कुछ राज्यों की जेलों में जाति आधारित भेदभाव (Caste-based Discrimination) से जुड़ी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला आया है. सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (3 अक्टूबर) को कुछ राज्यों की जेल नियमावली के भेदभावपूर्ण प्रावधानों को खारिज कर दिया तथा जाति आधारित भेदभाव, कार्य वितरण और कैदियों को उनकी जाति के अनुसार अलग वार्डों में रखने की प्रथा की आलोचना की. मुख्य न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने जेलों में जाति आधारित भेदभाव रोकने के लिए कई निर्देश भी जारी किए.
जेलों में जाति आधारित भेदभाव से जुड़ी याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जेलों में जातिगत भेदभाव नहीं हो सकता है. कैदियों के साथ सम्मानजनक व्यवहार न करना औपनिवेशिक विरासत है. जेलों में कैदियों से जाति पूछने का कॉलम नहीं होना चाहिए. कोर्ट ने निर्देश दिया कि तीन महीने में जेल मैनुअल बदले, मौजूदा समय में संविधान के अनुच्छेद 15, 17, 23 सहित अन्य का उल्लंघन हो रहा है.
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि सफाई का काम सिर्फ अनुसूचित जाति के कैदियों को सौंपा जाना चौंकाने वाला है. इसी तरह से खाना बनाने का काम दूसरी जाति के कैदियों को दिया गया है. कोर्ट ने कहा कि कैदियों के बीच जाति को अलगाव के आधार के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इससे दुश्मनी पैदा होगी. यहां तक कि कैदी भी गरिमा से जीवन जीने का अधिकार रखता है.
आपत्तिजनक नियमों को दरकिनार करते हुए शीर्ष अदालत ने राज्यों को तीन महीने के भीतर उनमें संशोधन करने का आदेश दिया. अदालत ने यह भी कहा कि किसी खास जाति से सफाईकर्मियों का चयन मौलिक समानता के खिलाफ है. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को फैसले की प्रति तीन सप्ताह में सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को फैसले की कॉपी भेजने को कहा है.
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पीठ ने कहा, ‘राज्य नियमावली के अनुसार जाति को जेलों में हाशिये पर पड़े वर्गों के कैदियों के साथ भेदभाव का आधार नहीं बनाया जा सकता है. जेल में ऐसी प्रथाओं की अनुमति नहीं दी जा सकती. कैदियों को खतरनाक परिस्थितियों में सीवर टैंकों की सफाई करने की अनुमति नहीं दी जाएगी.’ पीठ ने आदेश दिया कि पुलिस को जाति आधारित भेदभाव के मामलों से निपटने के लिए ईमानदारी से काम करना होगा. कुछ वर्गों के कैदियों को जेलों में काम का उचित वितरण पाने का अधिकार होगा.
बीते 10 जुलाई को कोर्ट ने सभी पक्षों की जिरह के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया था. यह याचिका पत्रकार सुकन्या शांता ने दायर की थी. याचिका में कहा गया था कि देश के करीब 17 राज्यों में जेलों में बंद कैदियों के साथ जाति आधारित भेदभाव हो रहा है.
इस साल जनवरी में महाराष्ट्र के कल्याण की मूल निवासी शांता की याचिका पर केंद्र और उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल समेत 11 राज्यों से जवाब मांगा था. अदालत ने इस दलील पर गौर किया था कि इन राज्यों के जेल मैनुअल जेलों के अंदर काम के आवंटन में भेदभाव करते हैं और कैदियों की जाति के आधार पर उन्हें रखा जाता है.
सुनवाई के दौरान कोर्ट ने याचिकाकर्ता के वकील ने दलील देते हुए कहा था कि राज्यों की जेल नियमावलियां जेलों के अंदर काम के आवंटन में भेदभाव करती है और कैदियों के स्थान उनकी जाति के आधार पर तय होते हैं.
याचिका में यह आरोप भी लगाया गया था कि देश के कुछ राज्यों के जेल मैनुअल जाति आधारित भेदभाव को बढ़ावा देते हैं. राजस्थान में कैदी अगर नाई होगा तो उसे बाल और दाढ़ी बनाने का काम मिलेगा, जबकि ब्राह्मण कैदी को खाना बनाने का काम और वाल्मीकि समाज के कैद सफाई का काम करते थे. वहीं, उत्तर प्रदेश में जेल मैन्युअल 1941 में कैदियों के जातिगत पूर्वाग्रहों को बनाए रखने और जाति के आधार पर सफाई, संरक्षण और झाड़ू लगाने का काम का प्रावधान है.
-भारत एक्सप्रेस
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