चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और यूएस प्रेसिडेंट जो बाइडेन
गुब्बारे का झगड़ा अब बच्चों का खेल नहीं रह गया है। इस खेल को भी बड़ों की नजर लग गई है। बड़े भी ऐसे जो अपनी ताकत के गुरूर में दूसरों को कमजोर दिखाने का कोई मौका नहीं गंवाते। बात अमेरिका और चीन की ही हो रही है। गुब्बारे की लड़ाई में अब ये दोनों एक-दूसरे को नीचा दिखाने में जुटे हुए हैं। एक-तरफ अमेरिका जहां चीन का गुब्बारा फोड़कर जासूसी की साजिश के भंडाफोड़ का दावा कर रहा है, वहीं चीन इसे भटका हुआ मौसमी उपकरण बताकर अमेरिका पर बेवजह हाय-तौबा मचाने का ठीकरा फोड़ रहा है।
बहरहाल गुब्बारा अब फूट चुका है और उसमें से क्या-क्या निकला इसकी जानकारी उतनी ही अस्पष्ट है, जैसे इस मामले में दोनों देशों से आए आधिकारिक बयान। जो स्पष्ट है वो ये है कि दोनों पक्षों में जबर्दस्त आपसी संदेह है और यही बात इस घटनाक्रम में दुनिया की दिलचस्पी की सबसे बड़ी वजह भी है। मुझे लगता है कि सच्चाई इस सब के बीच में कहीं है। अगर गुब्बारे के मलबे से अमेरिका पर्याप्त उपकरण बरामद कर लेता है, तो वो शायद यह पता लगा सकेगा कि उसके जरिए किस तरह की जानकारियां जुटाई जा रहीं थी, कितनी जानकारी एकत्र की जा चुकी थी और क्या इससे जुड़ा कोई डाटा चीन वापस भेजा गया था या भेजा जा रहा था? गुब्बारे से मिली जानकारी चीन की तकनीकी क्षमताओं को थोड़ा और समझने में मदद भी कर सकती है। चीन की शातिर चालों को देखते हुए अमेरिका को इस बात की भी आशंका है कि पकड़े जाने पर चीन ने गुब्बारे को स्वयं नष्ट करने या डाटा में घालमेल की योजना पहले से बना रखी हो। अमेरिका की तफ्तीश हाइब्रिड सैटेलाइट नेटवर्क के इस्तेमाल की संभावनाओं तक पहुंच गई है जिसमें सैटेलाइट को दुश्मन की जद में लाए बिना एक अधिक ऊंचाई वाले प्लेटफॉर्म की मदद से सुरक्षित तरीके से डाटा स्थानांतरित करने में उपयोग किया जा सकता है।
वैसे इस सबके साथ अमेरिका को इस बात पर भी दिमाग दौड़ाना चाहिए कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के दौर में चीन ने उसकी ‘जासूसी’ के लिए गुजरे जमाने के उस गुब्बारे पर ही दांव क्यों खेला जिसका इस्तेमाल कभी दूसरे विश्व युद्ध में जापानी सेना ने अमेरिका पर अग्निबम लॉन्च करने के लिए किया था। शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ ने भी एक-दूसरे की निगरानी के लिए गुब्बारे का खेल जमकर खेला था। खुद अमेरिका पेंटागन की रक्षा के लिए आसमानी ऊंचाई पर उड़ने वाले गुब्बारों की तैनाती पर लंबे समय से विचार कर रहा है। सरसरी तौर पर इसकी वजह गुब्बारे के उपयोग के कई फायदे हो सकते हैं। इसमें जासूसी कैमरे, रडार, सेंसर जैसे उपकरण लगाए जा सकते हैं, ड्रोन या सैटेलाइट की तुलना में इसको तैनात करना कम खर्चीला होता है, सैटेलाइट की तुलना में अपनी धीमी गति के कारण ये काफी लंबे समय तक निगरानी वाले क्षेत्र के ऊपर मंडरा सकता है।
लेकिन वो चीन ही क्या जिसका चक्रव्यूह दुनिया को इतनी आसानी से समझ में आ जाए। उसने निश्चित रूप से यह चक्कर किसी और बड़े फायदे की तलाश में चलाया है। यह संभव है कि चीन ने अमेरिका को यह संकेत दिया हो कि वो आपसी संबंधों में सुधार के लिए तैयार है लेकिन बिना तनाव बढ़ाए अमेरिका से प्रतिस्पर्धा के लिए वो कोई भी जरूरी कदम उठाने के लिए स्वतंत्र भी है और सक्षम भी। पहले गुब्बारे का मोंटाना जैसे परमाणु मिसाइल के ठिकाने वाले अति-सुरक्षित क्षेत्र में ‘भटककर’ पहुंच जाना और फिर तीन दिन बाद ही अमेरिकी सीमा में एक और गुब्बारे का मिलना गले नहीं उतरता। कहीं ऐसा तो नहीं कि चीन दरअसल चाहता ही था कि अमेरिका को इन गुब्बारों का पता चल जाए। यह देखने के लिए कि अमेरिका इस पर कैसी प्रतिक्रिया देता है और यह दिखाने के लिए भी कि वो कोई बड़ा खतरा उठाए बिना अमेरिकी हवाई क्षेत्र में घुसपैठ करने की तकनीकी क्षमता भी रखता है।
