात आमने-सामने आ गई है. जाहिर है दक्षिण से शुरू हुई बयानबाजी ने अब उत्तर और पश्चिम तक देश की राजनीति का पारा चरम पर पहुंचा दिया है.
अब न तो उदयनिधि नादान हैं, न इस मामले में अपनी बयानबाजी से सुर्खियां बटोर रहे दूसरे नेता राजनीतिक नफे-नुकसान से अनजान हैं. सनातन धर्म को लेकर इनकी टिप्पणियां कितनी भी बेसिर-पैर की लगें लेकिन ये सभी नेता जानते-समझते हैं कि उनके बयान कहां और कितना प्रभाव डाल सकते हैं. जैसे उदयनिधि ने जिस समारोह में यह विवादास्पद बयान दिया, उसका नाम ही सनातन धर्म उन्मूलन सम्मेलन था. आरोप लग रहे हैं कि इसका मकसद हिंदुओं को भड़काना था और उदयनिधि की टिप्पणी इसी ओर लक्षित थी. इसे तमिलनाडु में द्रविड़ पहचान को फिर से मजबूत करने के प्रयास के रूप में देखा और समझा जाना चाहिए. सनातन धर्म पर सवाल उठाकर उदयनिधि ने परोक्ष रूप से ब्राह्मणवादी परंपराओं और हिंदू रूढ़िवादिता को चुनौती देकर अपने राज्य तमिलनाडु में बीजेपी और उसके हिंदू राष्ट्रवादी एजेंडे के बढ़ते प्रभाव पर पलटवार किया है.
उदयनिधि का बयान और बीजेपी की प्रतिक्रिया दरअसल द्रविड़ पहचान, हिंदू राष्ट्रवाद और तमिलनाडु में चल रही राजनीतिक उठापटक को बयां करती है. विचारधाराओं के इस टकराव के राजनीतिक निहितार्थ महत्वपूर्ण हैं. इंडिया गठबंधन की बात करें, तो उसका एकमेव लक्ष्य बीजेपी को हराना है और ऐसे में गठबंधन में शामिल एक मौजूदा मुख्यमंत्री का बेटा चुनाव से कुछ महीने पहले सनातन धर्म यानी एक तरह से बीजेपी के सबसे करीबी राजनीतिक एजेंडे के ही सफाए की बात कर रहा है. उसके साथ ही गठबंधन के सबसे बड़े दल कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के पुत्र भी उदयनिधि की टिप्पणी का समर्थन करते हुए कह रहे हैं कि जो भी धर्म लोगों को जातियों और समुदायों के आधार पर बांटता है और असमानता को बढ़ावा देता है, उसे उखाड़ फेंकना चाहिए.
जिस देश की 80 फीसद आबादी सनातन धर्म का पालन करती हो, वहां निश्चित तौर पर इस तरह की बयानबाजी राजनीतिक दुस्साहस जैसी लगती है. इंडिया गठबंधन के लिए यह अच्छी बात नहीं है. सामान्य समझ तो यही कहती है कि किसी भी परिस्थिति में मतदाता ऐसे नेताओं को नहीं चुनेंगे जिनके मन में हिंदुओं और भारतीय सभ्यता के प्रति इतना घोर तिरस्कार हो. लेकिन देश के जिन कुछ हिस्सों में हिंदू विरोधी भावना का प्रचलन दिखता है, क्या यही बात वहां भी लागू होती है?
एक बात तो साफ है कि द्रमुक अपनी हिंदू विरोधी मानसिकता नहीं छोड़ेगी. इंडिया गठबंधन के सामने यह वैसी ही स्थिति है जैसी कुछ दिनों पहले तक महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी के सामने थी जब राहुल गांधी खुलकर विनायक दामोदर सावरकर पर हमले कर रहे थे. राष्ट्रीय स्तर पर उस रणनीति का भले ही विपक्ष को नुकसान नहीं था, लेकिन महाराष्ट्र में तो यह विषय राज्य की पूरी की पूरी राजनीति की धुरी बनता जा रहा था.
सनातन का विवाद ऐसा ही है जो तमिलनाडु में तो डीएमके के लिए लाभदायी हो सकता है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इंडिया गठबंधन की बन रही सियासी जमीन के लिए भूकंप साबित हो सकता है. प्रश्न यह है – क्या इंडिया गठबंधन दलों ने अपना मन बना लिया है और निर्णय लिया है कि वे उस पार्टी के साथ एक ही मंच साझा करेंगे जो नियमित रूप से हिंदुओं और उनकी मान्यताओं का अपमान करते करते अब उस सनातन धर्म के उन्मूलन के आह्वान तक पहुंच गई है, जिसने भारत को सहस्राब्दियों तक एक सभ्यता के रूप में जीवित रखा है?
दूसरी तरफ बीजेपी है जिसकी दिक्कत यह है कि तमाम आक्रामक प्रचार के बावजूद वो उदयनिधि के बयान की आलोचना करने में सतर्कता भी बरत रही है क्योंकि सवाल फिर आंबेडकर और पेरियार पर भी उठते हैं. ऐसे में दलित और ओबीसी समर्थक वोटरों के एक धड़े का पार्टी से नाराज़ होने का खतरा है जो चुनावी राजनीति में नुकसानदेह साबित हो सकता है.
इसलिए लोकसभा चुनाव की तरफ़ बढ़ रहे देश में इस तरह की रणनीतिक और सामाजिक बहस को एक मुद्दे की शक्ल में जनता के चिंतन और विचारों को प्रभावित करने वाले सियासी हथियार के तौर पर भी देखे जाने की जरूरत है. वैसे भी देश की राजनीति में यह एक ऐसा हथियार रहा है, जिसके सहारे सियासी दलों ने हर दौर में चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश की है.
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