राज्यसभा चुनावों में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के विधायकों ने जिस अंदाज में अपनी पार्टी के व्हिप को धता बता कर अंतरात्मा की आवाज पर भारतीय जनता पार्टी प्रत्याशियों के पक्ष में मतदान किया, उससे दोनों ‘लड़कों’ के होश फाख्ता हैं. दोनों दलों के प्रवक्ता और समर्थक अब लोकतंत्र की दुहाई देकर विलाप कर रहे हैं. पालतू विश्लेषकों और पत्रकारों का लोकतंत्र पर रुदाली भी प्रारंभ हो गया है. इन सब का आरोप है कि भारतीय जनता पार्टी में सरकारी एजेंसियों के दुरुपयोग और धन बल के प्रयोग के बूते कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडी एलायंस के घटक दलों के विधायक दलों में फूट डालने का काम किया है और यह लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर बनाने की योजना के तहत है. कांग्रेस और उसके बगलबच्चा दल जब भाजपा और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सहयोगी दलों के विधायकों पर डोरे डालते हैं तब उसे वह बेहद लोकतांत्रिक होने का दावा करते हैं. अभी कुछ दिन पहले ही कांग्रेस की सहयोगी राष्ट्रीय जनता दल के प्रवक्ता ताल ठोक रहे थे कि बिहार में ऑपरेशन लालटेन होगा और भाजपा तथा जदयू के विधायक दल को तोड़ा जाएगा. अलग बात है कि जब बिहार विधानसभा में नीतीश कुमार सरकार ने विश्वास मत पेश किया तो राजद के ही विधायक पाला बदलकर नीतीश के समर्थन में खड़े हो गए. जो कांग्रेस हिमाचल प्रदेश में अपने प्रत्याशी अभिषेक मनु सिंघवी के पराभव पर चूड़ियां तोड़ रही है, वही कांग्रेस कर्नाटक में भाजपा विधायकों से क्रॉस वोटिंग कर लेने पर इतराने से बाज नहीं आती.
हालांकि देश ये भी जानता है कि अभिषेक मनु सिंघवी किस तरह से महिला को जज बनाने का छलावा देते थे! इसी तरह उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी भी पाला बदलने वाले विधायकों को नैतिकता का पाठ पढ़ा रही है जबकि उसने भी ओम प्रकाश राजभर के एक विधायक से जब अपने पक्ष में क्रॉस वोटिंग कराई तो उसका नैतिक बल पता नहीं कहां चला गया था? समाजवादी पार्टी ने 1990 के दशक और 2003 में बड़े पैमाने पर बहुजन समाज पार्टी के विधायकों से दल बदल कराया था तब उनकी नैतिकता कहां खो गई थी? कांग्रेस ने विगत विधानसभा में ही राजस्थान में बसपा के सभी विधायकों को तोड़ लिया था, तब लोकतंत्र की दुहाई उसने बिसार दी थी. दरअसल लोकतंत्र की परिभाषा को तमाम कांग्रेसी बगलबच्चों ने अपनी सुविधा के अनुसार परिवर्तित करने का शगल शुरू से ही पाल रखा है.
भारत में दल बदल का इतिहास नया नहीं है. जो आजकल उठते-बैठते लोकतंत्र की दुहाई देते हैं उन्हें स्मृति भ्रंश का रोग न होने पाए, इसलिए कुछ तथ्य पेश करने आवश्यक हैं. संविधान निर्माताओं ने तो दल-बदल रोकने के संदर्भ में किसी तरह का प्रावधान ही नहीं किया था. भारत के संविधान पर वेस्टमिंस्टर प्रणाली का प्रभाव है जिसमें विधायिका के सदस्यों से अपनी लोकतांत्रिक चेतना के आधार पर निर्णय की स्वतंत्रता परिकल्पित रही है. 1951 से लेकर 1967 तक विविध दलों से कुल 542 विधायकों ने अपने दल से पाला बदलकर कांग्रेस में प्रवेश किया. तब तक सब कुछ चंगा था और इस प्रक्रिया को लोकतांत्रिक चोला भी पहनाया गया था. 1967 में संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकार की सफलता के बाद बड़े पैमाने पर कांग्रेस छोड़कर विधायक विरोधी दलों में शामिल होने लगे. तब कांग्रेस सरकार ने यशवंत राव चव्हाण के नेतृत्व में दल बदल के बारे में एक समिति का गठन किया. इस समिति का गठन लोकसभा में दल बदल के संदर्भ में पारित एक प्रस्ताव के चलते हुआ. फरवरी 1967 से मार्च 1968 के बीच 12 महीने की समयावधि में कुल 438 विधायकों ने दल बदल कर लिया. तब कांग्रेस की आंखें चौंधियाई. यशवंत राव चव्हाण समिति की रिपोर्ट में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भूपेश गुप्ता ने जो नोट लिखा है वह कांग्रेस की अवसरवादी राजनीति को अच्छे से बेनकाब करता है.
