हिंदी सिनेमा (Hindi Cinema) के गायकों में मोहम्मद रफी (Mohammed Rafi) का नाम बेहद अदब से लिया जाता है. उनका नाम भारत के सबसे महान और प्रभावशाली गायकों में शुमार है. उनकी आवाज में इतनी विविधता थी कि हर कोई इसका कायल हो जाता था. उन्होंने तेज बीट वाले गानों से लेकर देशभक्ति, उदासी भरे, रोमांटिक गानों के अलावा कव्वाली से लेकर गजल और भजनों तक में अपनी छाप छोड़ी है.
तमाम पुरस्कारों के अलावा उन्हें ‘सदी के सर्वश्रेष्ठ गायक’ की उपाधि भी दी गई है. 1967 में उन्हें भारत सरकार द्वारा सर्वोच्च नागरिक सम्मान में से एक ‘पद्मश्री’ से नवाजा गया था. इसके अलावा उन्हें एक राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और 6 फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिल चुके हैं.
मोहम्मद रफी ने एक हजार से अधिक हिंदी फिल्मों और कई भारतीय भाषाओं के साथ-साथ कुछ विदेशी भाषाओं में भी गाने रिकॉर्ड किए थे. उन्होंने अपने करिअर के दौरान उर्दू, पंजाबी, कोंकणी, असमिया, भोजपुरी, ओडिया, बंगाली, मराठी, सिंधी, कन्नड़, गुजराती, तमिल, तेलुगू, मगही, मैथिली जैसी कई भाषाओं और बोलियों में हजारों की संख्या में गाने रिकॉर्ड किए. भारतीय भाषाओं के अलावा उन्होंने अंग्रेजी, फारसी, अरबी, सिंहल, मॉरीशस क्रियोल और डच सहित कुछ विदेशी भाषाओं में भी गाने गाए थे.
कहा जाता है कि मात्र 13 साल की उम्र में पहली प्रस्तुति देने वाले मोहम्मद रफी ने अपने बेजोड़ करिअर में 26 हजार से अधिक गीतों को अपनी आवाज दी थी. उनके गीतों पर अभिनय कर उस जमाने में तमाम अभिनेता सुपरस्टार बन गए. ऐसे में अगर उन्हें ‘गायकों का सुपरस्टार’ कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.
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मोहम्मद रफी का जन्म पंजाब के वर्तमान अमृतसर जिले के कोटला सुल्तान सिंह में 24 दिसंबर 1924 को एक पंजाबी जाट मुस्लिम परिवार हुआ था. 1941 में रफी साहब ने लाहौर में एक पंजाबी फिल्म गुल बलोच के गीत ‘सोनिये नी हीरिये नी’ के लिए जीतन बेगम के साथ आवाज दी थी.
हिंदी सिनेमा में बतौर गायक उनका पदार्पण 1945 में आई फिल्म ‘गांव की गोरी’ के साथ हुआ था. इस अजीम फनकार ने 44 साल पहले 55 साल की उम्र में 31 जुलाई 1980 को दुनिया को अलविदा कहा था. हालांकि 44 साल बाद भी उनके गाए गीतों की खनक हमारे कानों में गूंजती हुई महसूस होती है.
हिंदी सिनेमा के लिए एक से बढ़कर एक गायकों ने अपना योगदान दिया है. मोहम्मद रफी के एकल गीतों (Solo Songs) के अलावा युगल गीतों (Duet Songs) को दर्शकों का भरपूर प्यार मिला है. उस दौर में रफी साहब की आवाज के साथ जब लता मंगेशकर (Lata Mangeshkar) की आवाज घुलती थी, तो दर्शक गीतों के जादुई मोहपाश में बंधकर रह जाते थे.
दोनों ने हिंदी गीतों को अलग ही मुकाम पर पहुंचाया. कहा जाता है कि दोनों ने मिलकर 400 से अधिक गाने गाए थे. रफी और लता ने मिलकर जो भी गीत गाए हैं, वे हिंदी सिनेमा के इतिहास मील का पत्थर साबित हुए हैं. वे आज भी सदाबहार हैं और पीढ़ियों बाद भी लोग उनके गाए गीतों को लूप में सुनना पसंद करते हैं.
रफी साहब और लता मंगेशकर के बीच साथ गाए गानों में जिस तरह की ट्यूनिंग थी, उसी तरह की ट्यूनिंग उन्होंने असल जिंदगी में भी बनाकर रखी थी. दोनों ने हमेशा एक-दूसरे का सम्मान किया, एक दूसरे के काम की तारीफ की. ये भी कहा जाता है कि दोनों दिग्गज इंटरव्यू के दौरान ये जरूर कहते थे उनके साथी गायक ने उनसे बेहतर गया. दोनों सारी लाइमलाइट या सारा श्रेय कभी खुद नहीं लेते थे.
