बिहार में नीतीश सरकार की ओर से जारी जातीय सर्वे के आंकड़ों ने नई बहस को जन्म दे दिया है। अब सवाल पूछे जा रहे हैं कि आबादी के लिहाज से बिहार में मुसलमानों की जनसंख्या सबसे ज्यादा यानी करीब 18 फीसदी है और हिंदुओं में यादवों की आबादी सबसे ज्यादा 14 फीसदी है। ऐसे में हर ओर ये सवाल उठने लगा है कि क्या बिहार में आबादी के हिसाब से मुसलमानों को हिस्सेदारी मिलेगी?
कांग्रेस नेता आचार्य प्रमोद कृष्णम का कहना है कि बिहार में दलित और मुसलमानों की आबादी ज्यादा है। ऐसे में नीतीश कुमार को कुर्सी छोड़ देनी चाहिए। करीब 18 फीसदी मुस्लिम और और 20 फीसदी दलित के रहते 3 फीसदी वाले कुर्मी यानी नीतीश कुमार कैसे मुख्यमंत्री रह सकते हैं? हालांकि इस पर नीतीश सरकार या उसके मंत्रियों की ओर से कोई बयान नहीं आया है।
तो वहीं नीतीश सरकार में शामिल आरजेडी के प्रमुख लालू प्रसाद यादव का कहना है कि सरकार को अब सुनिश्चित करना चाहिए कि जिसकी जितनी संख्या, उसकी उतनी हिस्सेदारी हो। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव का दावा है कि वो शुरू से मानते हैं कि राज्य के संसाधनों पर न्यायसंगत अधिकार सभी वर्गों का हो। अब सवाल उठता है कि नीतीश कुमार बिहार की सत्ता में अपने सहयोगी कांग्रेस और आरजेडी की मांग पर अमल करेंगे? क्या नीतीश कुमार मुख्यमंत्री का पद छोड़कर किसी मुसलमान को मुख्यमंत्री बनाएंगे?
बिहार के जातीय सर्वे का विस्तार से विश्लेषण किया जाए, तो राज्य की कुल आबादी 13 करोड़ है, जिसमें करीब 82 फीसदी हिंदू हैं और करीब 18 फीसदी मुस्लिम हैं। देश में मुसलमानों को सामान्य और पिछड़ा वर्ग में शामिल किया गया है, लेकिन उनका एक वर्ग काफी समय से खुद को दलित श्रेणी में शामिल करने की मांग करता आ रहा है।
बिहार में अगर सत्ता में मुसलमानों की हिस्सेदारी की बात करें, तो आबादी में बड़े प्रतिशत के लिहाज से उनकी हिस्सेदारी काफी कम है। अगर 243 सदस्यों वाली विधानसभा के आंकड़ों को देखें, तो मुसलमान विधायकों की संख्या अभी 19 है। विधानसभा में 14 फीसदी आबादी वाले यादव विधायकों की तादाद 52 है, तो 3.4 फीसदी जनसंख्या वाले राजपूत जाति के 28 विधायक हैं, वहीं 2.8 फीसदी भूमिहारों के 21 प्रतिनिधि विधानसभा में मौजूद हैं।
नीतीश मंत्रिमंडल पर नजर दौड़ाएं, तो 5 मुस्लिम और 8 यादव मंत्री शामिल हैं। सरकार में आरजेडी के कोटे से 3 और कांग्रेस-जेडीयू के कोटे से एक-एक मुस्लिम मंत्री हैं। जबकि आरजेडी से 7 और जेडीयू से 1 यादव मंत्री हैं। यहां मंत्रालयों के बंटवारे में भी भेदभाव नजर आता है। अगर देखें, तो आरजेडी कोटे से मंत्री बने मुसलमानों को यादवों की तुलना में कम महत्वपूर्ण विभाग दिए गए हैं।
बिहार में जातीय सर्वे के पीछे नीतीश कुमार की मंशा चाहे, जो भी हो लेकिन अब मुस्लिम आबादी के लिए हक की मांग जोर पकड़ने लगी है। बिहार के पूर्व विधान परिषद सदस्य प्रेम कुमार मणि इसे एक क्रांतिकारी कदम मानते हैं। उनका कहना है कि आजादी के बाद नीतीश ने पहली बार मुसलमानों के भीतर की जातियों को भी गिनने का काम किया है। मुसलमानों में भी आबादी से हिस्सेदारी की लड़ाई वर्षों पुरानी रही है।
दरअसल, 2011 की जनगणना से पहले मुसलमानों में पिछड़े को आरक्षण देने की मांग उठी थी। 1992 से पसमांदा की लड़ाई लड़ने वाले पूर्व सांसद अली अनवर का कहना है कि इन आंकड़ों के आने के बाद लड़ाई मजबूत होगी। अभी तक अनुमान लगाया जाता था, जिस पर विवाद भी रहता था। अनवर के मुताबिक पहले मुसलमानों को साधने के लिए राजनीतिक दल 1 या 2 संपन्न लोगों को पद दे देते थे, लेकिन अब ये मुश्किल होगा। राजनीतिक पार्टियों को संख्या के हिसाब से संगठन और सरकार में तरजीह देनी पड़ेगी।
जामिया मिलिया इस्लामिया में कानून विभाग के प्रोफेसर असद मलिक का दावा है कि संविधान के निर्माण के समय भी मुसलमानों को आरक्षण देने की मांग उठी थी, लेकिन उसे टाल दिया गया था। इसके बाद कई बार मुसलमानों में पिछड़ों को रिजर्वेशन देने की मांग उठती रही है, लेकिन हर बार किसी ना किसी वजह से इस मुद्दे की ठंडे बस्ते में डाला जाता रहा है।
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