केवल तरीका ही नहीं, इस घटनाक्रम की टाइमिंग भी बड़ी महत्वपूर्ण है। अगर चीन ने जानबूझकर नहीं भी चाहा होगा कि उसका गुब्बारा पकड़ा जाए, तो भी उसके लिए इस ‘चूक’ का इससे अच्छा समय कोई दूसरा नहीं हो सकता था। अमेरिका हमेशा से अपनी संप्रभुता को मिलने वाली चुनौतियों को लेकर बेहद संवेदनशील रहा है। पहले हमने अफगानिस्तान, इराक, बाल्कन में देखा और अब पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र या यूक्रेन में देख रहे हैं कि वहां कुछ भी अप्रत्याशित होता है तो अमेरिका में राष्ट्रीय सुरक्षा के खतरे उभरने लगते हैं। कोरोना की मार, गैस की बढ़ती कीमतें, महंगाई के कारण इस खतरे ने और चिंताजनक स्वरूप ले रखा है। इन सबके बीच चीन का उस पर नियमित साइबर हमले करना, कोरोना वायरस फैलाने की जिम्मेदारी से साफ बच निकलना, बुनियादी ढांचे में घुसपैठ करना और अब उस पर जासूसी उपग्रह उड़ाते हुए भी ‘दंडित’ हुए बिना बचे रहने से अमेरिकी नेतृत्व और दुनिया में उसकी बादशाहत दोनों कठघरे में खड़ी हो रही है। साथ ही उसके लिए अब आम अमेरिकी को यह समझाना भी मुश्किल हो रहा है कि चीन के साथ उसका संघर्ष एशिया तक ही सीमित रहेगा और इसकी आंच अमेरिकी जमीन तक नहीं आएगी। और यह सब ऐसे समय में हो रहा है जब चीन अमेरिकी विदेश नीति की सर्वोच्च प्राथमिकता है। आशंका के अनुसार अपने विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन की बीजिंग की यात्रा स्थगित कर अमेरिका ने फिर जता दिया कि वो आउट ऑफ द बॉक्स सोचने की जहमत भी नहीं उठाना चाहता। पांच साल बाद दोनों देशों के बीच इतने बड़े स्तर पर कोई बैठक होने जा रही थी और तनाव के बावजूद अमेरिका अपने प्रतिनिधि को बीजिंग भेजकर चीन को चौंका सकता था और दोनों देशों की प्रतिस्पर्धा को आपसी संघर्ष में बदलने से रोकने के लिए कुछ ठोस पहल करता भी दिख सकता था। अफसोस कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन अपनी घरेलू राजनीति के दबाव में ये अवसर भी चूक गए।
लेकिन असल खतरा अमेरिका-चीन संघर्ष का नहीं, इससे कहीं बड़ा है – ध्रुवीकरण का, दुनिया के बंटवारे का। अमेरिका का खुद को चीनी गुब्बारे का एकमात्र लक्ष्य नहीं बताना एक तरह से ध्रुवीकरण की पुरानी बहस को नया आयाम देने जैसा ही है जिसमें एक तरफ चीन-रूस-उत्तरी कोरिया हैं और दूसरी तरफ अमेरिका, यूरोप और ज्यादातर प्रमुख एशियाई देश। अमेरिका के रक्षा विभाग ने इस बात पुष्टि की है कि इसी तरह के गुब्बारे उत्तर और दक्षिण अमेरिका, दक्षिण पूर्व एशिया, पूर्वी एशिया और यूरोप में संचालित किए गए थे। अमेरिकी मीडिया में भी ऐसी खबरें हैं कि संदिग्ध गुब्बारा परियोजना चीन के तटीय हैनान प्रांत से जापान, भारत, वियतनाम, ताइवान और फिलीपींस जैसे देशों में संचालित की जा रही थी। ये भी दिलचस्प है कि सेमीकंडक्टर प्रौद्योगिकी तक चीन की पहुंच को सीमित करने और उसकी माइक्रोचिप सप्लाई चेन को काटने के लिए अमेरिका ने पिछले महीने ही नीदरलैंड के साथ-साथ जापान के साथ भी एक समझौता किया है। इतना ही नहीं, ताइवान के मुद्दे पर चीन के साथ किसी संभावित संघर्ष की स्थिति के लिए अमेरिकी सेना ने फिलीपींस में अपनी क्षमताओं के विस्तार का ऐलान भी किया है।
सामुद्रिक और तकनीकी क्षेत्र के लिहाज से देखा जाए तो उत्तरी सीमाओं पर चीन की आक्रामकता के बाद भारत का झुकाव भी पश्चिम, खासकर अमेरिका की ओर बढ़ा है। बेशक हमने आर्थिक रूप से चीन के साथ अपने व्यापार को बनाए रखा है और रूस से कम लागत वाली ऊर्जा आपूर्ति भी लगातार जारी है। लेकिन यह भी एक हकीकत है कि जैसे-जैसे वैश्विक ध्रुवीकरण बढ़ेगा, हम पर अपनी ‘तरफदारी’ जाहिर करने का दबाव भी बढ़ेगा। इतना ही नहीं, किसी संभावित बड़े वैश्विक खतरे को टालने की जिम्मेदारी भी शायद सबसे ज्यादा हमारे कंधों पर ही रहने वाली है। वैसे ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो दुनिया अपने डिफॉल्ट मोड में वापस आती दिख रही है। इतना जरूर है कि शीत युद्ध के दौर में परमाणु शक्ति संपन्न देशों की जो संख्या पांच तक सीमित थी वो इस समय नौ तक पहुंच गई है। तो जाहिर है, विनाश का खतरा और व्यापक हुआ है। भटके गुब्बारे की तरह ये परमाणु शक्ति संपन्न देश दुनिया में शांति बनाए रखने की अपनी जिम्मेदारियों से नहीं भटकेंगे, इसकी उम्मीद ही की जा सकती है। चीनी गुब्बारे को मार गिराना अमेरिका की ओर से राष्ट्रीय गौरव का एक प्रदर्शन मात्र साबित हो, यही मानवता के लिए बेहतर होगा।