1967 तक जो दल-बदल हो रहे थे, इसका लाभ कांग्रेस को मिल रहा था. किंतु चौथे आम चुनाव के बाद विविध राज्यों में कांग्रेस की पराजय के बाद दल-बदल कर कांग्रेसी विधायक विपक्षियों के साथ सरकार बनाने लगे. 1967 के बाद जिन विधायकों ने पाला बदला था, उनमें सात राज्यों के 210 विधायक शामिल थे जिनमें से 116 मंत्री बन गए थे. संकेत साफ था कि सरकार बनाने के लिए मंत्री पद का लोभ विधायकों को पाला बदलने के लिए प्रेरित कर रहा था. 1970 के दशक में पहले कांग्रेस ने और बाद में जनता पार्टी की सरकार ने पहली बार दल-बदल प्रतिबंधक कानून बनाने पर विचार करना प्रारंभ किया. हालांकि 1979 में कांग्रेस ने जनता पार्टी में फूट डालकर मोरारजी देसाई की सरकार गिरा दी. चौधरी चरण सिंह को कुछ काल के लिए प्रधानमंत्री पद से पहले नवाजा और फिर उनकी सरकार से समर्थन वापस खींचकर उन्हें अपदस्थ कर दिया. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उपजी सहानुभूति लहर ने कांग्रेस को जबरदस्त बहुमत लोकसभा में प्रदान किया जिसके बूते राजीव गांधी की सरकार ने 1985 में पहली बार संसद में दल-बदल विरोधी कानून पारित करने में सफलता प्राप्त की. अब किसी भी विधानसभा या लोकसभा में विधायक दल या संसदीय दल में विभाजन के लिए एक तिहाई सदस्यों का साथ आना आवश्यक था. इसके बाद भी राजीव गांधी ने स्वयं विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार और चंद्रशेखर की सरकार को गिराने का खेल खेला. तमिलनाडु की विधानसभा में एक तिहाई विधायक दल के नियम की धज्जी स्वयं विधानसभा अध्यक्ष ने 1987 में उड़ाई.
जो शरद पवार इन दिनों दो-तिहाई विधायक दल के अजीत पवार के साथ जाने के बावजूद महाराष्ट्र के विधानसभा अध्यक्ष राहुल नार्वेकर के फैसले को अलोकतांत्रिक करार दे रहे हैं, वही 1991 में एक तिहाई की तुलना में कम विधायक होने के बावजूद शिव सेना से अलग हुए छगन भुजबल के नेतृत्व वाले 12 विधायकों को तत्कालीन महाराष्ट्र विधानसभा के अध्यक्ष मधुकर राव चौधरी के फैसले को संविधान के अनुकूल बता रहे थे. ऐसे तमाम विधानसभाओं के दर्जनों मामले हैं जिसमें विविध विधानसभाओं के विविध अध्यक्षों ने एक तिहाई और दो तिहाई के मानक की धज्जियां उड़ाई हैं. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने अलग विधायक दल के लिए दो तिहाई का मानक तय किया. बावजूद इसके ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिसमें विधायक दल की तोड़फोड़ को संविधान सम्मत ठहराया गया. अब कांग्रेस और उसके बगलबच्चा दल आए दिन गच्चा खा रहे हैं, इसलिए उनके लोकतंत्र और संविधान की परिभाषा आजकल बदली -बदली नजर आ रही है.
-भारत एक्सप्रेस
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