हालांकि, एक समय ऐसा भी आया, जब एक मुद्दे को लेकर दोनों में अनबन इस कदर गहरा गई की असल जिंदगी की ट्यूनिंग ही गड़बड़ा गई. ये ऐसी गड़बड़ायी कि कई सालों तक दोनों न तो एक दूसरे से बात की और न ही एक साथ काम किया.
ये 1960 के दशक की बात है. जब गीतों की रॉयल्टी संगीत कंपनियों (Music Companies) के साथ गायकों को भी मिलने का मुद्दा खुर्खियों में छाया हुआ था. ये वो वक्त था जब गायकों को रिकॉर्डिंग लेबल से उनके द्वारा गाए जाने वाले गीतों के लिए कोई रॉयल्टी नहीं मिलती थी.
गायकों को एक गाने के लिए एकमुश्त भुगतान मिल जाता था, वहीं संगीत कंपनियां आजीवन गानों से पैसा कमाती थीं. तब गायकों को भी रॉयल्टी दिए जाने के इस मुद्दे पर लता समेत कुछ अन्य गायकों ने स्टैंड लेने का फैसला किया.
मीडिया में आई खबरों के अनुसार, जब लता ने अपने गाए गानों के लिए रॉयल्टी की मांग की, तो किशोर कुमार, मन्ना डे, तलत महमूद, मुकेश और कई अन्य जैसे कई प्रसिद्ध गायकों ने उनका समर्थन किया और स्वीकार किया कि वे भी अपने गानों के लिए रॉयल्टी चाहते हैं. वही रफी साहब इस विचार के खिलाफ थे.
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इस बात को लेकर फिल्म इंडस्ट्री दो खेमों में बंट गई थी और कई प्रसिद्ध गायक भी रॉयल्टी की मांग के खिलाफ रफी के साथ खड़े नजर आए थे. खबरों के अनुसार, मोहम्मद रफी ने कभी भी अपने गाने के लिए रॉयल्टी नहीं चाही, क्योंकि वह गायक के पेशे को बहुत पवित्र मानते थे.
हालांकि संगीत उद्योग का एक बड़ा हिस्सा लता के पक्ष में था, क्योंकि वे अपनी कला के लिए उचित मात्रा में पैसा चाहते थे. ऐसी खबरें हैं कि लता की बहन और प्रसिद्ध सिंगर आशा भोंसले ने इस मामले में रफी साहब का साथ दिया था.
तब म्यूजिक डायरेक्टर्स, फिल्म प्रोड्यूसर्स, सिंगर्स की एक मीटिंग हुई थी, जिसमें रफी ने नाराजगी में ऐलान कर दिया कि वह कभी भी लता के साथ काम नहीं करेंगे. इससे नाराज लता ने भी बोल दिया कि वे रफी साहब के साथ गीत नहीं गाएंगी. हालांकि, इस विवाद के कुछ समय बाद संगीत कंपनियों ने लता मंगेशकर की मांग मान ली और गायकों को उनके गानों के लिए रॉयल्टी मिलनी शुरू हो गई.
लता मंगेशकर ने रॉयल्टी की लड़ाई जीत ली थी, लेकिन इसकी कीमत उन्हें यह चुकानी पड़ी कि मोहम्मद रफी के साथ उनकी दोस्ती हमेशा के लिए खत्म हो गई.
नसरीन मुन्नी कबीर द्वारा लिखी गई किताब Lata Mangeshkar …in Her Own Voice के एक अंश में लता ने इस विवाद के बारे में बात की थी. उन्होंने कहा था, ‘रफी साहब और आशा का मानना था कि एक बार गाना रिकॉर्ड हो जाने और निर्माता द्वारा हमें पैसे दे दिए जाने के बाद बात खत्म हो जाती है. रफी साहब को नहीं लगता था कि हमें रॉयल्टी के लिए लड़ना चाहिए. इससे हमारे बीच दरार पैदा हो गई.’
वे कहती हैं, ‘1963 से 1967 तक हमने साथ में गाना नहीं गाया. आखिरकार एसडी बर्मन (SD Burman) हमें साथ लाए. 1967 में षणमुखानंद हॉल में एसडी बर्मन नाइट का आयोजन किया गया और रफी साहब और मैं मंच पर मिले. हम दोनों फिर से साथ में गाकर बहुत खुश थे और हमने ज्वेल थीफ का युगल गीत दिल पुकारे आरे आरे गाया.’
-भारत एक्सप्रेस
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